प्रमोद भार्गव
मध्य प्रदेश में लोकसभा चुनाव के पहले चरण में हुए छह सीटों पर कम मतदान के चलते भाजपा को झटका लग सकता है। जबकि अच्छे मतदान के लिए भाजपा ने प्रत्येक मतदान केंद्र पर सूक्ष्म प्रबंधन के दावे किए थे। कार्यकर्ताओं को जुटाकर अमित शाह तक ने मतदाता को मतदान केंद्र तक पहुंचाने के गुर सिखाए थे। उधर जिला प्रशासन भी अधिक मतदान के लिए उन सब टोने-टोटकों को आजमाता रहा है, जिन्हें मतदान बढ़ाने का परंपरागत फार्मूला माना गया है। हालांकि इन टोटकों में ज्यादा कुछ असरकारी कभी दिखाई नहीं दिया। प्रशासन की हुंकार पर सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों, आंगनवाड़ी महिला कार्यकर्ताओं और स्व-सहायता समूह की महिलाओं को इकट्ठा करके मानव श्रृंखला बनाकर और कुछ नारे लगाकर इन टोटकों की इतिश्री न केवल प्रदेश बल्कि पूरे देश में कर ली जाती है। जिसके नतीजे लगभग षून्य होते हैं। मध्यप्रदेश में मतदान का एक बड़ा कारण मुख्यमंत्री मोहन यादव की छवि भी रही है। उनका जनता को न तो भाषण सुहा रहा है और न ही कार्यशैली। पिछले चार माह में वे कोई ऐसी नीति लागू करने में भी असफल रहे हैं, जो मौलिकता के साथ जनता के लिए लाभदायक लगी हो ?
बहरहाल भाजपा संगठन इस तैयारी में लगा रहा था कि मतदान लगभग 10 प्रतिशत तक बढ़ जाए। परंतु हुआ इसका उल्टा, पहले चरण की छह सीटों पर 10 से 12 प्रतिशत तक मत-प्रतिशत कम हो गया। साफ है, वोट बढ़ाने का फार्मूला कारगर साबित नहीं हुआ है। 26 अप्रैल और 7 मई को होने वाले दूसरे और तीसरे चरण के मतदान में भी कमोबेश यही स्थिति रहने वाला है ? भाजपा ने विधानसभा चुनाव में युद्ध स्तर पर मतदान केंद्रों तक मतदाता को पहुंचाने की जिम्मेदारी लेते हुए वोट-प्रतिशत 48.55 प्रतिशत तक पहुंचा दिया था। इसी का नतीजा रहा कि 230 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 163 सीटों पर विजय प्राप्त कर ली थी। भाजपा के इस केंद्र प्रबंधन की तारीफ भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी हुई। अतएव इसी फार्मूले को लोकसभा चुनाव में भी अजमाने के प्रबंध किए गए। बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं को कार्यशालाएं लगाकर प्रशिक्षित भी किया गया। लेकिन मत-प्रतिशत बढ़ने की बजाय घट गया। कार्यकर्ता और मतदाता के उदासीन होने के कारणों में विधानसभा चुनाव परिणाम में स्पष्ट बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री के चयन में उम्मीद से ज्यादा देरी और फिर मंत्रीमंडल के गठन में भी इसी देरी को दोहराना प्रमुख कारण रहे हैं। इस उदासीनता के पीछे एक बड़ा कारण शिवराज सिंह चैहान को हाशिए पर डालना भी रहा है। जबकि विधानसभा चुनाव में जीत का प्रमुख आधार उनकी लाडली लक्ष्मियां और बहनें रही हैं। शिवराज की लोक-लुभावन भाषण कला भी इस बड़ी जीत का एक राज रही है। जबकि मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लेकर अब तक उनका करिश्माई नेतृत्व किसी भी क्षेत्र में देखने में नहीं आया है।
19 अप्रैल को हुए पहले चरण के चुनाव में सीधी में मतदान का प्रतिशत 56.50 रहा, जबकि 2019 में 69.50 था। इसी तरह षडबल में 2024 में 64.68, जबकि 2019 में 74.73 था। जबलपुर में 61.00 रहा, जबकि 2019 में 69.43 प्रतिशत था। मंडला में 2024 में 72.84 प्रतिशत रहा, जबकि 2019 में 77.76 था। बालाघाठ में 2024 में 73.50 प्रतिशत रहा, जब 2019 में 77.61 प्रतिशत था। प्रदेश की चर्चित और भाजपा की जीत के लिए चुनौती बनी सीट छिंदवाड़ा में इस बार 2024 में 79.83 प्रतिशत मतदान रहा, जबकि 2019 में यह 82.39 प्रतिशत था। छिंदवाड़ा में अर्से से भाजपा वे सब हथकंडे अपनाने में लगी हैं, जो कमलनाथ और उनके लोकसभा प्रत्याषी पुत्र नकुलनाथ की हार का कारण बन जाएं ? इस रणनीति के तहत छिंदवाड़ा में दल-बदल का भी खूब खेल खेला गया। मतदान के 18 दिन पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए छिंदवाड़ा के महापौर विक्रम अहाके एकाएक अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस के पाले में लौट आए। उन्होंने इंटरनेट पर एक वीडियो जारी करके नकुलनाथ के लिए भरपूर मत एवं समर्थन भी मतदाताओं से मांगा। इस वीडियो में उन्होंने कहा है कि मैंने कुछ दिन पहले किसी राजनीतिक दल को ज्वाइन किया था। उसी दिन से मुझे घुटन महसूस हो रही थी। लग रहा था कि मैं उस इंसान (कमलनाथ) के साथ गलत कर रहा हूं, जिसने छिंदवाड़ा का भरपुर विकास किया और यहां के लोगों की दुख-दर्द में मदद की।
विक्रम अहाके ने 1 अप्रैल को भोपाल में मोहन यादव, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के समक्ष भाजपा की सदस्यता ली थी। पूर्व कांग्रेस नेता सैयद जाफर उन्हें भाजपा की सदस्यता दिलाने मुख्यमंत्री निवास ले गए थे। लेकिन उनकी अंतरात्मा में कमलनाथ के साथ अन्याय करने की हूक उठी और उन्होंने अपने राजनीतिक गुरू कमलनाथ का दामन फिर से थाम लिया। याद रहे वे कमलनाथ ही थे, जिन्होंने अहाके को केटरिंग कार्याकर्ता से आगे बढ़ाकर छिंदवाड़ा नगर निगम का महापौर बनवाया था। हालांकि अहाके का भाजपा में शामिल होने की पृष्ठ भूमि में बड़ा कारण 14 पार्षदों का भाजपा में शामिल होना रहा है। इस कारण परिषद अल्पमत में आ गई थी और अविश्वास प्रस्ताव का डर अहाके को सताने लगा था। इस कारण महापौर पद से पदच्युत होने का डर बैठ गया और वे भाजपा में शामिल हो गए। अब कमलनाथ के पाले में आने के बाद अहाके कह रहे हैं कि ‘मैंने अपनी भूल का प्रायश्चित कर लिया है। मुझे अब पद से हट जाने का भय नहीं रह गया है। अब मैं किसी दबाव में नहीं आऊंगा और अपने नेता कमलनाथ को नहीं छोडूंगा।‘ छिंदवाड़ा में कमलनाथ के करीबी रहे विधायक दीपक सक्सेना, कमलेश शाह भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ चुके हैं। लेकिन दोनों में से किसी ने भी कमलनाथ के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया है। बल्कि दीपक ने कहा है कि यदि कमलनाथ चुनाव लड़ते हैं तो मैं उन्हीं का साथ दूंगा। साफ है, छिंदवाड़ा में अभी भी कमलनाथ का जलवा बरकरार है और उनके पुत्र की जीत लगभग तय है।
मध्यप्रदेश में कम मतदान की झलक यह जता रही है कि प्रदेश में कांग्रेस शून्य नहीं हो रही है। पांच-छह सीटों पर कड़े मुकाबले के चलते वह जीत दर्ज करा सकती है। इनमें पहली सीट छिंदवाड़ा है, जहां से नकुल नाथ जीत की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। राजगढ़ से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्वििजय सिंह जीत की ओर बढ़ रहे हैं। मुरैना में कांग्रेस उम्मीदवार नीटू सिकरवार भाजपा के शिवमंगल सिंह तोमर को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। कमोबेष यही स्थिति चंबल-अंचल की सीट भिंड में दिख रही है। यहां से कांग्रेस उम्मीदवार फूलसिंह बरैया और भाजपा की सांसद संध्या राय को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। रतलाम से कांग्रेस के उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया, भाजपा के कमलेष्वर भील को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। इसी तरह मंडला में भाजपा उम्मीदवार फग्गन सिंह कुलस्ते की हालत ठीक नहीं बताई जा रही है। यहां से कांग्रेस उम्म्ीदवार शिवराज शाह अपनी बढ़त बनाए हुए हैं। कुलस्ते 2023 में विधानसभा का चुनाव भी हार गए थे। भाजपा के साथ नया संकट यह पैदा हो रहा है कि वह एक धु्रव पर केंद्रित होती दिखाई देने लगी है। नतीजतन भाजपा कार्यकर्ता और आम मतदाता में उदासीनता बढ़ रही है।
प्रमोद भार्गव