जो हो गुणग्राही और निरपेक्ष

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डॉ. दीपक आचार्य

मूल्यांकन वही कर सकता है

जो हो गुणग्राही और निरपेक्ष

आजकल हर कहीं दो प्रकार की बातों पर मानसिक तनाव और उद्वेग रहने लगा है। एक वे लोग हैं जो पूरी ईमानदारी और कत्र्तव्यनिष्ठा के साथ अपने दायित्वों को निभाने में समर्पित भाव से जुटे हैं।

दूसरी किस्म में वे लोग हैं जो सिर्फ चर्चाओं और अनर्गल गप्पों, वादों और दावों में माहिर हैं, ईमानदारी, कत्र्तव्यनिष्ठा, फर्ज और समर्पण से इनका दूर-दूर का रिश्ता नहीं है अथवा यों कहें कि ये लोग जहां मौका मिलता है वहाँ अपनी चाँदी काट लेते हैं। तीसरी किस्म उन लोगों की है जो उदासीन हैं और जैसे-तैसे जीवनयापन करते हुए दिन काट रहे हैं।

इनमें भी मुख्य रूप से दो तरह के लोगों की धाराओं के बीच यह संघर्ष यों तो अर्से से चला आ रहा है मगर हाल के वर्षों में इस दिशा में कुछ ज्यादा ही तनावों का माहौल है।

एक समय था जब समाज में विद्वजनों और नीर-क्षीर न्याय एवं सटीक निर्णय करने वाले लोगों का वजूद था और वे हर मामले में निरपेक्ष और पक्षपातविहीन होकर न्याय करते थे जिसे आम जन भी सहजता से आदर व सम्मान के साथ स्वीकार करता था।

इन न्याय करने वाले लोगों की न्याय बुद्धि और तटस्थता पर सभी को गहरा विश्वास हुआ करता था। इस वजह से समाज में यह साफ संदेश था कि जो गलत हैं, बुरे हैं और भ्रष्ट-बेईमान हैं उन्हें हतोत्साहित किया जाएगा तथा ईमानदार और श्रेष्ठ छवि वाले लोगों को संरक्षण मिलेगा ही मिलेगा।

इस वजह से समाज की तरक्की और प्रत्येक इकाई की खुशहाली का प्रवाह निरन्तर बना हुआ रहता था और समाज में वे लोग न सर उठा सकते थे, न हाथ। उन दुष्टबुद्धियों पर लगातार लगाम कसी हुई रहती थी और इस वजह से अच्छे लोगों का सुख-चैन बराबर बना रहता था।

बाद के वर्षों में अच्छे लोगों के कामों की बजाय बुरे और निकम्मों, बहानेबाजों, धूत्र्तों, मक्कारों ओर हरामखोरों की सराहना होने लगी। अच्छे लोेगों को हतोत्साहित और बुरे लोगों को प्रोत्साहित किया जाने लगा। इसका सीधा असर ये हुआ कि अच्छे और आदर्श जीवन जीने वाले लोग मुख्य धारा से कट कर हाशिये पर आने लगे और बुरे लोग मुख्य धारा में आ गए। इस वजह से सारा प्रवाह गंदला होता चला गया है।

समाज और संसार भर की यह आम समस्या सबसे बड़ी होती जा रही है कि अच्छे और परोपकार व सेवा कार्यों को करने वाले लोग उपेक्षित रह जाते हैं और प्रदूषित गलियारों से कुत्तों की तरह दौड़-भाग कर सिक्स लेन पर आ चुके लोगों को हर कहीं तरजीह मिल रही है।

इससे समाज में बुरे लोगों का वर्चस्व और वजूद लगातार बढ़ता जा रहा है और इसी अनुपात में ऎसे बुरे-बुरे तत्वों के नापाक गठजोड़ और संगठन भी बढ़ते चले जा रहे हैं। ऎसे लोगों का मेल-मिलाप भी ऎसा विचित्र कि जैसे भानुमती का कुनबा।

आज हर अच्छा आदमी आपको तनावग्रस्त, उपेक्षित और मूकदर्शक मानने लगा है। उसका यह स्पष्ट सोच हो गया है कि अब कहीं कोई सुनने, देखने और समझने वाला कोई रहा नहीं, आखिर न्याय कहाँ मिले?

जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं उन्हें यह साफ धारणा बना लेनी चाहिए कि कलियुग का प्रभाव हर कहीं दृष्टिगोचर होता ही है फिर समाज-जीवन का कोई क्षेत्र भी अछूता नहीं बचा है जो इस महारोग से ग्रस्त न हो। ऎसे में अच्छे कामों को करने का श्रेय देना आज के मनुष्यों के भाग्य में नहीं है।

इसे यों कहें कि अच्छे काम करने वालों की सराहना करने वालों की भारी कमी आ गई है। फिर अच्छे कार्यों का श्रेय लेना और देना वे ही कर सकते हैं जिनके भाग्य में बदा हो, वरना लोग तो बुरे ही बुरे कामों में धँसे हुए हैं।

आज संबंधों का आधार भी अच्छे और अनुकरणीय कामों की बजाय परस्पर स्वार्थ पूत्रि्त ही रह गई है। पंचतंत्र की कहानियों के सारे पात्र आज हमारे आस-पास जीवंत लगते हैं। अंधों के कंधों पर सवार होकर लूले-लंगड़े लोगोें को डण्डे से हाँक रहे हैं और जहाँ कहीं कमजोर नस दबाने की बातें होती हैं वहाँ अशक्त और बीमार होकर अभयदान की भीख माँगने लगते हैं।

समाज भर में ऎसे-ऎसे अष्टावक्र पैदा हो गए हैं जो उन लोगों को नसीहत देने लगे हैं जो उपनिषदों और वेद-पुराणों के आदर्शों पर जीवनयापन करते हुए सेवा और परोपकार में रमे हुए हैं। इन अष्टावक्रों के लिए न जीवनदर्शन का कोई मूल्य है न समाज का। अष्टावक्र के नाम को बदनाम करने वाले इन वक्री लोगों ने समाज का जितना कबाड़ा किया है उतना औरों ने नहीं।

वास्तविकता तो यह है कि समाज में अब ऎसे-ऎसे लोेग मुख्य धारा में आते जा रहे हैं जिनमें मूल्यांकन या विश्लेषण की न कोई शक्ति रही है, न सामथ्र्य। बल्कि जो लोग प्रतिभाओं की बजाय दूसरे-तीसरे रास्तों से झण्डे थाम लेते हैं उनमें भला वो क्षमता कहाँ से आएगी ?

मूल्यांकन का माद्दा उन्हीं लोगों में हो सकता है जिनमें गुणों को परखने की क्षमता हो। जो लोहे के गुण नहीं जान पाते, वे लोग आज सोने को परखने का काम कैसे कर सकते हैं? जमीनी कामों को करते-करते आगे बढ़ने वाले लोगों में ही वो जान आ सकती है जो औरों में जान फूँक सकने की सामथ्र्य रखती है वरना बाकी की बातेें तो चूल्हें को परोसी जाने वाली फूँक से ज्यादा नहीं।

स्वयं के ज्ञान, अनुभव और विद्वत्ता के साथ स्वयं के आचरणों में जो गुण ढले हुए होते हैं वे ही आगे चलकर अच्छाइयों और बुराइयों में भेद करने का माद्दा रखते हैं। जिन लोगों की कथनी और करनी, चाल और चलन से लेकर हर मामले में भेद ही भेद होता है वे न मूल्यांकन के अधिकारी हैं न विश्लेषण के।

किसी भी प्रतियोगिता के निर्णायक भौंदू हों तो मेधावी प्रतियोगियों को विफल रहने पर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए। बल्कि यह सोचना चाहिए कि उनकी प्रतिभाओं के मूल्यांकन का माद्दा उन लोगों में है ही नहीं।

इसलिए समाज-जीवन में जो लोग श्रेष्ठ और आदर्श कर्मयोग में जुटे हुए हैं उन्हें उन लोगों से प्रोत्साहन, सम्बल और सराहना की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए जो खुद अच्छे मनुष्य नहीं माने जाते या नहीं हो सकते। नदियों का मूल्यांकन वे लोग नहीं कर सकते हैं जो पानी में उतरने से डरते हैं या तटों पर किसी की अंगंली पकड़ कर भयभीत रहते हुए खड़े रहते हैं।

सच तो यह है कि वे लोग रहे ही नहीं जिनमें गुणों को समझने, परखने और उपयोग करने का माद्दा था। आज आदमी हृदय और बुद्धि की बजाय जेबों से चल रहा है और ऎसे में उन लोगों से किसी भी प्रकार की सराहना पाने की उम्मीद करना अपना निर्माण करने वाले विधाता का अपमान है। यह तय मान कर चलिये कि अच्छे कामों का जितना शाश्वत, उदात्त और विराट प्रतिफल ईश्वर दे सकता है, वैसा और कोई नहीं। आज हम जिनसे याचना करते हैं वे भी कहीं न कहीं भिखारियों की तरह गिड़गिड़ाते ही हैं।

 

 

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