छात्र हितों से दूर होते छात्र राजनीति

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अभिषेक रंजन

देश की छात्र राजनीति की चर्चा हो और उसमे दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम न आये, ऐसा हो नहीं सकता। यह एक आम धारणा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र लोकतंत्र के इस पहले पर्व में न केवल बढ़ चढ़कर भाग लेते रहे है बल्कि देश भर के छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) में अपने पसंद के प्रतिनिधि को जिताकर पूरे देश से जुड़े मुद्दे को उठाते भी है। भला कौन भूल सकता है अनेक आंदोलनों के केंद्र क्रांति चौक को, जो लोकतंत्र का गला घोटने वालें आपातकाल के ख़िलाफ न केवल ऐतिहासिक संघर्ष की हृदयस्थली बनी बल्कि इसने पूरे देश में जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की दिशा भी तय की। बिना अवरोध के लगातार अस्तित्व में बना रहने वालें डूसू ने न केवल छात्र राजनीति बल्कि देश के राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाने वालों की कर्मभूमि भी बना। राजनीति के शिखर पर बैठे अजय माकन, अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे लोग राजनीति के इस लौन्चिंग पैड (डूसू) की ताकत का एहसास दिलाते है।

लेकिन देश, समाज सहित छात्र-हितों से जुड़े मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाने वाला केंद्र डूसू अब मौन है। प्रतिरोध चापलूसी के गीत गाती है। डूसू का छात्र हित और छात्र, दोनों से सरोकार ख़त्म हो गये। क्रांति चौक की आवाज़ अब क्रांति के स्वर नहीं गुनगुनाती बल्कि छात्र राजनीति की सजी चिताओं पर बैठकर क्रंदन करती नज़र आती है। न कोई विचारधारा, न ही व्यक्तिगत तौर पर विचारधाराओं से कोई सरोकार बचा है। न छात्रों से जुड़े मुद्दों में दिलचस्पी बची और न ही डूसू के सिद्धांतों में निष्ठा। टिकट पाने से लेकर चुनाव जितने के तरीको को देखकर लगता है मानों भारतीय लोकतंत्र संसद से लेकर शैक्षणिक परिसर तक अपने जिन्दा रहने की जद्दोजहद कर रहा है। डूसू में अब देश, समाज और छात्रों से जुड़े विषय को लेकर भी कोई गंभीरता नहीं दिखती।

 

लगता है आदर्श छात्र संघ गुजरे ज़माने की बात हो गयी, जब निष्ठा, योग्यता डूसू पदाधिकारी बनने की पात्रता थी और इस आधार पर बने पदाधिकारी छात्र हितों के लिए न केवल संवेदनशील थे बल्कि उसके लिए लम्बी लडाई का माद्दा भी रखते थे। परन्तु विद्यार्थियों के समाधान के केंद्र जब नामांकन में दलाली वसूलने और फर्जी नामांकन का केंद्रबिंदु बन जाए तो कोई हमें समझाए कैसे बची रहेगी हमारी डूसू में आस्था ? कैसे करे हम समर्थन? क्यूँ लगाये नारे डूसू जिंदाबाद के जब इसने अपने ही नारे को भुला दिया?

डूसू के सिद्धांतों के विपरीत बने ये हालात और छात्र राजनीति के इस मत्वपूर्ण केंद्र की ऐसी दुर्दशा अचानक नहीं हुई बल्कि इसकी बुनियाद काफी पुरानी है। छात्रों के वाजिब मुद्दों से परे जाकर जबसे चुनाव होने शुरू हुए, तबसे डूसू के क्षरण का सिलसिला शुरू हो गया। ग्लैमर, पैसे, जाती जैसे-जैसे डूसू की राजनीति में अपनी छाप छोड़ना शुरू किया वैसे वैसे डूसू अपनी पहचान खोता गया। आज भले ही राष्ट्रिय नेताओं की दिलचस्पी से डूसू चुनाव राष्ट्रिय मीडिया में खबर बन जाता हो लेकिन डूसू की लोकप्रियता की वास्तविकता मीडिया में आयी खबर बयान नहीं करती। असलियत तो यह है कि मुद्दाविहीन, दिग्भ्रमित और व्यक्तिगत स्वार्थों पर आधारित डूसू राजनीति से अधिकांश छात्रों की रूचि समाप्त हो गयी है। विगत वर्षों में हुए चुनावों का ब्यौरा उठाया जाए तो यह स्पष्ट दिखता है कि लगातार वोट देने वालों छात्रों की संख्या घटती चली जा रही है। अन्ना के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने वालें छात्रों ने ही पिछली बार के चुनावों में बहुत कम मतदान किये।

छात्र राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले लोगों में पिछले कुछ वर्षों से इस बात पर चिंता प्रकट की जाती रही है कि डूसू के चुनाव में केवल 30-35 फीसदी मतदान होते है। ऐसे में मुश्किल से 10000 के आस पास वोट पाकर डूसू की सत्ता पर काबिज़ होने वालें नेता क्या वास्तव में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रतिनिधित्व करते है? क्या छात्र वास्तव में “मैं राजनीति को पसंद नहीं करता“, “आइ हेट पोलिटिक्स” की मानसिकता से ग्रसित होकर चुनाव के रूप में होने वाले इस सालाना जलसे में भाग नहीं लेता, यह सोचकर कि कुछ होना जाना तो है नहीं, फिर क्यूँ करे वोट ? क्या छात्रों की इन दलीलों में दम है जब कोई छात्र यह कहता है कि ”डूसू पदाधिकारी विद्यार्थियों से जुड़े हितों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते और न ही उन्हें हमारे पढाई-लिखाई व करियर को लेकर कुछ भला करने की चिंता है। वे कुछ नहीं करनेवालें”।

उपरोक्त बातों पर अगर छात्र राजनीति को जिन्दा रखने वालों की तरफ से चिंता प्रकट की जाती है तो वह महज क्षदम बुद्धिजीविता से ग्रसित होकर दिए गए बयान न होकर वास्तविकता की तरफ इशारा करते है और डूसू की असलियत बताते है। ये कुछ ऐसे विषय है जिनके पीछे डूसू की घटती लोकप्रियता के ठोस कारण छिपे है।

जब लोग काम मतदान की शिकायत करते है और कहते है कि छात्रों को भारी सख्या में मतदान के लिए बाहर निकलने चाहिए, तो सवाल है आखिर कोई क्यूँ लें दिलचस्पी डूसू चुनाव में, जब स्थितियां बदहाल हो और उसके ठीक होने के उपाय दूर दूर तक दिखाई नहीं पड़ते हो। छात्र हितों से जुड़े मुद्दे जब सिर्फ चुनावी वादे ही रहे, जब चुनाव जितने के बाद डूसू ऑफिस छात्रों की पदाधिकारियों के चुनाव में नारे लगाने वाले लोगो का अड्डा बन जाये, जब डूसू ऑफिस से छात्रों से जुड़ी समस्यायों के लिए उठने वालें आवाज़ बंद होकर निरुला में मारपीट करने की कर्कस आवाज़ में परिवर्तित हो जाये, तब हमें समझ में आता है कि आखिर छात्रों की दिलचस्पी डूसू चुनाव को लेकर कम क्यूँ होती जा रही है और डूसू चुनाव में मतदान कम क्यूँ होते है।

 

डूसू की राजनीति की बात करे तो डूसू डीयू का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता। यह दिल्ली विश्वविद्यालय के मात्र 53 कॉलेज का प्रतिनिधित्व करता जिसमे सेंट स्टीफेंस, लेडी श्रीराम कॉलेज, जीसस मेरी, दौलतराम जैसे महत्पूर्ण कॉलेज सहित अनेक विभाग शामिल ही नहीं है। गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय लगभग 3 लाख छात्रों का प्रतिनिधित्व करता है। 77 महाविद्यालयों के अलावा 4 पी जी सेंटर, 8 सम्बद्ध संस्थाओं, 5 मान्यता प्राप्त सहित 90 से ज्यादा विभाग, जिसमे स्नातोकोत्तर(पीजी) की पढाई वालें सेंटर भी शामिल है, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारिता में आते है। स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग दिल्ली विश्वविद्यालय में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जहा लगभग 2.50 लाख विद्यार्थी पढ़ते है। लेकिन डूसू इन सबका प्रतिनिधित्व न तो प्रत्यक्षतः करता है और न ही अप्रत्यक्षतः। मुख्यधारा में शामिल सभी छात्र संगठनों और पार्टियों की लिस्ट से वैसे सभी कॉलेज बाहर रहते है जहां चुनाव नहीं होते। यहाँ तक की इनसे जुड़े मुद्दे भी प्रकाश में नहीं आ पाते। इस चुनावी उपेक्षा का सबसे बड़ा नमूना है स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग (एसओएल) से जुड़े छात्र, जिनके मुद्दे उठाना, उसके लिए लड़ना और उन्हें अंजाम तक पहुचाने में किसी की कभी रूचि ही नहीं रहती।

दिलचस्प बात यह है कि डूसू चुनाव प्रचार में सबसे ज्यादा सक्रीय क्लास करने की मज़बूरी से स्वतंत्र एसओएल के छात्र ही रहते है। नारेबाजी करने साथ साथ प्रत्यासीयों के साथ घुमने वालें झुण्ड ओपन के ही छात्रों की रहती है लेकिन जब इनसे जुड़े मुद्दे सामने आते है तो कोई भी इनकी मदद को आगे नहीं आता। पिछले दिनों डीयू में लागु सेमेस्टर एसओएल में नहीं लागु हुआ, जिसकी वजह से अब ओपन से पढाई करने वालें छात्र रेगुलर कॉलेज में नामांकन नहीं ले पाएंगे। इतने बड़े मुद्दे और लाखों विद्यार्थियों से जुड़े इस विषय पर कही भी विरोध और उग्र प्रदर्शन देखने को नहीं मिला। राधिका तंवर के हत्या के मुद्दे को जोर शोर से उठाकर चुनावी लाभ लेने की कोसिस करने वालें सभी छात्र संगठन जर्मन के शोध विद्यार्थी की हत्या पर चुप्पी साधे रहे। दौलत राम कॉलेज की छात्राओं के साथ हॉस्टल में हो रहे अत्याचार का खुलासा जब एक दैनिक अख़बार ने किया तो मीडिया में बयान देने के अलावा किसी ने भी उनके लिए प्रदर्शन नहीं किये। हाल में ही ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट विश्व कप में जितने वालें भारतीय दल के कप्तान उन्मुक्त को जब परीक्षा देने से रोका गया तब भी कोई प्रदर्शन नहीं हुए केवल इसलिए कि वे सेंट स्टीफेंस के विद्यार्थी है और वह कॉलेज डूसू में नहीं आता। ऐसे अनेक मामले है जहां नॉन-डूसू कॉलेज के छात्रों से न तो डूसू और न ही छात्र संगठन अपना सरोकार रखना चाहते है।

ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर डूसू में छात्र अपनी रूचि क्यूँ दिखायेगा, जब उससे जुड़े मुद्दे ही उठाये नहीं जायेंगे! जिस तरह वन्दे मातरम चाहे जितना पुराना हो जाये, उसे हर सरकारी कार्यक्रम में गाया ही जायेगा। उसी तरह पिछले 12 -13 सालों से कुछ मुद्दे ऐसे ही है जिन्हें डूसू चुनाव के घोषणा पत्र में जरुर जगह दी जाती है और उसे पूरा करने के तराने गाए जाते है। बस पास सभी बसों में मान्य हो, मेट्रों में रियायती पास दी जाये, होस्टल की संख्या बढाई जाए जैसे कुछ ऐसे ही मुद्दे है जो हर वर्ष चुनावी घोषणा पत्र की शोभा बढ़ाने को मौजूद रहते है। ऐसे में लगता है कि देशभर के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व करनेवालें डूसू के चुनावी घोषणा पत्र भी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की तरह हो गए जो सिर्फ वादे ही करते है। वह उन्हें निभाने, पूरा करने में अपनी शक्ति और दिमाग नहीं लगाना चाहती, क्यूंकि ये कुछ ऐसे मुद्दे है जिनके नाम पर पहली बार डीयू में नामांकन लेने वालें छात्रों को लुभाया जा सकता है। शोध कार्यों को बढ़ावा देंगे, प्रतिभाशाली व गरीब छात्रों को अधिक से छात्रवृतियाँ दिलवाएंगे, छात्र-शिक्षक में बढती दूरियों को पाटकर दिल्ली विश्वविद्यालय को विश्वस्तर का बनाने की कोसिस करेंगे जैसे वाक्य भाषणों में भी अपनी जगह नहीं पा पाती।

बड़े अरमान लेकर लाखों विद्यार्थी दिल्ली के बाहर से आकर अपनी पढाई डीयू में पूरा करने को आते है। अपने को शीर्ष पांच केन्द्रीय विश्वविद्यालय में गिनती करवाने के बाबजूद डीयू 10 प्रतिसत छात्रों के रहने हेतु छात्रावास उपलब्ध नहीं करवा पाया है। छात्रावासों के अभाव में नार्थ कैम्पस के हडसन लेन, तिमारपुर, लखनऊ रोड, मॉल रोड, विजय नगर, कमला नगर, साऊथ कैम्पस के सत्यनिकेतन, मुनिरका, मोतीबाग सहित दिल्ली के अन्य इलाकों में किसी तरह अपना कॉलेज जीवन बिताने के मजबूर छात्रों की वेदना को किसी भी डूसू पदाधिकारी ने आजतक समझने को काबिल नहीं समझा। बड़े बड़े वादें करके छात्रों को लुभाने व उनके वोट बटोरने वालें किसी डूसू पदाधिकारी ने कभी भी किसी इलाके में बढ़ते रूम रेंट, मकान मालिकों की प्रताड़ना के ख़िलाफ अपनी आवाज़ नहीं बुलंद की। उलटे सबने प्रश्रय ही दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास के इलाकों में आज तक रूम रेंट कण्ट्रोल एक्ट प्रभावी ढंग से क्यूँ नहीं लागु हो पाया, यह जाँच का विषय है। वैसे भी खाए-पिए-अघाए घरों के लाडले जिन्होंने शान-ओ-शौकत में ही अपनी जीवन बितायी और राजनीति के सीढियों को चापलूसी, दलाली और पैसे के सहारे चढ़े, वे आखिर क्यों सुने अपने घर से दूर अपने ही देश में दोयम दर्जे के व्यवहार जीने को मजबूर छात्रों की मज़बूरी। क्या वास्ता है उनका।

ऐसे अनेक मुद्दे है जिनपर सोचा जाए तो यह लगता है कि ऐसे समय में जबकि देश में बड़े पैमाने पर व्यवस्था परिवर्तन को लेकर बहस चल रही है। वैसे समय में इस परिवर्तन की शुरुआत डूसू चुनाव से ही शुरू की जानी चाहिए क्यूंकि इसकी दरकार छात्र राजनीति को ज़मीनी तौर पर जिन्दा रखने के लिए बहुत जरुरी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव दिल्ली की संकीर्ण जातिवादी-क्षेत्रवादी राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। छात्र हितों व छात्रों से जुड़ी समस्यायों को लेकर डूसू इसी तरह मौन रहेगा। निर्माण की वजाए पुस्तकालय तोड़े जायेंगे। वाल ऑफ़ डेमोक्रेसी पर्चे चिपकाने और उसे फाड़ने के केंद्र बने रहेंगे और छात्रों को चुनावी सपने दिखाकर ठगने की प्रक्रिया जारी रहेगी।

देश का युवा चाहता है, डूसू चुनाव की भूमिका राजनीति चमकाने, दारू पिलाने, फ़िल्में दिखाने, गाड़ी पर घुमाने जैसी बातों से हटकर छात्रों के समस्या समाधान का केंद्र बने, छात्र समस्यायों के लिए निर्णायक संघर्ष करनेवालें नेताओं के कारण जाना-पहचाना जाये। डूसू का जीवंत होना न केवल डीयू के छात्रों के लिए बल्कि देश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य को एक सही दिशा देने का भी काम करेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय सबका है, इसलिए सबकी अभिलाषा भी डूसू के गर्व लौटते देखने में ही है। उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि पिछले डूसू पदाधिकारियों की राह पर न चलते हुए वर्तमान डूसू छात्र-हितों के लिए वर्ष भर सकिय रहेगा। साथ ही साथ डूसू राजनीतिक सुधार की प्रयोग भूमि भी बनेगा ताकि देश को आदर्श छात्र संघ की नजीर पेश हो सकें

 

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