नवभवन द्वारा प्रकाशित महात्मा गांधी की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ का आठवां पाठ
पाठक: वकीलों की बात तो हम समझ सकते हैं। उन्होंने जो अच्छा काम किया है वह जान-बूझकर नहीं किया, ऐसा यकीन होता है। बाकी उनके धंधे को देखा जाय तो वह कनिष्ठ ही है। लेकिन आप तो डाक्टरों को भी उनके साथ घसीटते हैं, यह कैसे?
संपादक: मैं जो विचार आपके सामने रखता हूं वे इस समय तो मेरे अपने ही हैं। लेकिन ऐसे विचार मैंने ही किये सो बात नहीं। पश्चिम के सुधारक खुद मुझसे ज्यादा सख्त शब्दों में इन धंधों के बारे में लिख गये हैं। उन्होंने वकीलों और डाक्टरों की बहुत निन्दा की है। उनमें से एक लेखक ने एक जहरी पेड़ो का चित्र खींचा है, वकील-डाक्टर वगैरा निकम्मे धंधेवालों को उसकी शाखाओं के रूप में बताया है और उस पेड़ के तने पर नीति-धर्म की कुल्हाड़ी उठाई है।
अनीति को इन सब धंधों की जड़ बताया है। इससे आप यह समझ लेंगे कि मैं आपके सामने अपने दिमाग से निकाले हुए नये विचार नहीं रखता, लेकिन दूसरों का और अपना अनुभव आपके सामने रखता हूं। डाक्टरों के बारे में जैसे आपको अभी मोह है, वैसे कभी मुझे भी था। एक समय ऐसा था, जब मैंने खुद डाक्टर होने का इरादा किया था और सोचा था कि डाक्टर बनकर कौम की सेवा करूंगा। मेरा यह मोह अब मिट गया है। हमारे समाज में वैद्य का धंधा कभी अच्छा माना ही नहीं गया। इसका भान अब मुझे हुआ है और उस विचार की कीमत मैं समझ सकता हूं।
अंग्रेजों ने डाक्टरी विद्या से भी हम पर काबू जमाया है। डाक्टरों में दंभ की भी कमी नहीं है। मुगल बादशाह को भरमाने वाला एक अंग्रेज डाक्टर ही था। उसने बादशाह के घर में कुछ बीमारी मिटाई, इसलिए उसे सिरोपाव मिला। अमीरों के पास पहुंचनेवाले भी डॉक्टर ही हैं।
डॉक्टरों ने हमें जड़ हिला दिया। डॉक्टरों से नीम-हकीम ज्यादा अच्छे, ऐसा कहने का मेरा मन होता है। इस पर हम कुछ विचार करें।
डाक्टरों का काम सिर्फ शरीर को संभालने का है या शरीर को संभालने का भी नहीं है। उनका काम शरीर में जो रोग पैदा होते हैं, उन्हें दूर करने का है। रोग क्यों होते हैं? हमारी ही गफलत से। मैं बहुत खाऊं और मुझे बदहजमी, अजीर्ण हो जाय, फिर मैं डाक्टर के पास जाऊं और वह मुझे गोली दे, गोली खाकर मैं चंगा हो जाऊं और दुबारा खूब खाऊं और फिर से गोली लूं। अगर मैं गोली न लेता तो अजीर्ण की सजा भुगतता और फिर से बेहद नहीं खाता। डाक्टर बीच में आया और उसने हद से ज्यादा खाने में मेरी मदद की। उससे मेरे शरीर को तो आराम हुआ लेकिन मेरा मन कमजोर बना। इस तरह आखिर मेरी यह हालत होगी कि मैं अपने मन पर जरा भी काबू न रख सकूंगा।
मैंने विलास किया, मैं बीमार पड़ा डाक्टर ने मुझे दवा दी और मैं चंगा हुआ। क्या मैं फिर से विलास नहीं करूंगा? जरूर करूंगा। अगर डाक्टर बीच में न आता तो कुदरत अपना काम करती। मेरा मन मजबूत बनता और अन्त में निर्विषयी होकर मैं सुखी होता।
अस्पतालें पाप की जड़ है। उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं और अनीति को बढ़ाते हैं।
यूरोप के डाक्टर तो हद करते हैं। वे सिर्फ शरीर के ही गलत जतन के लिए लाखों जीवों को हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्म को मंजूर नहीं। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जरथोस्ती सब धर्म कहते हैं कि आदमी के शरीर के लिए इतने जीवों को मारने की जरूरत नहीं।
डाक्टर हमें धर्म भ्रष्ट करते हैं। उनकी बहुत सी दवाओं में चरबी या दारू होती है। इन दोनों में से एक भी चीज हिन्दू मुसलमान को चल सके, ऐसी नहीं है। हम सभ्य होने का ढोंग करके दूसरों को वहमी मानकर और बेलगाम होकर चाहें जो करते रहें। यह दूसरी बात है। लेकिन डाक्टर हमें धर्म से भ्रष्ट करते हैं। यह साफ और सीधी बात है।
इसका परिणाम यह आता है कि हम निसत्व और नामर्द बनते हैं। ऐसी दशा में हम लोकसेवा करने लायक नहीं रहते और शरीर से क्षीण और बुद्धिहीन होते जा रहे हैं। अंग्रेजी या यूरोपियन डाक्टरी सीखना गुलामी की गांठ को मजबूत बनाने जैसा है।
हम डाक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचने की बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात नहीं है। उस धन्धे में परोपकार नहीं है, यह तो मैं बता चुका। उससे लोगों को नुकसान होता है। डाक्टर सिर्फ आडम्बर दिखाकर ही लोगों से बड़ी फीस वसूल करते हैं और अपनी एक पैसे की दवा के कई रुपये लेते हैं। यों विश्वास में और चंगे हो जाने की आशा में लोग डाक्टरों से ठगे जाते हैं। जब ऐसा ही है तब भलाई का दिखावा करनेवाले डाक्टरों से खुले ठग वैद्य (नीम हकीम) ज्यादा अच्छे।
जारी….
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