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    वित्तीयवर्ष 2023-24 में भारत का व्यापार घाटा 36 प्रतिशत कम हुआ

    विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भारत के लिए एक बहुत अच्छी खबर आई है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान  भारत के व्यापार घाटे में 36 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है। यह विशेष रूप से भारत में आयात की जाने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं में की गई कमी के चलते सम्भव हो सका है। केंद्र सरकार लगातार पिछले 10 वर्षों से यह प्रयास करती रही है कि भारत न केवल विनिर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने बल्कि विदेशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं का उत्पादन भी भारत में ही प्रारम्भ हो। अब यह सब होता दिखाई दे रहा है क्योंकि भारत के आयात तेजी से कम हो रहे हैं एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराईल-हम्मास युद्ध, लाल सागर व्यवधान, पनामा रूट पर दिक्कत के साथ ही वैश्विक स्तर पर मंदी के बावजूद एवं विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के हिचकोले खाने के बावजूद भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात में मामूली बढ़ौतरी दर्ज हुई है। जिसका स्पष्ट प्रभाव भारत के व्यापार घाटे में आई 36 प्रतिशत की कमी के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। भारत का कुल व्यापार घाटा वित्तीय वर्ष 2022-23 के 12,162 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में कम होकर वित्तीय वर्ष 2023-24 में 7,812 करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गया है। 

    वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में वस्तुओं का कुल आयात 67,724 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है जो वित्तीय वर्ष 2022-23 के 71,597 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में 5.41 प्रतिशत कम है। जबकि वस्तुओं के कुल निर्यात वित्तीय वर्ष 2023-24 में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में मामूली 3.11 प्रतिशत गिरकर 43,706 करोड़ अमेरिकी डॉलर के रहे हैं। देश के कुल निर्यात एवं आयात के बीच के अंतर को व्यापार घाटा कहा जाता है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान देश में वस्तुओं के निर्यात एवं आयात के अंतर का व्यापार घाटा 24,017 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है। परंतु, यदि वस्तुओं के निर्यात एवं आयात के आंकड़ों में सेवाओं के निर्यात एवं आयात के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो स्थिति बहुत अधिक सुधर जाती है। भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का कुल निर्यात वित्तीय वर्ष 2023-24 में पिछले वर्ष के उच्चत्तम रिकार्ड स्तर से भी आगे बढ़कर 77,668 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है, यह वित्तीय वर्ष 2022-23 में 77,640 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था। इसमें वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान किया गया सेवाओं का निर्यात, जो 3.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 33,962 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है, भी शामिल है। 

    वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं में विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, औषधियों एवं इंजीनीयरिंग वस्तुओं का अच्छा प्रदर्शन रहा है। इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का निर्यात वित्तीय वर्ष 2022-23 के 2,355 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान 2,912 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 23.64 प्रतिशत अधिक है। इसी प्रकार, दवाओं एवं औषधियों का निर्यात भी 9.67 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए वित्तीय वर्ष 2022-23 के 2,539 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में बढ़कर वित्तीय वर्ष 2023-24 में 2,785 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। साथ ही, इंजीनीयरिंग वस्तुओं का निर्यात भी 2.13 प्रतिशत की वृद्धि के साथ वित्तीय वर्ष 2023-24 में 10,932 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार कर गया है। कुल मिलाकर, भारत से वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान निर्यात में वृद्धि इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, दवाएं एवं चिकित्सा, इंजीनियरिंग उत्पादों, लौह अयस्क (वृद्धि दर 117.74 प्रतिशत), सूती धागा (यार्न एवं फैब्रिक में वृद्धि दर 6.71 प्रतिशत), फल एवं सब्जी (वृद्धि दर 13.86 प्रतिशत), तम्बाकू (19.46 प्रतिशत), मांस, डेयरी और पौलट्री उत्पाद (12.34 प्रतिशत), अनाज एवं विविध प्रसंस्कृत वस्तुएं (8.96 प्रतिशत), मसाला (12.30 प्रतिशत), तिलहन (7.43 प्रतिशत), आयल मील्स (7.01 प्रतिशत), हथकरघा उत्पाद एवं सेरेमिक उत्पाद तथा कांच के बर्तनों (14.44 प्रतिशत) के निर्यात के चलते सम्भव हो सकी है। साथ ही, यह वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत के प्रमुख निर्यात बाजार में अमेरिका, यूनाइटेड अरब अमीरात, यूरोपीयन यूनियन देशों, ब्रिटेन, सिंगापुर, मलेशिया, बांग्लादेश, नीदरलैंड, चीन व जर्मनी जैसे देशों के शामिल होने से भी सम्भव हो सका है।

    वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक तनाव के चलते भी विशेष रूप से मार्च 2024 माह में तो भारत से वस्तुओं का निर्यात वित्तीय वर्ष 2023-24 में अपने उच्चत्तम स्तर 4,168 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है, जबकि वस्तुओं के आयात मार्च 2024 माह में 5.98 प्रतिशत की कमी दर्ज करते हुए हुए 5,728 करोड़ अमेरिकी डॉलर पर नीचे आ गए हैं। इस प्रकार मार्च 2024 माह में वस्तुओं का व्यापार घाटा लगातार कम होकर केवल 1,560 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रह गया है। इसकी पूर्ति सेवाओं के क्षेत्र से निर्यात में हो रही लगातार बढ़ौतरी से सम्भव हो रही है। अब तो सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत कुल विदेश व्यापार में आधिक्य की स्थिति भी हासिल कर ले। वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात में वृद्धि के साथ एवं वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात में लगातार हो रही कमी के चलते यह सम्भव हो सकता है।

    वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत के कुल व्यापार घाटे (वस्तुओं एवं सेवाओं को मिलाकर) में आई भारी कमी के चलते अब यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि आगे आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय रुपए की मांग भी बढ़ सकती है और पिछले कई दशकों के दौरान भारतीय रुपए में आ रही लगातार गिरावट को रोककर अब भारतीय रुपया न केवल स्थिर हो जाएगा (वैसे पिछले लगभग एक वर्ष के दौरान भारतीय रुपया 83 रुपए प्रति डॉलर के आसपास लगभग स्थिर तो हो ही चुका है) बल्कि भारतीय रुपए की कीमत भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ सकती है। भारतीय रुपए की अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के साथ विनिमय दर वर्ष 1982 में 9.46 रुपए प्रति अमेरिकी डॉलर से 31 मार्च 2023 में 82.17 रुपए प्रति अमेरिकी डॉलर हो गई थी। परंतु, पिछले एक वर्ष के दौरान यह विनिमय दर लगभग स्थिर ही रही है। दूसरे, अब कई देश भारत के साथ विदेशी व्यापार को रुपए एवं उन देशों की स्वयं की मुद्रा में करने को सहमत हो रहे हैं। जिसके कारण भारत एवं इन देशों के बीच होने वाले विदेशी व्यापार का भुगतान करने हेतु अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता कम होगी, बल्कि भारतीय रुपए में ही भुगतान सम्भव हो सकेगा। इस प्रकार के व्यवहार यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों के बीच बढ़ते हैं तो विश्व में विडालरीकरण की प्रक्रिया को भी गति मिल सकती है। भारतीय रुपए में व्यापार करने हेतु रूस, सिंगापुर, ब्रिटेन, मलेशिया, इंडोनेशिया, हांगकांग, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ओमान, कतर सहित लगभग 32 देशों ने भारत के साथ समझौता किया है एवं भारतीय रिजर्व बैंक के साथ अपना वोस्ट्रो खाता भी खोल लिया है ताकि इन देशों को भारत के साथ किए जाने वाले विदेशी व्यवहारों के निपटान को भारतीय रुपए में करने में आसानी हो सके।              

    प्रहलाद सबनानी 

    भेदभाव और सुविधाओं की कमी से प्रभावित बालिका शिक्षा

    यशोदा गुर्जर
    अजमेर, राजस्थान
    हाल ही में राजस्थान के शिक्षा मंत्री ने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित स्कूलों के विकास से संबंधित कई अहम निर्देश दिया है. उन्होंने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में लागू होने वाले नवाचारों और नई तकनीकों पर आधारित गतिविधियों से राज्य के ग्रामीण विद्यालयों को जोड़ने में प्राथमिकता पर ज़ोर दिया है ताकि नई तकनीक पर आधारित कार्यक्रमों से गांव के विद्यार्थी भी लाभांवित हो सकें. दरअसल आज भी राजस्थान के कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां शिक्षा का प्रतिशत अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम है. हालांकि राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध 2011 की जनगणना के आधार पर राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता की औसत दर 61.4 प्रतिशत दर्शाया गया है. जिसमें सबसे अधिक गंगानगर के ग्रामीण क्षेत्रों में 66.2 प्रतिशत और सबसे कम प्रतापगढ़ में 53.2 प्रतिशत बताया गया है. जिन ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रतिशत कम है उसके पीछे कई कारण बताये जाते हैं जिसमें सबसे प्रमुख गांव से स्कूल की दूरी है जिससे सबसे अधिक किशोरियों की शिक्षा प्रभावित होती है.
    राज्य के अजमेर जिला स्थित धुवालिया नाडा गांव इसका एक उदाहरण है. जिला के रसूलपुरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति भील और रैगर समुदाय की बहुलता है. सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े इस गांव में आने जाने के लिए ग्रामीणों को न तो परिवहन की कोई विशेष सुविधा उपलब्ध है, न ही सार्वजनिक शौचालय और न ही सामुदायिक भवन की सुविधा है. इतना ही नहीं, गांव में कोई राजकीय विद्यालय भी नहीं है. इसके लिए बच्चों को प्रतिदिन 2 किमी दूर रसूलपुरा में स्थापित सरकारी स्कूल आना और जाना पड़ता है. परिवहन की सुविधा नहीं होने के कारण बच्चों को यह दूरी प्रतिदिन पैदल ही तय करनी पड़ती है. इसका सबसे अधिक नुकसान छोटे बच्चों के साथ साथ किशोरियों को होता है. जो अक्सर माहवारी के दिनों में पैदल स्कूल जाने और आने की बजाय घर में रहने को मजबूर हो जाती हैं. वहीं कई अभिभावक सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी लड़कियों को इतनी दूर स्कूल भेजने की जगह उनकी पढ़ाई छुड़वाने को तरजीह देते हैं.
    इस संबंध में कक्षा 9वीं की छात्रा जाह्नवी बताती है कि “गांव के बच्चे और किशोरियां प्रतिदिन पैदल स्कूल जाते हैं लेकिन वहां सुविधाएं नाममात्र की हैं. क्लास रूम तो बने हुए हैं लेकिन विद्यार्थियों के लिए न तो शौचालय की सुविधा उपलब्ध है और न ही पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था है. जो पानी उपलब्ध है वह इतना खारा है कि बच्चे उसे पीना नहीं चाहते हैं, इसके बावजूद स्कूल की ओर से उसी पानी में मिल्क पाउडर मिला कर बच्चों को पीने के लिए दिया जाता है, जिससे कई बार बच्चों की तबीयत बिगड़ जाती है.” उसी कक्षा की सोनू बताती है कि “पहले स्कूल में छात्र-छात्राओं के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं थी. पिछले वर्ष स्कूल में शौचालय का निर्माण कराया गया, लेकिन स्कूल प्रशासन की ओर से यह कह कर उसमें ताला लगा दिया गया कि बच्चे इसे गंदा कर देते हैं. ऐसे में छात्राएं माहवारी के समय स्कूल आने की जगह घर पर रुकना ही उचित समझती हैं क्योंकि जब शौचालय की व्यवस्था ही नहीं है तो वह ज़रूरत के समय पैड कहां चेंज करेगी? कई बार छात्राओं ने इस समस्या से स्कूल की शिक्षिकाओं को अवगत भी कराया, लेकिन उनकी ओर से भी कोई पहल नहीं की गई.”

    सोनू बताती है कि गांव से कम से कम 20 छात्राएं नियमित रूप से स्कूल जाती हैं. लेकिन माहवारी के समय उन्हें सुविधाओं की कमी के कारण घर पर ही रुकना पड़ता है. जिससे उनका क्लास छूट जाता है और वह सिलेबस में पीछे रह जाती हैं. हालांकि धुवालिया नाडा से करीब डेढ़ किमी दूर मदार गांव में भी राजकीय उच्च विद्यालय है, लेकिन वहां जाने और आने का रास्ता रसूलपुर से भी अधिक सुनसान है. इसीलिए अभिभावक वहां अपनी लड़कियों का एडमिशन नहीं कराते हैं. जाह्नवी बताती है कि “स्कूल में केवल सुविधाओं की ही कमी नहीं है, बल्कि हमारे साथ जातिगत भेदभाव भी किया जाता है. रसूलपुरा में उच्च जातियों की संख्या अधिक है और स्कूल में भी इसी जाति से संबद्ध शिक्षकों और विद्यार्थियों की बहुलता है, ऐसे में वह हमें पढ़ाने में बहुत अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं. वह हमें कक्षा में बोलने भी नहीं देते हैं.”

    जाह्नवी आरोप लगाती है कि “जब स्कूल में उच्च जातियों के छात्र-छात्राएं हमारे साथ जातिगत भेदभाव करते हैं और जब हम इसकी शिकायत शिक्षकों से करते हैं तो वह इस पर ध्यान नहीं देते हैं. जब अभिभावक स्कूल आकर इसकी शिकायत करते हैं तो उस समय शिक्षक कुछ नहीं बोलते हैं, लेकिन उनके जाने के बाद हमें डांटा जाता है कि स्कूल की बात घर पर मत बताया करो.” वह बताती है कि एक दो बार स्कूल आते या जाते समय रसूलपुरा के उच्च जातियों के लड़के यहां की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ भी कर चुके हैं. जिसकी बाद अभिभावक स्तर पर इस मुद्दे को उठाया गया, जिससे दोनों इलाकों में तनाव भी हो गया था. इससे उल्टा लड़कियों की शिक्षा पर ही असर पड़ा. अभिभावक हमारी सुरक्षा के प्रति बहुत चिंतित रहते हैं. यही कारण है कि अब इस गाँव की लड़कियों को अकेले स्कूल जाने आने नहीं दिया जाता है.

    राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की औसत साक्षरता दर मात्र 45.8 प्रतिशत है. इसमें अजमेर जिला के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत से भी कम मात्र 41.3 प्रतिशत है. हालांकि 2001 की जनगणना के 32.7 प्रतिशत की तुलना में यह काफी अच्छा है, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि स्कूलों में किशोरियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए. साथ ही स्कूल का ऐसा वातावरण तैयार किया जाए जहां वह आसानी से शिक्षा प्राप्त कर सकें. दरअसल शिक्षा हमें जातिगत भेदभाव से दूर करती है, लेकिन सच तो यह है कि हाशिए पर खड़े समुदाय और अति पिछड़े समाज के बच्चों को आज भी इसे पाने के लिए संघर्ष करनी पड़ रही है. उन्हें कई प्रकार के भेदभावों से गुज़रना पड़ रहा है. उनके हौसले को बढ़ाने की जगह मनोबल को तोड़ने का काम किया जा रहा है. 

    जबकि यह शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन का कर्तव्य बनता है कि वह स्कूल का ऐसा वातावरण बनाएं जहां न केवल भेदभाव का कोई स्थान न हो बल्कि बच्चे शिक्षकों के साथ बिना भय के अपने मन की बात भी साझा कर सकें. माहवारी किशोरियों की ज़िंदगी से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन जब स्कूल में इसी से संबंधित प्रबंध नहीं होंगे, उन्हें शौचालय की सुविधा नहीं मिलेगी तो हो सकता है कि भविष्य में किशोरियों के ड्राप आउट की संख्या बढ़ जाए. आज जब हम स्वतंत्र हैं, सभी को शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है इसके बावजूद कई ऐसे गांव, बस्ती और कस्बे हैं जहां भेदभाव तो कहीं बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण इस अधिकार का हनन हो रहा है. जिसका सबसे पहले नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा पर पड़ता है.

    भारत की बेमिसाल विरासत से दुनिया स्तंभित

    विश्व विरासत दिवस- 18 अप्रैल, 2024
    – ललित गर्ग –

    मानव सभ्यता के इतिहास और विरासत को एक साथ सम्मान देने के लिए हर साल 18 अप्रैल को विश्व विरासत दिवस मनाया जाता है। यह दिन दुनिया भर की विभिन्न संस्कृतियों को प्रोत्साहित करने, सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक स्मारकों और स्थलों के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। दुनिया भर के लोग त्योहारों, परंपराओं और स्मारकों के माध्यम से अपनी संस्कृति और विरासत का जश्न मनाते हैं। इस दिवस को मनाते हुए यूनेस्को असाधारण मूल्य के सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक स्थलों की सुरक्षा में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के विकास के साथ जुड़े एक समृद्ध इतिहास को बढ़ावा देता है। पहला विश्व धरोहर दिवस ट्यूनीशिया में मनाया गया था। विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत 1982 में इंटरनेशनल काउंसिल ऑन मॉन्यूमेंट्स एंड साइट्स (आईसीओएमओएस) ने की थी। इसके बाद 1983 में इसे ‘यूनेस्को’ की मंजूरी मिली। 1983 के बाद से हर साल अलग-अलग थीम के साथ विश्व धरोहर दिवस दुनियाभर में मनाया जाता है। 2024 की आधिकारिक थीम “हमारे वैश्विक विरासत की रक्षा करना” है। यूनेस्को किसी स्मारक या स्थल को धरोहर घोषित करता है तो उसके बाद उस जगह का नाम विश्व में काफी मशहूर हो जाता है। जिससे वहां विदेशी पर्यटकों का आवागमन भी काफी बढ़ जाता है, जिसका लाभ सीधा देश की अर्थव्यवस्था एवं वहां के पर्यटन व्यवसाय को मिलता है। विश्व धरोहर घोषित होने के बाद उस जगह का खास ध्यान रखा जाता है और उसकी सुरक्षा भी बढ़ा दी जाती है। यदि ये स्मारक ऐसे देश में है, जिसकी आर्थिक स्थिति सही नहीं है, तो यूनेस्को ही स्मारक की देखभाल और सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाता है।
    अंतरराष्ट्रीय स्मारक एवं स्थल परिषद और विश्व संरक्षण संघ ये दो संगठन है, जो इस बात का आकलन करते हैं कि स्थल विश्व धरोहर बनने लायक है या नहीं। साल में एक बार इस विषय के लिए समिति की बैठक होती है और फिर उन जगहों का चयन करती है, उसके बाद दोनों संगठन इसकी सिफारिश विश्व धरोहर समिति से करते हैं। फिर ये फैसला लिया जाता है कि उस जगह को विश्व धरोहर बनाना है या नहीं। विश्व विरासत दिवस की इसलिए अपने आप में एक वैश्विक महत्ता है, क्योंकि इसके जरिए दुनिया में सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने में सहूलियत मिल रही है। विश्व की विरासतें मानव को सतत रूप से प्रेरित करती हैं। सिर्फ किसी समाज की विरासत उसी समाज को प्रेरित नहीं करती बल्कि विश्व के दूसरे समाजों को भी विरासत अच्छी तरह से प्रेरित करती है। विरासत दिवस के चलते पर्यावरण और जागरूकता को बढ़ावा मिलता है। विरासतें विभिन्न समुदायों के बीच रिश्तों को आत्मीय और सम्मानजनक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और मानवीय उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए महत्वपूर्ण आधार होती हैं। यही वजह है कि विश्व विरासत को दुनियाभर के मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।
    विश्व विरासत दिवस सिर्फ हमारे जीवन में खुशियों के पलों को लाने में ही मदद नहीं करता बल्कि यह देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का माध्यम भी है। यह पर्यटन को प्रोेत्साहन देने का सशक्त माध्यम है। भारत की अर्थव्यवस्था पर्यटन-उद्योग के इर्द-गिर्द घूमती रही है। राजस्थान भारत का एक राज्य है जो विश्व विरासत का समृद्ध केन्द्र है, यह पर्यटन के लिए सबसे समृद्ध राज्य माना जाता है। राजस्थान की पुरातात्विक विरासत या सांस्कृतिक धरोहर केवल दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थल के लिए नहीं है बल्कि यह राजस्व प्राप्ति का भी स्रोत है। यूं तो भारत के सभी राज्यों में समृद्ध विरासत देखने को मिलती है। पर्यटन क्षेत्रों से कई लोगों की रोजी-रोटी भी जुड़ी है। प्राकृतिक सुंदरता और महान इतिहास से संपन्न राजस्थान में पर्यटन उद्योग समृद्धिशाली है। राजस्थान देशीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों, दोनों के लिए एक सर्वाधिक आकर्षक पर्यटन स्थल है। भारत की सैर करने वाला हर तीसरा विदेशी सैलानी राजस्थान देखने ज़रूर आता है। जयपुर के महल, उदयपुर की झीलें और जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर के भव्य दुर्ग भारतीय और विदेशी सैलानियों के लिए सबसे पसंदीदा जगहों में से एक हैं। इन प्रसिद्ध विरासत स्थलों को देखने के लिए यहाँ हज़ारों पर्यटक आते हैं। जयपुर का हवामहल, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के धोरे काफी प्रसिद्ध हैं। जोधपुर का मेहरानगढ़ दुर्ग, सवाई माधोपुर का रणथम्भोर दुर्ग एवं चित्तौड़गढ़ दुर्ग काफी प्रसिद्ध है। यहाँ शेखावटी की कई पुरानी हवेलियाँ भी हैं जो वर्तमान में हैरीटेज होटलें बन चुकी हैं।
    पर्यटन ने यहाँ आतिथ्य क्षेत्र में भी रोज़गार को बढ़ावा दिया है। यहाँ की मुख्य मिठाई ‘घेवर’ है। राजस्थान असंख्य पर्यटन अनुभवों, व्यंजनों और मोहक स्थलों का प्रांत है। चाहे भव्य स्मारक हों, प्राचीन मंदिर या मकबरे हों, नदी-झरने, प्राकृतिक मनोरम स्थल हो, इसके चमकीले रंगों और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रौद्योगिकी से चलने वाले इसके वर्तमान से अटूट संबंध है। यहां सभी प्रकार के पर्यटकों को चाहे वे साहसिक यात्रा पर हों, सांस्कृतिक यात्रा पर या वह तीर्थयात्रा करने आए हों, सबके लिए खूबसूरत जगहें हैं। यह राजस्थान पल-पल परिवर्तित, नितनूतन, बहुआयामी और इन्द्रजाल की हद तक चमत्कारी यथार्थ से परिपूर्ण समृद्ध विरासत का खजाना है। इस राजस्थान की समग्र विविधताओं, नित नवीनताओं और अंतर्विरोधों से साक्षात्कार करना सचमुच अलौकिक एवं विलक्षण अनुभव है। देश-दुनिया में हमारे पूर्वजों ने विभिन्न शिल्प-कलाओं में जो शानदार कृतियां (स्मारक, ग्रंथ, मंदिर, किले, महल या मकबरे आदि के रूप में) उकेरीं, वो आज हम सभी के सामने महान सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में मौजूद हैं। ये हमारे गौरवशाली अतीत की याद दिलाते हैं, साथ ही आर्थिक लाभ का जरिया भी बनते हैं।
    भारतीय संस्कृति में हरे-भरे पेड़, पवित्र नदियां, पहाड़, झरनों, पशु-पक्षियों की रक्षा करने का संदेश हमें विरासत में मिला है। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से केवल स्मारक एवं स्थल हीं नहीं, प्रभु श्रीराम जैसे महानायकों का जीवन भी दुनिया के लिये प्रेरणास्रोत रहा है। स्वयं भगवान श्रीराम व माता सीता 14 वर्षों तक वन में रहकर प्रकृति को प्रदूषण से बचाने का संदेश दिया। ऋषि-मुनियों के हवन-यज्ञ के जरिए निकलने वाले ऑक्सीजन को अवरोध पहुंचाने वाले दैत्यों का वध करके प्रकृति की रक्षा की। जब श्रीराम ने हमें प्रकृति के साथ जुड़कर रहने का संदेश दिया है तो हम वर्तमान में क्यों प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने में लगे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम प्रकृति की रक्षा करें। गोस्वामी तुलसीदास ने 550 साल पहले रामचरित मानस की रचना करके श्रीराम के चरित्र से दुनिया को श्रेष्ठ पुत्र, श्रेष्ठ पति, श्रेष्ठ राजा, श्रेष्ठ भाई, प्रकृति प्रेम और मर्यादा का पालन करने का संदेश दिया है। रामचरित मानस एक दर्पण है जिसमें व्यक्ति अपने आपको देखकर अपना वर्तमान सुधार सकता है एवं पर्यावरण की विकराल होती समस्या का समाधान पा सकता है।
    प्रकृति एवं पर्यावरण के आधार नदियों एवं पहाड़ों के साथी बनना होगा, उनका संरक्षण एवं सम्मान करना होगा, तभी विश्व विरासत दिवस मनाना सार्थक होगा। भारत में विश्व धरोहरों का सम्मान इसलिए भी ज्यादा जरूरी है क्योंकि लंबे समय तक भारत पहले विदेशी आक्रांताओं और फिर साम्राज्यवादी लूट-खसोट का केंद्र रहा है, इसलिए पिछले लगभग 1000 सालों में भारत की सांस्कृतिक विरासत न सिर्फ बड़े पैमाने पर छिन्न-भिन्न हुई बल्कि इन विदेशी लुटेरों और साम्राज्यवादी षड़यंत्रकारियों ने लोगों के दिलोदिमाग में ऐसी हीनताबोध भी भर दिया कि आम हिंदुस्तानियों को अपने इतिहास, संस्कृति और परंपरा में कोई ऐसी महत्वपूर्ण चीज ही नजर नहीं आती थी, जिसे सांस्कृतिक धरोहर मानकर उसके प्रति गौरवबोध का एहसास हो। आदर्श समाज व्यवस्था का मूल आधार है प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ संतुलन बनाकर जीना। रामायण में आदर्श समाज व्यवस्था को रामराज्य के रूप में बताया गया है उसका बड़ा कारण है प्रकृति के कण-कण के प्रति संवेदनशीलता।
    विश्व विरासत दिवस केवल उत्सव मनाने का दिन नहीं है, बल्कि चिंतन, कार्रवाई और प्रतिबद्धता का दिन है। इस अवसर का उपयोग सभी के लाभ के लिए अपने सांस्कृतिक धरोहर और प्राकृतिक संरक्षण में योगदान देना है। यह वैश्विक आयोजन सांस्कृतिक धरोहर के प्रति चिंतन करता है और इन अमूल्य खजानों के साथ जुड़ाव को प्रोत्साहित करता है। यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन स्थलों, महानायकों, अमूल्य गं्रथों को संरक्षित और सुरक्षित रखने के महत्व को पहचानने, दुनिया भर में उनकी सुंदरता, ऐतिहासिक महत्व और सांस्कृतिक महत्व के लिए सराहना को बढ़ावा देने का अवसर है।

    पेट्रोल पंप

    उसे पेट्रोल पम्प मिल गया है ये सुना अभी,

    कैसे हुआ ये चमत्कार अवाक हैं सभी ,

    अब और भी लघु लगने लगी है मेरी लघुता,

    इस पेट्रोल पंप से उसकी कितनी बढ़ेगी प्रभुता

    अब सालेगी न उसे कोई बात चिंता की,

    भले ही बाबूजी की पेंशन रहे जब-तब रुकती,

    क्योंकि पेट्रोल पंप को होना होता है एक वरदान सरीखा,

    यह मैंने भी जाना और सीखा,

    कोई देवत्व जरूर ही होता होगा

    इन पेट्रोल पंपों में शायद ,

    नेता,अधिकारी,धर्माचार्य से

    लेकर वेश्या तक,

    सभी तो इस मृग मरीचिका के पीछे दौड़े-भागे फिरते हैं,

    इनको लेकर सरकारों के भी, अपने-अपने सब्जबाग हैं,

    इस पेट्रोल पम्प से जुड़ी, हसरतों की एक दुनिया आबाद है,

    विधवा विकलांग, छोड़ी हुई औरत से लेकर,

    ऊंची जाति, जनजाति और

    अगड़े -पिछड़े,कमतर-बेहतर,

    जिनको हैं रहने और खाने के लाले,

    वो भी हैं पेट्रोल पंप का ख्वाब पाले,

    वैसे तो तरक्की पाने के और भी रास्ते हैं

    मगर पेट्रोल पंप पाने के फार्म काफी सस्ते हैं,

    अब मैं और मेरा दोस्त एक जैसे न रहें शायद ,

    वैसे मेरी और उसकी कभी लम्म -सम्म एक जैसी थी हैसियत

    अभी कुछ वर्षों पहले तक ही तो सब कुछ एक जैसा ही था,

    खाना पीना स्कूल, ट्यूशन,

    घर की कलह झगड़े तमाशे और सिर फुटव्वल भी,

    अलबत्ता हमारे घर में शांति ज्यादा थी,

    और उसके घर में संयम ज्यादा था,

    उससे थोड़ा इक्कीस ही सही,

    मगर हमारा वैभव था,

    फर्क सिर्फ इतना था उसके, बाप की नौकरी सरकारी थी,

    और मेरे पिता प्राइवेट नौकरी में बारह घण्टे खटा करते थे,

    फिर सरकारों की तरह ही

    बदला उनका रंग -ढंग,

    दिन-ब-दिन वह होते गये धनवान,

    पहले कारें आईं फिर उनका तिमंजिला होता गया मकान,

    मैं सरकारी कालेज में पढ़ा और जूझा,

    वह इंजीनियरिंग पढ़ने गया और बिन पढ़े छोड़ भी आया,

    वो रात -रात घूमा करता था,

    और मैं रात-रात भर पढ़ता और ख़टता रहता था,

    वह ऐश पर ऐश ही करता रहा,

    मैं मेहनत से पढ़ता-खटता रहा,

    ये और बात थी कि तब लोगों को,

    उसके बजाय मेरा भविष्य कहीं ज्यादा सुरक्षित लगता था,

    वह हजार कामों में उलझा,

    मैं राह बनाकर चलता गया,

    अचानक एक दिन में ही, फ़िर हम में इतना फर्क कैसे हो गया ?

    सुनते हैं जब बहुत वर्षों बाद धरा पर कहीं पेट्रोल न होगा,

    तब तक शायद मैं भी जीवित न रहूं,

    तब शायद मेरी और उसकी हैसियत फिर एक जैसी हो जाये,

    उम्मीद तो नहीं है मगर फिर भी,

    कितना अच्छा होता अगर ?

    मेरे भी खानदान में काश,

    कोई एक पेट्रोल पंप पा जाए?

    समाप्त

    दिलीप कुमार

    पूरी दुनिया में तेजी से फैल रहा है सनातन हिंदू धर्म

    पूरे विश्व में आज विभिन्न देशों के नागरिकों में शांति का अभाव दिखाई दे रहा है एवं परिवार के सदस्यों के बीच भी भाईचारे की कमी दिखाई दे रही है। शादी के तुरंत बाद तलाक लेना तो जैसे आम बात हो गई है, आज कई विकसित देशों में तलाक की दर 60 प्रतिशत से भी अधिक है। बुजुर्ग माता पिता की देखभाल करने वाला उनका अपना कोई साथ नहीं है। अमेरिका में तो लगभग 10 लाख बुजुर्ग नागरिक खुले में रहते हुए अपना जीवन यापन करने को मजबूर हैं। इन देशों में तो जैसे सामाजिक तानाबाना ही छिन्न भिन्न हो गया है।  इसी प्रकार के अन्य कई कारणों के चलते आज सनातन हिंदू धर्म के प्रति विदेशी लोग आकर्षित हो रहे हैं, क्योंकि सनातन हिंदू धर्म का अपना एक अलग ही महत्व है। सनातन हिंदू धर्म में कुटुंब के प्रति वफादारी बचपन से ही सिखाई जाती है। भारत में आज भी संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलन में हैं, जिससे बच्चे अपने बचपन में ही अपने माता पिता की सेवा करने के संस्कार सीखते हैं और उन्हें पूरे जीवन भर अपने साथ रखने का संकल्प लेते हैं।  

    विश्व में कुछ अन्य धर्मों में बच्चों को बचपन में ही कट्टरता सिखाई जाती है एवं केवल अपने धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ धर्म के रूप में पेश किया जाता है। इससे इन बच्चों में अन्य धर्मों के प्रति सद्भावना विकसित नहीं हो पाती है। कई बार तो अन्य धर्म को मानने वाले नागरिकों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें अपना धर्म मानने को मजबूर भी किया जाता है। इसके ठीक विपरीत सनातन हिंदू धर्म किसी अन्य मजहब को मानने वाले व्यक्ति पर कभी भी कोई दबाव नहीं डालता है। सनातन हिंदू संस्कृति अन्य धर्मों के नागरिकों को किसी प्रकार का धर्म मानने की खुली स्वतंत्रता प्रदान करती है। ऐसा कहा जाता है कि जब इस दुनिया में कोई भी धर्म नहीं था तब इस धरा पर निवास करने वाले लोग केवल सनातन हिंदू धर्म का ही पालन करते थे। सनातन हिंदू धर्म बहुत ही ज़्यादा संयमित धर्म है जो किसी अन्य धर्म की ना तो उपेक्षा करता है और न ही वह अपने धर्म के वर्चस्व को सबके सामने रखने का प्रयास करता है। इसी कारण से कट्टरता के इस माहौल में आज पूरे विश्व में सनातन हिंदू धर्म के प्रति लोगों की आस्था एवं रुचि बढ़ रही है।

    सनातन हिंदू धर्म आज विश्व में तीसरा सबसे बड़ा धर्म है और भारत में अधिकतर लोग इस धर्म को मानते हैं। एक अनुमान के अनुसार सनातन हिंदू धर्म इस पृथ्वी पर 10,000 वर्षों से हैं। लेकिन यदि वेदों और उपनिषदों में लिखी बातों को माने तो सनातन हिंदू धर्म की उत्पति लाखों वर्ष पहिले हुई थी उस समय ये सनातन धर्म के नाम से जाना जाता था। हिंदू धर्म को मानने वाले लोग भारत में रहते थे। इस धर्म को बहुत प्रभावशाली माना गया है। अन्य कुछ धर्मों के संस्थापक रहे हैं, जैसे ईसाई धर्म के संस्थापक के रूप में प्रभु यीशू को माना जाता है तथा इस्लाम धर्म के लिए मोहम्मद साहिब को संस्थापक माना जाता है और बौद्ध धर्म के लिए गौतम बुद्ध को संस्थापक जाना जाता है। परंतु, हिंदू धर्म के बारे में कहा जाता है कि कुछ संतों एवं महापुरूषों ने एक होकर जीवन को सही तरीके से व्यतीत करने का तरीका विकसित किया था। सनातन हिंदू संस्कृति को, धर्म नहीं बल्कि यह, जीवन जीने का एक तरीका भी माना जाता था।

    सनातन हिंदू धर्म का यह मानना है कि प्रभु परमात्मा ने इस धरा पर सबको खुलकर हंसने, उत्सव मनाने और मनोरंजन करने की योग्यता दी है। यही कारण है कि सनातन हिंदू धर्म में सबसे अधिक त्यौहार और संस्कार होते हैं। उत्सव, जीवन में सकारात्मक संदेश लेकर आते हैं और हमारे संस्कार मिलन सरिता को दर्शाते हैं। सनातन हिंदू धर्म की यही प्रक्रिया दुनिया पसंद करती है। तभी तो ब्रिज की होली और कुम्भ के मेले का अवलोकन करने के लिए पूरी दुनिया से लोग भारत में आते हैं। यही एक कारण है कि आज पूरी दुनिया के कोने कोने में लोग हिंदू धर्म में अपनी रुचि दिखा रहे हैं।

    हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन के अनुसार, आबादी के लिहाज से दुनिया के तीसरे सबसे बड़े देश अमेरिका में अब हिंदूओं की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और हिंदू वहां राजनैतिक रूप से भी सक्रिय हो रहे हैं। इसके अलावा,  कोरोना महामारी के बाद से पूरे अमेरिका एवं विश्व के अन्य देशों में योग और ध्यान की ओर लोगों का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। योग और ध्यान पूरे विश्व को सनातन हिंदू धर्म की ही देन है। सनातन हिंदू धर्म बिलकुल ही कट्टरपंथी धर्म नहीं है। अन्य धर्मों की तरह इसमें किसी भी प्रकार का सामाजिक दबाव नहीं हैं। इस धर्म में धार्मिक शिक्षा के लिए कोई भी जोर जबरदस्ती नहीं है जैसा कि कुछ अन्य धर्मों में होता है। हिंदू धर्म मानता है कि शिक्षा सभी तरह की होनी चाहिए केवल धार्मिक आधार पर शिक्षा देना उचित नहीं है। किसी भी बच्चे की शिक्षा में अगर संस्कार जुड़ जाए तो वह बच्चा बड़ा होकर एक जिम्मेदार नागरिक बनता है और वह एक अच्छा इंसान बनता है। सनातन हिंदू धर्म में परोपकार की भावना होती है। अन्य धर्मों की तरह यह केवल अपने वर्चस्व के बारे में नहीं सोचता है।

    इंडोनेशिया जो कि एक मुस्लिम बहुल देश हैं वहां पर सनातन हिंदू धर्म से जुड़े संस्कार आज भी पाए जाते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि यह देश हिंदू धर्म से कितना प्रभावित रहा है। मुस्लिम बहुल देश होने के बावजूद हिंदू धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव यहां आज भी दिखाई देता है। मुस्लिम लोग भी अपना नाम हिंदू देवी देवताओं के नाम पर रखना पसंद करते हैं। सनातन हिंदू धर्म कभी भी किसी नागरिक पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डालता है। सनातन हिंदू धर्म कभी भी किसी को लालच देकर धर्म परिवर्तन नहीं करवाता है। परंतु, आज प्रत्येक वर्ष पूरे विश्व में बहुत से लोग अन्य धर्मों को छोड़कर स्वप्रेरणा से हिंदू धर्म अपना रहे हैं। सनातन हिंदू धर्म में स्त्रियों को जितना सम्मान दिया जाता है उतना किसी भी अन्य धर्म में नहीं दिया जाता है। सनातन हिंदू धर्म में स्त्रियों की पूजा की जाती है। सनातन हिंदू धर्म में आस्था का मतलब है कि जीवन में उमंग, उत्साह, उल्लास और मानवता की ओर झुकाव। जहां भारत में सनातन हिंदू धर्म को मिटाने की नाकाम कोशिश की जाती है वहीं रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, घाना, सुरीनाम जैसे देशों में हिंदू धर्म तेजी से फैल रहा है। सनातन हिंदू धर्म पूरी दुनिया को शांति का संदेश देता है।

    कई देशों में तो आज सनातन हिंदू संस्कारों का अनुपालन करते हुए विशेष गांव स्थापित किए जा रहे हैं। आयरलैंड में 22 एकड़ का एक हिंदू आइलैंड बन गया है। इसे हरे कृष्णा आइलैंड का नाम दिया गया है। यहां निवासरत समस्त नागरिकों द्वारा सनातन हिंदू धर्म के प्राचीन रीति रिवाजों का पालन बहुत ही सहजता के साथ किया जाता है। सनातन हिंदू धर्म के वैदिक नियमों को सदा सदा के लिए जीवित रखने के लिए यहां  पर रहने वाले सनातनी हिंदू, मांस का परित्याग का शाकाहारी भोजन गृहण करते हैं। नशीले पदार्थों, शराब एवं सिगरेट आदि पदार्थों से भी दूर रहते हैं। सुबह एवं शाम मंदिरों में पूजा अर्चना करते हैं। उनका जीवन सादगी भरा रहता है तथा कृषि एवं गाय पालन करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। महिलाएं साड़ी पहनती है एवं पुरुष धोती कुर्ता धारण करते हैं। इसी प्रकार के गांव जहां हिंदू सनातन संस्कृति का अनुपालन किया जाता है अन्य कई देशों यथा घाना, फीजी एवं अन्य कई अफ्रीकी देशों, सुदूर अमेरिका, यूरोप के देशों, आदि में भी तेजी से फैलते जा रहे हैं।

    इसी प्रकार, कजाकिस्तान एक मुस्लिम देश है क्योंकि यहां की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी इस्लाम को मानने वाले लोगों की है। परंतु, हाल ही के समय में यहां भी एक बड़ा बदलाव देखने में आ रहा है और यहां नागरिक सनातन हिंदू धर्म के प्रति आकर्षित होते दिखाई दे रहे हैं। यहां सनातन हिंदू धर्म की लहर इतनी तेजी से उठी है कि हर तरफ हिंदू धर्म की आस्था एवं आध्यात्म का फैलाव दिखाई दे रहा है। यहां के युवा विशेष रूप से भगवत गीता पढ़ने की ओर आकर्षित हो रहे हैं और हिंदू धर्म को समझने का प्रयास कर रहे हैं। एक कजाकिस्तानी महिला मारीना टारगाकोवा की भगवत गीता को पढ़कर हिंदू धर्म के प्रति रुचि इतनी बढ़ी है कि अब उसने जैसे बीड़ा ही उठा लिया है कि वह कजाकिस्तान में सनातन हिंदू धर्म को फैलाने का प्रयास लगातार करती नजर आ रही है।       

    प्रहलाद सबनानी

    बंधुआ मजदूरी का जीवन जीने को मजबूर हैं ईंट भट्ठा मजदूर

    शैतान रेगर
    भीलवाड़ा, राजस्थान
    देश की आजादी को सात दशक बीत जाने के बाद भी ईंट भट्ठा मजदूर गुलामी (बंधुआ मजदूरी) का जीवन जीने को विवश हैं. भौगोलिक रूप से भले ही देश को आजादी मिल गई हो या सरकारें कितने ही योजनाएं बना ले, लेकिन सच यह है कि देश में प्रवासी मजदूरों को आज भी वास्तविक आजादी नहीं है. न ही उनको अपनी इच्छा से काम करने की आजादी है और न ही उन्हें किसी योजनाओं का पूर्ण रूप से लाभ मिल पाता है. देश में बड़ी संख्या में ईंट भट्टों और खेतों में ऐसे मज़दूर कार्यरत हैं जो रोज़गार की तलाश में एक राज्य से दूसरे राज्य प्रवास करते हैं. इनमें अधिकतर गरीब, अशिक्षित, आदिवासी और आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर लोग होते हैं. 
    देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी ऐसी ही कुछ स्थिति नज़र आती है. जहां 

    बड़ी संख्या में ईंट भट्ठे संचालित हैं जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान के अलग अलग जिलों के प्रवासी मजदूर काम करते हैं. इन मजदूरों की संख्या लाखों में है. इन ईंट भट्ठों पर काम करने वाले अधिकांश मजदूर प्रवासी ही रखे जाते हैं ताकि भट्ठा मालिकों द्वारा आसानी से उनका शोषण किया जा सके. ईंट भट्ठों में मजदूरों की भर्ती प्रक्रिया स्थानीय दलालों (ठेकेदार) के माध्यम से होती है. जो मजदूरों को अच्छी तनख्वाह का लालच देकर उन्हें अपने गांवों में ही पेशगी (एडवांस) देकर यहां लाते हैं. भट्टे पर पहुंचने के बाद इन मजदूरों को पूरे सीजन करीब 8 से 9 माह तक उसी भट्टे पर काम करना होता है. फिर चाहे उस भट्ठे पर उन्हें कितनी ही परेशानियां हों, वो सीजन के बीच में घर नहीं जा सकते हैं. यदि कोई मजदूर सीजन के बीच में ही किसी कारणवश घर जाना भी चाहता है तो उसे उसकी तय मजदूरी का आधी दर ही अदा किया जाता है.पिछले 10 सालों से भीलवाड़ा जिले के ईंट भट्टे पर काम कर रहे बिहार के बांका जिले के रहने वाले मजदूर सुमेश बताते हैं कि “इस सीजन मैं अपने परिवार के साथ 10 हजार रुपए पैसगी (पेशगी) लेकर भट्टे पर काम करने आया हूं. अब हमें पूरा सीजन यहीं काम करना पड़ेगा. सीजन के बीच में घर पर कुछ भी काम पड़ जाए फिर भी भट्ठा मालिक और ठेकेदार हमें छुट्टी नहीं देता है. वह हमारी मजदूरी का हिसाब भी नहीं करता है. बीच सीजन में हमें पैसा भी नहीं देता है. राशन के लिए कुछ पैसे देता है जो हमें उसके द्वारा निर्धारित राशन की दुकान से ही सामान लेकर आना होता है. 

    मालिक खर्चे के नाम रोकड़ पैसे इसलिए नहीं देता है क्योंकि वह कहता है कि यदि मैं तुम्हें पैसे दूंगा तो तुम उसका शराब पी जाओगे या घर भाग जाओगे. भला हम मजदूर पूरे सीजन की अपनी मजदूरी छोड़कर कैसे घर भाग जाएंगे? दरअसल वह हमारे पूरे पैसे देने की मंशा कभी रखता ही नहीं है ताकि हम उसके भट्ठे से कहीं और जा ही न सके. जबकि कई बार हमें दूसरे भट्ठे पर अच्छे पैसे मिल सकते हैं. लेकिन यदि हम चले गए तो इस भट्ठे का मालिक हमारा बकाया नहीं देगा.”
    इन ईंट भट्ठों पर मजदूरों को पूरे परिवार सहित काम करने लिए लाया जाता है. ज्यादातर मजदूरों को तो यह भी जानकारी नहीं होती है कि उन्हें कौन से भट्ठे पर ले जाया जा रहा है. मजदूरों को ठेकेदार द्वारा भट्ठे पर लेकर आने के बाद पता चलता है कि हम कहां पर आये हैं. यह अधिकांश प्रवासी मजदूर दलित व आदिवासी समुदाय के होते हैं और अधिकतर अशिक्षित ही होते हैं. 

    कई सारे मजदूरों को भट्ठा मालिक का नाम भी पता नहीं होता है. अधिकतर बिहार और यूपी से लाये गए मजदूरों को तो अपनी मजदूरी का भी पता नहीं होता है कि उन्हें यहां कितनी मजदूरी मिलेगी और कितनी देर काम करना होगा? अधिकतर ठेकेदार इन राज्यों में अपने नेटवर्क दलालों के माध्यम से आर्थिक रूप से कमज़ोर और अशिक्षित मज़दूरों को टारगेट करते हैं और फिर उन्हें अच्छी मज़दूरी का लालच देकर यहां पहुंचा देते हैं. जहां बुनियादी सुविधा भी नहीं होती है. घर के नाम पर केवल कच्चे ईंटों का बना एक छोटा सा कमरा होता है. जिसमें एक आम इंसान खड़ा भी नहीं हो सकता है. सबसे अधिक कठिनाई इन मज़दूरों के साथ आई परिवार की महिलाओं और किशोरियों को होती है. जिन्हें शौचालय और नहाने तक की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है. इन्हें प्रतिदिन सुबह होने से पहले खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है.

    उत्तर प्रदेश के महोबा की रहने वाली सुनीता कहती हैं कि “मैं पिछले चार साल से पति और तीन बच्चों के साथ यहां काम कर रही हूं. मेरी जैसी यहां कई महिलाएं पति के साथ इस भट्ठे पर काम कर रही हैं. लेकिन हम महिलाओं के लिए यहां सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है. शौचालय नहीं होने के कारण हम दिन में नाममात्र की खाती हैं ताकि शौच जाने की ज़रूरत न पड़े. सबसे अधिक कठिनाई माहवारी के समय आती है जब दर्द के कारण काम नहीं हो पाता है, लेकिन हमें उसी हालत में करना पड़ता है, नहीं तो हमारी मज़दूरी काट ली जाएगी. अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए हम अपने बच्चों को भी इस काम में लगा देते हैं लेकिन ठेकेदार बच्चों के काम के पैसे नहीं देता है. लेकिन जब बच्चे काम कर रहे होते हैं तो वह उन्हें मना भी नहीं करता है. सीज़न ख़त्म होने के बाद हम गांव तो जाते हैं लेकिन वहां रोज़गार का कोई साधन नहीं होने के कारण फिर यहीं वापस आ जाते हैं.”
    ईंट भट्ठों पर मजदूर दिन रात काम करते रहते हैं. यहां पर काम का कोई समय निर्धारित नहीं है. 

    सारा काम पीस (ईंट के टुकड़े) पर निर्धारित होता है. उसी आधार पर मजदूरी मिलती है. हालांकि ईंट भट्टों पर मजदूरों को नियमित रूप से मजदूरी नहीं मिलती है. शुरुआत में पेशगी दी जाती है और बीच बीच में खाने खर्चे के नाम पर 15 दिन में एक बार खर्चा दिया जाता है. भीलवाड़ा जिले के कई ईंट भट्ठों पर तो बिहार के मजदूरों को खाने खर्चे के नाम पर पैसे भी नहीं दिए जाते हैं. उन्हें पैसे के नाम पर सिर्फ एक पर्ची दी जाती है. इस पर्ची से उन्हें एक निश्चित राशन दुकान पर जाकर बिना मोल भाव किये सामान खरीदना होता है. यह दुकान भी भट्ठा मालिक व इनके ही किसी रिश्तेदार की ही होती है. भट्ठों पर मजदूरी का हिसाब व भुगतान सीजन के अंत में ही होता है. जहां इनके राशन के पैसे भी काट लिए जाते हैं. कई बार सीज़न के अंत में बहुत से मजदूरों को राशन और अन्य भुगतान का हवाला देकर उनके पैसे काट लिए जाते हैं और नाममात्र की मज़दूरी अदा की जाती है.

    इस संबंध में भट्टे पर काम करने वाले उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के मिथलेश रैदास बताते हैं कि “मैं यहां के ईंट भट्ठों पर पिछले कई सालों से परिवार सहित काम कर रहा हूं. यहां पर जितनी मेहनत लगती है हमें उसकी आधी मजदूरी भी नहीं मिलती है. यह ऐसा जाल है जिसमें एक बार कोई मज़दूर आ जाता है तो पूरे सीजन भर के लिए उलझकर रह जाता है. हमारी मजबूरी है इसलिए हम इतना दूर आकर यहां इतना मेहनत वाला काम करते हैं. हमें शुरुआत में पैसगी देकर बांध दिया जाता है और भट्ठा मालिक व ठेकेदार उस दबाव में पूरे सीजन काम कराता रहता है. अगर हम जैसे अनपढ़ों के लिए गांव में ही रहकर रोज़गार का कोई इंतज़ाम हो जाता तो हमें इतनी दूर परिवार के साथ प्रवास करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. लेकिन पैसे के लिए हम यहां बंधुआ मज़दूरी करने के लिए विवश हैं.”

    ईंट भट्ठा मजदूरों के काम के समय के आधार पर देखा जाए तो इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है. ईंट भट्ठे गांवों से दूर होने की वजह से उनके बच्चे शिक्षा व स्वास्थ्य से कोसों दूर हैं. वहीं दूसरे राज्य के निवासी होने के कारण सरकारी योजनाएं इनकी पहुंच से बाहर होती हैं. यहां के ज्यादातर मजदूर वोट देने के अधिकार से भी वंचित रहते हैं, क्योंकि यह मजदूर अक्सर बाहर के राज्यों में ही काम करते हैं. ऐसे में जब चुनाव होते हैं तब मतदान के समय भट्ठे मालिक इन मजदूरों को घर नहीं जाने देता है ताकि उसके काम का किसी प्रकार से नुकसान न हो. वोट बैंक नहीं होने के कारण स्थानीय राजनीतिक दल भी इनके हितों के लिए आवाज़ उठाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं.
    इन ईंट भट्टों पर मजदूरों को कर्ज देकर काम पर लाया जाता है. उन्हें कभी भी नियमित मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाता है. यह मजदूर कहीं भी आने जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होते हैं, यह सब भट्ठा मालिक की मर्जी पर निर्भर होता है. इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है एवं भट्ठों पर काम करने का कोई हाजरी रजिस्टर, काम व मजदूरी का हिसाब संबंधी कोई भी दस्तावेज नहीं होता है. जिससे यह साबित किया जा सके कि कौन मज़दूर किस भट्ठे पर कब से काम कर रहा है और उसकी मज़दूरी कितनी है? यूं कहें कि इतने सारे श्रम कानूनों के बावजूद एक भी श्रम कानून इन ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मज़दूरों पर लागू नहीं होता है.

    सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय विचारों के प्रखर पुञ्ज डॉक्टर द्वय

    ~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

    भारत भूमि ने अपनी कोख से समय-समय पर ऐसे – ऐसे रत्न उत्पन्न किए हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समाज जीवन में एक गहरी अमिट छाप छोड़ी है। रत्नगर्भा भारत माता के ऐसे ही दो महान सपूत – एक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और दूसरे – संविधान निर्माण की प्रारुप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर हैं। एक को भारतीय समाज आदर एवं श्रध्दा के साथ डॉक्टर जी के रूप में स्मरण करता है तो दूजे को बाबासाहब के रूप में। ये महापुरुष द्वय सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय विचारों के  ऐसे प्रखर पुञ्ज हैं जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। डॉक्टर जी जहां चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि  को तदनुसार 1 अप्रैल 1889 को जन्मे वहीं  बाबासाहेब अम्बेडकर का जन्म 14अप्रैल 1891 को हुआ। अपने कार्यों एवं विचारों से क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले इन दोनों महापुरुषों ने समाज जीवन के समक्ष अनेकानेक आदर्श सौंपे हैं। 

    यद्यपि डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार और डॉ.अम्बेडकर के कार्य क्षेत्र अलग – अलग रहे हैं। किन्तु दोनों के विचारों एवं कार्यों में  समानता दिखती है। जन्मजात राष्ट्रभक्त डॉक्टर जी ‘अखण्ड भारत’ के लिए कृतसंकल्पित थे । स्वतंत्रता आंदोलन के समय जब वे कांग्रेस में थे तो उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।कारावास की सज़ा भुगतनी पड़ी। आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध भाषण देते हुए वर्ष 1921 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और एक वर्ष के कारावास की सज़ा दी गई।  इसके पूर्व सन् 1917 में  गांधी जी द्वारा चलाए गए ‘सत्याग्रह आन्दोलन’ दौरान भी उन्हें  ‘राज्य समिति के सदस्य’ के रूप में क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने के चलते  जेल  जाना पड़ा था।  आगे चलकर जब उन्होंने  विजयादशमी की तिथि को सन् 1925 में संघ की स्थापना की। उस समय वे हिन्दू समाज को संगठित कर राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए तैयार कर रहे थे। उन्होंने घोषणा की थी “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।” 

    उसी समय  संघ की शाखा में  सभी स्वयंसेवक यह प्रतिज्ञा लेते थे कि —“मैं अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए तन–मन – धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प लेता हूं।” 

    इस  प्रकार डॉक्टर जी अखण्ड भारत की संकल्पना को लेकर तपस्वी स्वयंसेवकों को तैयार कर समाज को संगठित कर रहे थे। समाज के‌ विविध क्षेत्रों में कार्य कर रहे थे। इसी प्रकार अखंड भारत को लेकर डॉ.अम्बेडकर के भी विचार सुस्पष्ट थे। वे किसी भी स्थिति में भारत विभाजन के पक्षधर नहीं थे। पाकिस्तान एंड पार्टिशन ऑफ इंडिया पुस्तक में उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों को लेकर सविस्तार लिखा है। मुस्लिम मानसिकता और इस्लामिक ब्रदरहुड पर कटुसत्य उद्धाटित किया है।साथ ही विभाजन को लेकर उन्होंने जहां – जिन्ना को लताड़ा वहीं विभाजन पर कांग्रेस सहित गांधी और नेहरू को भी कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने  भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने को स्पष्ट रूप से कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टिकरण बताया था।   डॉ. अम्बेडकर ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर तीखा प्रहार किया था। उन्होंने पाकिस्तान बन जाने के बाद जनसंख्या की अदला बदली को लेकर स्पष्ट रूप से कहा था —

    “प्रत्येक हिन्दू के मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दुस्थान से साम्प्रदायिकता का मामला हटेगा या नहीं, यह एक जायज प्रश्न था और इस पर विचार किया जाना जरूरी था। यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के बन जाने से हिंदुस्थान साम्प्रदायिक प्रश्न से मुक्त नहीं हो पाया।पाकिस्तान की सीमाओं की पुनर्रचना कर भले ही इसे सजातीय राज्य बना दिया गया हो लेकिन भारत को तो एक संयुक्त राज्य ही बना रहना चाहिए। हिंदुस्थान में मुसलमान सभी जगह बिखरे हुए हैं, इसलिए वे ज्यादातर कस्बों में एकत्रित होते हैं। इसलिए इनकी सीमाओं की पुनर्रचना और सजातीयता के आधार पर निर्धारण सरल नहीं है। हिंदुस्थान को सजातीय बनाने का एक ही रास्ता है कि जनसंख्या की अदला-बदली सुनिश्चित हो, जब तक यह नहीं किया जाता तब तक यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी, बहुसंख्यक समस्या बनी रहेगी। हिंदुस्थान में अल्पसंख्यक पहले की तरह ही बचे रहेंगें और हिंदुस्थान की राजनीति में हमेशा बाधाएं पैदा करते रहेंगे।”  (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया संस्करण 1945, थाकेर एंड क. पृष्ठ-104)

    डॉक्टर हेडगेवार  और डॉ. अम्बेडकर दोनों आजीवन सामाजिक समरसता को मूर्तरूप देने में लगे रहे। डॉक्टर जी की उसी संकल्पना का सुफल है सामाजिक समरसता का उत्कृष्ट उदाहरण संघ में सर्वत्र दिखता है। संघ में कभी भी किसी भी स्वयंसेवक से जाति- धर्म नहीं पूछा जाता है। संघ का स्वयंसेवक केवल स्वयंसेवक होता है। सभी एक पंक्ति में एक साथ बैठकर भोजन करते हैं – साथ रहते हैं और संघ कार्य में जुटे रहते हैं। इसी सम्बन्ध में 1 मार्च 2024 को डॉक्टर जी की जीवनी ‘मैन ऑफ द मिलेनिया: डॉ. हेडगेवार’  के विमोचन के अवसर पर संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने अपने उद्बोधन के दौरान कहा — “संघ ने पहले दिन से जाति, अस्पृश्यता के बारे में कभी सोचा तक नहीं। इतना ही नहीं, डॉक्टर हेडगेवार जी ने सामाजिक समरसता के लिए डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर के साथ पुणे में चर्चा-संवाद किया। बाद में बाबासाहब संघ के कार्यक्रम में आए। साळुके जी ने उस बातचीत को अपनी डायरी में रिकॉर्ड किया है। उस पर पुस्तक भी छपी है।”

    प्रायः विभाजनकारी कलुषित मानसिकता के लोग संघ के विषय में अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं।किन्तु संघ वीतरागी भाव से राष्ट्रोत्थान में लगा रहता है। संघ के स्वयंसेवकों द्वारा प्रतिदिन गाए जाने वाले एकात्मता स्त्रोत में भी महापुरुषों के पुण्यस्मरण में “ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः” के रूप में  बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर का स्मरण किया जाता है। यह अपने आप में कलुषित मानसिकता को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है।  जो – ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। ; के इस भाव का द्योतक है। यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि – बाबासाहेब अम्बेडकर – कांग्रेस, महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित अन्य समकालीन नेताओं की खूब  आलोचना एवं कटु भर्त्सना भी करते थे।  किन्तु एक भी ऐसा प्रसंग नहीं आता है जब उन्होंने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की आलोचना की हो। 

    इसी सन्दर्भ में पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ चिंतक विचारक  रमेश पतंगे डॉ.अम्बेडकर और डॉ. हेडगेवार के सामाजिक समरसता के लिए  किए कार्यों के अन्तर्सम्बन्धों पर महत्वपूर्ण विचार रखते हैं‌ । उनके अनुसार — “डॉ. अम्बेडकर का लक्ष्य था हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, छुआछूत, जाति-पाति आदि बुराइयों को खत्म करना। इन बुराइयों को खत्म किए बिना देश बड़ा नहीं हो सकता और समाज शक्तिशाली भी नहीं हो सकता। उन्होंने धार्मिक सुधार एवं सामाजिक सुधार के जरिए समता प्राप्त करने के लिए आजीवन संघर्ष किया। नागरिकों की स्वतंत्रता एवं समता पर उन्होंने अधिक बल दिया। हमारा संविधान हमें यह अधिकार देता है। लेकिन केवल कानून बनाने से ऐसा होना संभव नहीं है। यह समाज में स्वाभाविक रूप से आनी चाहिए। इसके लिए सभी में बंधुत्व की भावना आनी चाहिए। यह सब डॉ. अम्बेडकर ने कहा, लेकिन कैसे आनी चाहिए इसका चिंतन, विचार, क्रिया उन्होंने नहीं बताई। मेरे अध्ययन व आंकलन के अनुसार – सामाजिक समरसता का सिद्धांत डॉ.अम्बेडकर ने दिया और डॉ. हेडगेवार ने उसे यथार्थ में कर दिखाया। इसमें दोनों की एक दूसरे से तुलना नहीं करनी चाहिए और न ही उनमें समानता की बात करनी चाहिए। दोनों का कार्यक्षेत्र अलग था।अपने–अपने कार्यों के आधार पर दोनों ही महापुरूष हैं। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने एक ऐसा तंत्र  शाखा के माध्यम से स्थापित किया है कि ऑपरेशन भी हो जाता है, जख्म भी भर जाता, जख्म के निशान तक दिखाई नहीं देते और मरीज को पता भी नहीं चलता है। उक्त सामाजिक बुराइयों को  दूर करने के लिए अनेक महापुरूषों ने बड़ा संघर्ष व प्रयत्न किया। बावजूद इसमें वे शत-प्रतिशत सफल नहीं हुए। लेकिन दूरद्रष्टा डॉ. हेडगेवार ने सहजता से परिवर्तन कर दिया और समाज व देश के लिए वे आदर्श बने। इसलिए संघ में कहीं भी जाति-पाति, छूआछूत और अस्पृश्यता नहीं है।”

    ~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

    बात भावनाओं की है, शब्दों की नहीं 

      केवल कृष्ण पनगोत्रा

    भारतीय संविधान में 26 जनवरी 1950 के बाद सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं। इनमें अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण 42वां संशोधन अधिनियम, 1976 है। इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। इसके तहत कुछ अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण संशोधन भी किये गए हैं। प्रमुखत: इस संशोधन के तहत भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रिएंबल) में तीन नए शब्द ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता’ जोड़े गए।

    हाल ही में 42वें संशोधन से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देश की मांग करने की याचिकाएं दायर की गई हैं। यह कहा जा रहा है कि 42वां संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है।

    फिलहाल इन याचिकाओं पर सुनवाई अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दी गई है मगर साथ ही एक देशव्यापी चर्चा भी पैदा हो गई है। इस चर्चा का प्रमुख बिन्दु और सवाल यह है कि संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन हुआ या नहीं ?

    चूंकि भारतीय संविधान एक विस्तृत दस्तावेज है। इसके मूल ढांचे और आत्मा को समझने के लिए आखिर किस भाग पर केंद्रित हुआ जाए ताकि सामान्य शिक्षित नागरिकों के लिए समझना आसान हो जाए कि भारतीय संविधान का मूल तत्व क्या है। यहां प्रश्न यह भी है कि कौन सी बातें देश निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

    भारतीय संविधान के आलोक में देखें तो इसका भाग 3 तथा 4 मिलकर ‘संविधान की आत्मा तथा चेतना’ कहलाते हैं। 

    भाग-3 में मौलिक अधिकार संविधान के सबसे महत्वपूर्ण खंडों में से एक भाग है, जिसमें अनुच्छेद 12 से 35 शामिल हैं। यह भाग भारतीय नागरिकों, भले ही वे किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय से हों, के मौलिक अधिकारों को रेखांकित करता है, जैसे समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार के साथ सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार भी।

    इसी प्रकार भाग-4 भारतीय नागरिकों को उनके कर्त्तव्यों के प्रति सचेत करता है।

    अनुच्छेद 36 से 51 राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों पर चर्चा की गई है, जो लोगों के कल्याण के लिए कानून बनाने में सरकार का मार्गदर्शन करते हैं।

    अनुच्छेद 51(क) 42 वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर जोड़े गये। इनके संख्या 10 रखी गई। वर्तमान में 11 है।

    11 वां मौलिक कर्तव्य- 86 वें संविधान संशोधन 2002 से जोड़ा गया। प्रत्येक माता – पिता/ संरक्षक/अभिभावक को अपने 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को शिक्षा दिलाने का कर्तव्य निर्धारित किया गया है।

    अगर भारतीय संविधान के भाग 3 और 4 का विस्तार से अध्ययन किया जाए तो हम देखते हैं कि समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के आयाम मूल रूप में प्रतिस्थापित हैं। संविधान के मूल ढांचे के निर्माण में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष विचारों का एक विशेष स्थान है। इस लिहाज से संविधान की उद्देशिका में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों का होना या ना होना कोई खास मायने नहीं रखता। वैसे भी संविधान की उद्देशिका को संविधान का सार तत्व कहा जा सकता है।

    42वें संशोधन को लेकर एक खास सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को उद्देशिका में शामिल करना राजनीति से प्रेरित था। चाहे जो भी हो, यह तो किसी भी दृष्टि से तय है कि इस संशोधन से संविधान के मूल ढांचे और भावनाओं पर जरा सा भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। ..तो फिर सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि उद्देशिका में शामिल दो शब्दों को हटाने का क्या औचित्य है? कुछ भी हो, इस संबंध की याचिकाओं का तार्किक और संवैधानिक उपसंहार तो माननीय उच्चतम न्यायालय ही निकालेगा। जब संविधान की भावनाओं एवं मूल ढांचे पर दो शब्दों के हेरफेर का कोई प्रभाव नहीं तो उद्देशिका को लेकर बहस को क्या समझा सकता है? अभिमत अलग हो सकते हैं मगर नजर उच्चतम न्यायालय पर ही रहेगी। •

    भारत का सकल घरेलू उत्पाद अगले 50 वर्षों में 52 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाने की सम्भावना

    गोल्डमेन सेच्स नामक अंतरराष्ट्रीय निवेश संस्थान ने अपने एक रिसर्च पेपर में बताया है कि आगे आने वाले 50 वर्षों में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 52 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा। इस प्रकार भारत इस संदर्भ में अमेरिका को भी पीछे छोड़ते हुए विश्व में प्रथम स्थान पर आ जाएगा। वर्तमान में भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक आदि विभिन्न वित्तीय संस्थानों ने भी आगे आने वाले समय में भारत की आर्थिक वृद्धि दर को 7.2 प्रतिशत रहने की प्रबल संभावनाएं जताईं हैं। जबकि, आज विश्व के कई देश, विशेष रूप से ब्रिटेन, जर्मनी आदि, आर्थिक संकुचन के दौर से गुजर रहे हैं। रूस यूक्रेन युद्ध के चलते कई विकसित देश तो ऊर्जा की कमी के संकट से जूझ रहे हैं। भारत के विदेशमंत्री, डॉक्टर एस जयशंकर भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्व के लगभग समस्त सशक्त देशों के साथ अच्छे सम्बंध बनाने में सफल रहे हैं। आज रूस को भी भारत की आवश्यकता है तो अमेरिका को भी। रूस, भारत को कच्चे तेल एवं सुरक्षा के लिए भारी मात्रा में शस्त्र उपलब्ध कराता है। वर्ष 2022 में भारत ने रूस से 4,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का सामान आयात किया था। वर्ष 2023 में यह बढ़कर 5,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर होने की प्रबल सम्भावना है। वहीं अमेरिका, भारत को अपना स्ट्रेटेजिक सहयोगी मानता है। आज विश्व की समस्त बड़ी शक्तियां भारत के साथ सौहार्द पूर्ण सम्बंध चाहती हैं। रूस, अमेरिका, यूरोपीयन देश एवं अरब देश भारत के साथ अपने व्यापार को विस्तार देना चाहते हैं। रूस भी भारत के साथ अच्छे सम्बंध चाहता है तो यूक्रेन भी। उधर इजराईल भी भारत के साथ अच्छे सम्बंध चाहता है तो इरान भी। भारत जी-20 समूह का सदस्य है तो भारत यू2आई2 एवं ब्रिक्स का भी सदस्य है। इस प्रकार कुल मिलाकर भारत का डंका आज पूरे विश्व में बज रहा है। आज भारत के पास विश्व की चौथी सबसे बड़ी फौज है। पश्चिमी बॉर्डर पर चीन से युद्ध की स्थिति में भारत आज इससे निपटने को पूर्णत: तैयार है। 

    भारत के पास आज युवा जनबल है। भारत की 66 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष की कम आयु की है। 40 प्रतिशत जनसंख्या 13 से 35 वर्ष के बीच में है। भारत के पास 35 वर्ष से कम आयु की जनसंख्या अमेरिका की कुल जनसंख्या से भी अधिक है। इसके विपरीत चीन, जापान, इटली, फ्रान्स आदि कई देशों की जनसंख्या अब धीमे धीमे कम हो रही है। इन देशों में आर्थिक गतिविधियों को बनाए रखने के लिए आज युवाओं की सख्त आवश्यकता है जो पूरे विश्व में केवल भारत ही उपलब्ध करा सकता है। वर्ष 2064 तक भारत की जनसंख्या बढ़ती रहेगी, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इस प्रकार वैश्विक स्तर पर भारत विश्व में विकास के इंजन के रूप में अपनी भूमिका लम्बे समय तक निभाता रहेगा। 

    उक्त संदर्भ में दूसरा सबसे बड़ा कारण बताया गया है, भारत में हाल ही के समय में किया गया डिजिटलीकरण। इससे देश के ग्रामीण इलाकों में भी नागरिकों की दक्षता एवं उत्पादकता बढ़ गई है। भारत में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग की वित्तीय एवं बैंकिंग संस्थानों द्वारा भरपूर आर्थिक सहायता की जा रही है इससे यह उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं एवं देश में रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित कर रहे हैं। पूर्व में केवल बड़े उद्योगों को ही बैकों द्वारा वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती रही है परंतु भारत में अब यह ट्रेंड बदला है। कोविड महामारी के बाद से तो इस सम्बंध में बड़ा बदलाव देखने में आया है। डिजिटलीकरण के कारण छोटे छोटे व्यवसाईयों की क्रेडिट हिस्ट्री निर्मित हो रही है जिसके कारण बैकों को इन छोटे छोटे व्यापारियों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने में आसानी हो रही है। ‘आधार’ ने तो देश के समस्त नागरिकों की एक अलग पहचान ही बना दी है। यूपीआई प्लेटफोर्म ने भी इस संदर्भ में ग्रामीण इलाकों में रोकड़ के उपयोग को कम कर डिजिटल प्लेटफोर्म पर वित्तीय व्यवहारों को हस्तांतरित किया है। छोटे छोटे व्यवसाईयों, किसानों, सामान्य नागरिकों को भी वित्तीय प्लेटफोर्म पर लाने में यह डिजिटलीकरण बहुत सफल रहा है। इससे वित्तीय समावेशन का कार्य भी आसान बन पड़ा है। भारत में डिजिटल व्यवहारों की संख्या आज संयुक्त रूप से अमेरिका, चीन एवं यूरोप से भी अधिक है। जबकि अमेरिका, चीन एवं यूरोप के देश भारत से अधिक विकसित देश हैं। इससे यह झलकता है कि भारत ने डिजिटलीकरण के मामले में पूरे विश्व को पीछे छोड़ दिया है। अब तो भारत का यूपीआई सिस्टम अमेरिका के स्विफ्ट पेमेंट सिस्टम को भी पीछे छोड़कर वैश्विक स्तर पर डिजिटलीकरण के मामले में अपनी धाक जमाने की ओर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत का यूपीआई सिस्टम सिंगापुर, फ्रान्स, श्रीलंका एवं यूएई में लागू किया जा चुका है। भारत के प्रधानमंत्री ने फ्रान्स में भारतीय यूपीआई सिस्टम का उद्घाटन किया था, ताकि फ्रान्स में जाने वाले पर्यटक यूपीआई सिस्टम के माध्यम से फ्रान्स में वित्तीय व्यवहार कर सकें। न्यूजीलैंड में भी यूपीआई को लागू किए जाने पर विचार किया जा रहा है। 

    उक्त संदर्भ में तीसरा सबसे बड़ा कारण है चीन के, विस्तरवादी नीतियों के चलते, विश्व के अन्य देशों के साथ लगातार खराब होते सम्बंध। आज विश्व के कई देश चीन के साथ आर्थिक व्यवहार करने से कतराने लगे हैं। यह स्थिति भारत के आर्थिक विकास को गति दे सकती है क्योंकि चीन+1 की नीति का अनुपालन विश्व के कई विकसित देश आज करने लगे हैं एवं ये देश भारत में विनिर्माण के क्षेत्र में अपनी इकाईयों को स्थापित करते जा रहे हैं। ताईवान आदि देशों पर चीन की नीति की पूरे विश्व में भर्त्सना हो रही है। चीन के अपने बॉर्डर पर लगने वाले लगभग समस्त देशों के साथ चीन के सम्बंध अच्छे नहीं हैं। इन देशों का चीन पर अब भरोसा समाप्त सा होता जा रहा है। ऐपल एवं टेस्ला जैसी कम्पनियां अब भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयां स्थापित कर रही हैं। ऐपल ने तो अपने आईफोन-15 का उत्पादन भारत में चालू भी कर दिया है। इससे भारत में न केवल रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं बल्कि विदेशी निवेश भी बढ़ रहा है। आज भारत में विदेशी मुद्रा भंडार 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के आसपास रिकार्ड स्तर पर पहुंच गए हैं। साथ ही, आज भारत का पूंजी बाजार (स्टॉक मार्केट) विश्व में चौथे स्थान पर आ गया है। 

    भारत द्वारा अपने बुनियादी ढांचे को विकसित करने में भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है। वित्तीय वर्ष 2024-25 में 11.11 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का बजट बुनियादी ढांचे के लिए निर्धारित किया गया है, जबकि वित्तीय वर्ष 2023-24 में 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि इस मद पर खर्च की गई थी। अयोध्या, वाराणसी, उज्जैन, हरिद्वार, जम्मू कश्मीर जैसे अन्य कई धार्मिक स्थलों को विकसित किया जा रहा है ताकि धार्मिक पर्यटन को भारत में बढ़ावा दिया जा सके। इन शहरों के बुनियादी ढांचे का अतुलनीय विकास किया जा रहा है। जिससे रोज़गार के लाखों नए अवसर निर्मित हो रहे हैं। एयरपोर्ट की संख्या पिछले 10 वर्षों में दुगने से भी अधिक होकर 150 तक पहुंच गई है और इसे वर्ष 2025 तक 200 की संख्या तक ले जाया जा रहा है। रेल्वे का विद्युतीकरण किया गया है। रेलगाड़ियों की स्पीड बढ़ाई गई है, जिससे देश में कार्यक्षमता के  स्तर में सुधार हो रहा है। भारत के बड़े शहरों में मेट्रो रेल का जाल बिछाया जा रहा है। आज भारत का रोड नेट्वर्क चीन से भी अधिक होकर विश्व में केवल अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर आ गया है। भारत सरकार की वर्ष 2024 से वर्ष 2030 के बीच देश के बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर 2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि खर्च करने की योजना है। इस प्रकार भारत को वर्ष 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में शामिल करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। वर्ष 2027 तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, ऐसी सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है।    

    प्रहलाद सबनानी 

     भीम मीम के अंतर्तत्व को समझें समाज बंधु 

    प्रवीण गुगनानी 

    डॉक्टर भीमराव रामजी अम्बेडकर यानि बाबा साहेब केवल किसी एक समुदाय या जाति विशेष में व्याप्त रूढ़ियों, कुरीतियों और बुराइयों हेतु ही चिंतित नहीं थे। बाबा साहेब। समूचे भारत के सभी वर्गों में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत रहते थे। इस नाते ही वे मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुरीतियों के प्रति भी अत्यधिक चिंतित रहते थे। इस्लामिक महिला समुदाय को लेकर भी बाबा साहेब का एक समुचित दृष्टिकोण व रोडमैप था। बाबासाहेब के इस रोडमैप में मुस्लिम महिलाओं के हाव, भाव, स्वभाव, मानसिकता, स्वास्थ्य, आचरण, शिक्षा, सार्वजनिक जीवन में भूमिका, राजनीति में भूमिका, परिवार में उसकी सत्ता जैसे सभी विषय बड़े स्पष्ट थे। ये सभी तत्त्व उनके लेखन से झलकते हैं। दुखद विषय यह रहा कि, भारतीय मुस्लिम समुदाय ने कभी भी बाबासाहेब के विचारों को, इस्लाम की कुरीतियों के संदर्भ में गंभीरता से नहीं लिया। हाँ, भारतीय मुस्लिम नेताओं ने कुछ विभाजनकारी संगठनों के फेर में आकर “भीम मीम” जैसे सुंदर शब्दों को विद्रूप शब्दों में बदला व विभाजनकारी के साथ साथ देशद्रोही राजनीति भी अवश्य करने लगे! नारों नारों में भारतीय मुस्लिम समुदाय के स्वार्थी व वोट बैंकर प्रकार के नेताओं ने बाबासाहेब के नाम का दुरुपयोग मुस्लिम समुदाय को शेष भारतीय समुदाय से काटने, दूर करने, वैमनस्यता बढ़ाने, परस्पर मतभेदों हेतु किया। भीम मीम की राजनीति ने रचनात्मक भूमिका त्यागकर विध्वंसात्मक भूमिक अपनाई और मैग्निफ़ाइंग ग्लास से खोज-खोजकर समाज में असंतुष्टों व्यक्तियों व गुटों का निर्माण किया और विघ्नसंतोषी वातावरण निर्मित किया। मुस्लिम नेता व वोट बैंकर प्रकार के लोग जब-तब अपने हाथों में बबासाहेब के नामवाला मैग्निफ़ाइंग ग्लास उठाते हैं व “भीम मीम” जैसे पवित्र नाम पर समाजभंजन, विभाजन, मतभेद फैलाने का कार्य प्रारंभ कर देते हैं। वस्तुतः डॉक्टर भीमराव जी के नाम का सर्वाधिक भद्दे अर्थों में दुरुपयोग वोट बैंकर्स ने ही “भीम मीम” का नारा देकर किया है। बाबासाहेब की प्रतिष्ठा के लिए सर्वाधिक बुरे शब्द वर्तमान में “भीम मीम” ही है। हमारे समाज को चाहिये कि बाबसाहेब के नाम पर चलाये जा रहे इस प्रकार के विभाजनकारी को एजेंडे को तत्काल प्रभाव से अपने वैचारिक प्रवाह में से बाहर निकाल फेंके। “भीम-मीम” के नारे का प्रयोग रचनात्मक अभियानों हेतु अवश्य की किया जाना चाहिये। बबासाहेब ने कभी इस प्रकार की विभाजनकारी राजनीति का उपयोग नहीं किया था। बाबासाहेब ने जवाहरलाल नेहरू से अपमान सहा, प्रताड़ना झेली, राजनैतिक उपहास सहन किया किंतु उन्होंने कभी समझौता वादी राजनीति नहीं की थी। बाबासाहेब कभी देशविरोधी लोगों के साथ खड़े नहीं दिखे और न ही उन्होंने किसी भी रूप में स्वयं का दुरुपयोग देशविरोध में होने दिया। “बाबासाहेब व मुस्लिम समुदाय” पर बहुत कुछ लिखा जाना अभी बाक़ी है अभी यहां केवल मुस्लिम स्त्री विमर्श विषयक लेखन के संदर्भ में बाबासाहेब के विचार यहां समाहित किए जा रहे हैं। अब समय आ गया है, – हम “भीम-मीम” के नारे के दुराशयपूर्ण अंतर्तत्व को समझें व “भीम बाबा” की इच्छा के अनुरूप भारतीय मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाएं। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों में वृद्धि, सामाजिक व पारिवारिक स्थिति में उनकी उच्चता के प्रयास, दुराचार पूर्ण मज़हबी रिवाजों पर प्रतिबंध जैसे उपाय, कुछ और नहीं बल्कि बाबासाहेब की मुस्लिम सम्बंधित कल्पना का ही एक भाग है। बड़ा आश्चर्य है कि, भारतीय मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के विषय में बाबासाहेब के रोडमैप के ऊपर कोई बात ही नहीं करना चाहता है। इस्लामिक महिलाओं की तीन तलाक़, हलाला, हिजाब, बुर्का, अशिक्षा, मुताह आदि कुरीतियों के प्रति बाबा साहेब ने अपने विचार “भारत अथवा पाकिस्तान का विभाजन” में स्पष्ट लिखे हैं। 

                  कर्नाटक हिजाब के न्यायलीन प्रकरण में निर्णय देते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय की पीठ ने एक सौ उनतीस पृष्ठीय विस्तृत निर्णय दिया था। इस निर्णय में बहुत सी पुस्तकों, विचारकों, दृष्टांतों व कथानकों को आधार बनाया गया था। हिजाब पर गठित इस न्यायिक पीठ ने लिखा है कि इस संदर्भ  में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के विचार भी इसी तरह के हैं। बाबा साहब ने वर्ष 1945 अपनी प्रसिद्ध पुस्तक  “पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया” के दसवें अध्याय में पहले भाग को लिखते समय सोशल स्टैगनेशन शीर्षक के अन्तर्गत लिखा है – “एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा ताऊ और शौहर को देख सकती है या फिर अपने वैसे रिश्तेदारों को जिन पर विश्वास किया जा सकता है। वो मस्जिद में नमाज अदा करने भी नहीं जा सकती। बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती। तभी तो भारत के गली कूचों सड़कों पर आती जाती बुर्कानशीं मुस्लिम औरतों का दिखना आम बात है। मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उनसे भी ज्यादा  सामाजिक बुराइयां हैं। अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से ही एक है। उनका मानना है कि उससे उनका शरीर पूरी तरह ढंका होता है। लिहाजा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाय वो पारिवारिक झंझटों और रिश्तों की  उलझनें सुलझाने में ही उलझी रहती हैं क्योंकि उनका बाहरी दुनिया से संपर्क कटा रहता है। वो बाहरी सामाजिक कार्यकलाप में हिस्सा नहीं लेती लिहाजा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है। वो हीन भावना से ग्रस्त कुंठित और लाचार किस्म की हो जाती हैं। कोई भी भारत में मुस्लिम औरतों में पर्दा प्रथा से उपजी समस्या के गंभीर असर और परिणामों के बारे में जान सकता है।

                कर्नाटक उच्च न्यायालय की इस पीठ ने अपने निर्णय में लिखा है – हमारे संविधान निर्माताओं में प्रमुख डॉक्टर अंबेडकर ने तो पचास वर्ष पूर्व ही पर्दा प्रथा की दोष व हानियां बताई थी। बाबासाहेब के ये विचार हिजाब, घूंघट और नकाब पर भी बराबर तौर से लागू होते हैं। ये परदा प्रथा किसी भी समाज और धर्म की आड़ में हो हमारे संविधान के आधारभूत समता और सबको समान अवसर मिलने के सिद्धांत के सर्वथा खिलाफ है। स्कूलों के ड्रेसकोड से अलग हिजाब, भगवा पटके, हेडगियर या अंगवस्त्र सहित धार्मिक प्रतीक चिह्न पहनना कतई उचित नहीं है. ये अनुशासन के भी खिलाफ है।

                         मुस्लिम समाज के कथित नेता बाबासाहेब का नाम सृजनात्मक संदर्भों में लेते ही नहीं हैं। “भीम मीम” का नारा नींद में भी उछालने वाले कुछ समाजतोड़क, देशतोड़क, विघ्नसंतोषी, कथित बुद्धिजीवी और अर्बन नक्सलाइट प्रकार के लोग भी इस संदर्भ में चुप्पी ही साधे रहते हैं। ये कथित लोग बाबासाहेब की, भीम मीम की बातें रात दिन रटेंगे किंतु केवल समाज विभाजन के कुटिल दुराशय के साथ। जब समाज निर्माण, समाज सुधार, रीति-नीति संशोधन, परंपरा परिष्करण, की बात आती है तो इस कथिक समाज तोड़क, विभाजनकारी वर्ग को बाबासाहेब के विचार स्मरण में ही नहीं आते हैं। वस्तुतः इस पेटमरोड़ू वर्ग का लक्ष्य भारतीय मुस्लिम समाज के विकास का नहीं बल्कि मात्र “यूज एंड थ्रो” तक ही सीमित होता है। आज की दृष्टि से देखें तो “भीम मीम” के नारे को तीन तलाक़ की बुराई के उन्मूलन के माध्यम से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीवंत और जागृत कर दिया है। नरेंद्र मोदी मुस्लिम स्त्रियों के संदर्भ में बाबासाहेब के लेखन व चिन्तन को अपने कार्यों व कृतित्व से साकार कर रहे हैं। 

    मर्यादा लांघती राजनीतिक़ बयानबाजी 

    सुरेश हिन्दुस्तानी

    देश में लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच राजनीतिक दलों में बयानों की आंधी सी चल रही हैं। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अपने आपको आम जनता का हितैषी सिद्ध करने का प्रचार कर रहे हैं। इन बयानों में कहीं कहीं राजनीति की मर्यादा का भी उल्लंघन भी होता दिख रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान सभी दल अपने अपने हिसाब से ढोल पीटकर जनता को अपने पाले में लाने की कवायद कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा जो बयान दिए जा रहे हैं, वह देखने में तो ऐसा ही लगता है कि यह सब बातें अप्रमाणिक सी लगती हैं। अभी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर जो बयान दिया है, वह उनकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन यह भी सही है कि इस बार के चुनाव में विपक्ष, सत्ता पक्ष पर किसी प्रकार का ठोस आरोप नहीं लगा पा रहा है। जहाँ तक चुनावी चंदे के भ्रष्टाचार की बात है तो इस खेल में सभी दल शामिल हैं। कहने का तात्पर्य है राजनीति में जो सुना जाता है वह होता नहीं है। परदे पर कुछ और दिखाने का प्रयास करते हैं, वास्तविकता कुछ और होती है। कौन नहीं जानता कि विपक्ष के कई नेता भ्रष्टाचार के आरोप में जमानत पर हैं। ऐसे में बयान देने से पहले नेताओं को अपने गिरेबान में झांक कर भी देख लेना चाहिए।

    वर्तमान में एक और बात महत्वपूर्ण यह भी है कि राजनीतिक दल धरातल पर बाहुबल और धनबल के सहारे चुनाव जीतने का प्रयत्न करते हैं। जबकि यह सब इतनी सावधानी से किया जाता है कि दिखाई नहीं देता, लेकिन आम जनता को यह मालूम है कि वास्तविकता क्या है। सारे चुनावों की छिपी हुई हकीकत यही है कि चुनाव में पैसा पानी की तरह प्रवाहित किया जाता है? जो लोग पैसे की भाषा नहीं समझते, उन्हें समझाने के दूसरे तरीके अपनाए जाते हैं, यानी बाहुबल का सहारा लिया जाता है। हालांकि इस सत्य को राजनेता इतनी सफाई से करते हैं कि कोई भी संस्था इसे सिद्ध नहीं कर सकती?

    वर्तमान में एक नई प्रकार की राजनीति का उदय हुआ है, उसके अंतर्गत अपने दल की कार्यप्रणाली का या कहा जाए कागुजारियों का बखान कम, दूसरे दलों की छीछालेदर करना ज्यादा ही देखने में आ रहा है। इस प्रकार का खेल कांग्रेस सहित विपक्षी दल की ओर से कुछ ज्यादा ही चल रहा है। कारण साफ है कि कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल भ्रष्टाचार के बारे में ज्यादा बोल नहीं सकती। क्योंकि कांग्रेस की सरकार में मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं ने जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के कारनामे किए, उससे देश को करोड़ों का नुकसान हुआ। आज देश पर जो आर्थिक बोझ आया है, उसके पीछे के कारणों में यह भ्रष्टाचार एक है।

    आज की राजनीति को देखकर सहज़ ही यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक बयान मर्यादा को लांघ रहे हैं। विपक्ष की ओर से आधारहीन तर्क किए जा रहे हैं। कोई लोकतंत्र को बचाने की राजनीतिक बयानबाजी कर रहा है तो कोई संविधान बचाने का प्रहसन कर रहा है। ख़ास बात यह है कि यह सब वे लोग कर रहे हैं जो भ्रष्टाचार समाप्त करने के कहकर भ्रष्टाचार करते रहे हैं। लालू प्रसाद यादव पर भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध हो चुका है, लेकिन उनकी बेटी प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है।

    वर्तमान में भारत की राजनीति में प्रतिद्वंद छिड़ा हुआ है। राजनीति में जिस प्रकार का वाद प्रतिवाद चल रहा है वह या तो मूर्ख बनने की प्रक्रिया का हिस्सा है या फिर मूर्ख बनाने की। अब आज के हालात में कौन मूर्ख बनता है और कौन बनाता है, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। जैसे ही समय की सीमा पूरी हो जाएगी, इसके पीछे का अर्थ सामने आता चला जाएगा। आज हमारे देश की राजनीति में नेताओं के कई रूप देखने को मिल जाते हैं, यानि जैसी स्थिति होती है नेता लोग अपने को वैसा ही प्रचारित करने लग जाते हैं। इसको और व्याख्या करके कहा जाये तो तर्क संगत ही होगा कि हमारे नेता बहुरूपिया बन जाते हैं और भारत देश की भोली भाली जनता उनके इस नकली रूप को देखकर भ्रमित हो जाती है। देश भर में सारे नेता इस होड़ में आगे दिखने का प्रयास कर रहे हैं कि हम ही जनता के असली हितैषी हैं। नेताओं का यह रूप हमारे देश को किस दिशा में ले जाएगा या ले जा रहा है, पता नहीं। पर यह सत्य है कि यह खेल बहुत ही खतरनाक है। देश के भविष्य के साथ एक प्रकार का अनहोना अपराध है?

    भारत की राजनीति में आज ऐसे परिवारवादी नेता उदित हो चुके हैं, जिन्हें ठीक से भारत की राजनीति करना नहीं आता, वे केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए ही जनता के वोट प्राप्त करने का उपक्रम ही करते हैं। भारत की जनता के समक्ष ऐसे हालात बन गए हैं कि वह सही और गलत की पहचान भी नहीं कर पा रहे हैं।

    हमारे राजनेता कौन कौन से खेल खेलते हैं, यह आज सबको दिखाई देने लगा है। आज देश में कई नेता ऐसे हैं जिनका व्यवसाय कुछ नहीं होने पर भी धनवान बन गए हैं, वास्तव में आज की राजनीति सेवा का माध्यम न होकर एक व्यवसाय बन गई है। राजनीति का जिस प्रकार से व्यवसायीकरण हुआ है, उसी के परिणाम स्वरूप हमारा देश रसातल की ओर जा रहा है और उसका खामियाजा देश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। राजनीति में नेताओं द्वारा जिस प्रकार की राजनीति की जाती है, वह केवल भारत के एक वर्ग विशेष को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। जो नेता इनके संप्रदाय के बारे में अच्छी बात बोलता है, उस नेता को ये लोग अपना हमदर्द मानने की भूल कर बैठते हैं। बस यही कारण है कि नेता लोग इस समुदाय को वोट बैंक मानकर चाल चलता है, लेकिन आज का यह समुदाय भी असलियत जान चुका है, भावनाएं भड़काने का यह खेल अब समाप्त होना चाहिए।

    मोदी 3 की आर्थिक चुनौतियाँ 

      – शिवेश प्रताप

    पिछले कुछ समय से तमाम अंतरराष्ट्रीय आर्थिक पंडितों को धता बताते हुए भारत, वैश्विक अपेक्षाओं से भी उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहा है। इसी के फलस्वरुप पूरी दुनिया अब भारत को निर्विवाद रूप से सबसे तेजी से प्रगति करने वाली अर्थव्यवस्था मान चुकी है। इसी क्रम में भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के बाद तेजी से चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। परंतु इसी के साथ अपने प्रतिस्पर्धी एवं पड़ोसी देश चीन के साथ अपनी तुलना करने पर हमें कुछ कठोर यथार्थ का भी सामना करना पड़ता है। आज नहीं तो कल वैश्विक मंच पर चीन को पछाड़ने के लिए हमें ऐसे कठोर यथार्थ को स्वीकार करते हुए उन सभी मुद्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जहां हम चीन से पीछे रह गए हैं।

    एक और जहां चीन का प्रति कैपिटा इनकम 12000 अमेरिकी डॉलर से अधिक है वहीं दूसरी ओर भारत का प्रति कैपिटा इनकम मात्र 2200 अमेरिकी डॉलर है। एक तरफ चीन ने अपने देश से गरीबी का उन्मूलन कर दिया है तो वहीं दूसरी ओर भारत में गरीबी एक यक्ष प्रश्न है। देश की आजादी के समय भारत की स्थिति चीन से काफी बेहतर थी, परंतु भारत के अर्थव्यवस्था के विकास में हुई कुछ भारी गलतियों के कारण हम चीन से विकास की रफ्तार में बहुत पीछे छूट गए थे जिसे पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में सरकार के अथक प्रयासों के बलपर बदतर होने से रोकते हुए सुधारों की प्रक्रिया प्रारम्भ हो पाई है और दुनिया उसके प्रारंभिक रुझान कुछ समय से देख रही है। परन्तु मोदी-3 के लिए भी आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियाँ कम नहीं हैं। बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में मोदी -3 सरकार को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का लक्ष्य साधने के क्रम में देश की कुछ कठिन चुनौतियों के स्थायी और ठोस समाधान की कर आगे बढ़ना होगा। आज इन्हीं चुनौतियों और समाधानों की चर्चा इस लेख में की जा रही है।

    करंट अकाउंट डेफिसिट यानी चालू खाते का घाटा:

    अंतरराष्ट्रीय बाजार में हर देश अपने आयात एवं निर्यात का एक खाता रखता है। यह वैसा ही है जैसे हमारा बचत खाता सभी निकासी एवं जमा पैसों का अलग अलग हिसाब रखता है। सभी आयात एवं निर्यात संबंधी गणना को बैलेंस आफ पेमेंट के नाम से जाना जाता है। इसमें दो तरह के खाता होते हैं पहले कैपिटल अकाउंट और दूसरा करंट अकाउंट के नाम से जाना जाता है। कैपिटल अकाउंट में वह सभी ट्रांजैक्शन दर्ज होते हैं जिससे किसी दीर्घकालिक एसेट या लायबिलिटी से संबंध रखते हैं। उदाहरण स्वरूप कोई कर्ज लेना एक लायबिलिटी है तो कोई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एसेट का निर्माण करता है। इसके इतर करंट अकाउंट वह खाता है जहां दर्ज किए गए ट्रांजैक्शन किसी एसेट अथवा लायबिलिटी से संबंध नहीं रखते। यह करंट अकाउंट पुनः दो भागों में विभाजित हो जाता है। पहला ट्रेड अकाउंट जिसमें सभी वस्तुएं जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, पेट्रोलियम, कृषि संबंधित उत्पाद आदि तथा दूसरे इनविजिबल अकाउंट में सेवाएं, लाभांश, दान, उपहार, ब्याज आदि को दर्ज किया जाता है। यदि करंट अकाउंट के इन्हीं  ट्रेड एवं इनविजिबल खातों का कुल योग ऋणात्मक होता है तो इसे करंट अकाउंट डेफिसिट बोला जाता है।

    यही करंट अकाउंट डेफिसिट भारत की लगभग एक स्थाई समस्या बन चुकी है। आसान शब्दों में भारत लंबे समय से निर्यात कम करता है और आयात अधिक करता है। हम विश्व मंच पर एक आयात प्रधान देश बन कर रह गए हैं। यद्यपि केंद्र की मोदी सरकार इस बात के लिए प्रशंसा की पात्र है कि इस क्षेत्र को गंभीरता से लेते हुए अपने दूरगामी लक्ष्य पर जिस प्रकार से कार्य कर रही है उसी का परिणाम है कि हमारा करंट अकाउंट डिफिसिट कम होने की और अग्रसर है। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के हिसाब से भारत का चालू खाता घाटा अप्रैल-सितंबर 2022 के 48.8 बिलियन डॉलर के मुकाबले आधे से अधिक घटकर वित्त वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में 17.5 बिलियन डॉलर का हो गया। परंतु इस घाटे से उबर कर सरप्लस अकॉउंट बनने में अभी समय लगेगा।

    वित्त वर्ष 2021-22 के आंकड़ों पर ध्यान दें तो भारत का ट्रेड अकाउंट 189.45 बिलियन के घाटे के साथ बंद हुआ जबकि इनविजिबल अकाउंट में 150.7 बिलियन डॉलर का सरप्लस मौजूद था। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि भारत सेवाओं के क्षेत्र में तो मजबूत स्थिति में है परंतु वस्तुओं के निर्यात में स्थिति चिंताजनक है। अब प्रश्न यह जाता है कि आखिर चालू खाता घाटा देश के विकास के लिए इतना खतरनाक क्यों है?

    अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश को व्यापार करने के लिए विदेशी या अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता की मुद्रा की आवश्यकता होती है। यदि चालू खाता सदैव घाटे में रहेगा तो अपना व्यापार बनाए रखने के लिए उसे देश को हर साल अपने फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व का उपयोग करना पड़ेगा और इस तरह से उसे देश का यह रिजर्व बेहद कमजोर हो जाएगा। और अंततः ऐसे देश दिवालिया घोषित हो जाते हैं। भारत के साथ अच्छी बात यह है कि साल दर साल हमारे चालू खाते का घाटा देश के कैपिटल अकाउंट के सरप्लस से बैलेंस हो जाता है और इस तरह से भारत का फॉरेन एक्सचेंज रिजर्व लगातार मजबूत होता रहता है। परंतु कैपिटल अकाउंट को मजबूती विदेशी निवेश तथा कर्ज से मिलती है और इसलिए बहुत हद तक इस पर वैश्विक एवं घरेलू आर्थिक स्थितियों का नियंत्रण होता है। मंदी की चपेट में आते ही किसी देश का कैपिटल अकाउंट सरप्लस खत्म हो सकता है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए अत्यंत आवश्यक खनिज तेल, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण तथा प्राकृतिक गैस के आयात पर संकट उत्पन्न हो सकता है और इन पर संकट का अर्थ है देश में गंभीर स्थितियां पैदा होना। साथ ही कैपिटल अकाउंट का मूल्यवर्धन होने का अर्थ लाभ, ब्याज एवं डिविडेंड के रूप में पैसा बाहर जाना भी होता है। इसलिए कैपिटल अकाउंट के बढ़ने से विदेशी मुद्रा कोष बढ़ रहा है तो यह है तो इसे पूर्णतया स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं माना जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने वाला यह उपकरण भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।

    करंट अकाउंट डिफिसिट को कम करने के तरीके:

    भारत का बड़ा ऊर्जा आयातक होना इस घाटे में बड़ा रोल अदा करता है। आज भारत अपने पूर्ण ऊर्जा आवश्यकताओं का 80% विदेश से आयात करता है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की डाटा के अनुसार वित्त वर्ष 2020-21 में खनिज तेलों का आयात 4.59 लाख करोड़ का था। वहीं वित्त वर्ष 2021-22 में यह आंकड़ा 8.99 लाख करोड़ पर पहुंच गया। इस दबाव को कम करने के लिए जरूरी है कि भारत नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ तेजी से कदम बढ़ाए। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए मोदी सरकार ने साल 2030 तक भारत की समस्त ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय माध्यमों से पूरा करने का लक्ष्य रखा है। मोदी सरकार देश में विद्युत चलित गाड़ियों को बढ़ावा दे रही है, सौर ऊर्जा तथा पवन ऊर्जा आधारित अवसंरचनाओं पर बड़ा निवेश किया जा रहा है। साथ ही तात्कालिक परिणाम के लिए खनिज तेलों में एथेनॉल मिश्रण को भी सरकार आगे बढ़ा रही है। इसी क्रम में सरकार द्वारा 10% एथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य को समय से पहले पूर्ण कर लिया गया है। सरकार का लक्ष्य है कि साल 2025 तक 20% एथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य को पूरा कर लिया जाए।

    इसके अलावा स्वर्ण के आयात से भी भारत को आर्थिक हानि होती है परंतु भारतीय समाज के परंपराओं में स्वर्ण के महत्व को देखते हुए भारत सरकार आयात के लिए मजबूर होती है। सरकार द्वारा स्वर्ण के आयात पर निर्भरता खत्म करने के लिए सावरेन गोल्ड बांड जैसी योजनाओं को लाया गया है। खाद्य तेलों का आयात भी हमारे लिए आर्थिक घाटे का कारण है और यह भारत के खराब कृषि नीति एवं बाजार के समन्वय में कुप्रबंधन का एक उदाहरण है। भारत सरसों, कपास, चावल, पाम और सोयाबीन का उत्पादन बड़े पैमाने पर करने में सक्षम है जिनसे खाद्य तेल बनाए जाते हैं। परंतु न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं सरकारी खरीद का फोकस सदैव चावल एवं गेहूं तक ही सीमित रहता था। केंद्र की मोदी सरकार इस क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर होने की ओर कदम बढ़ा रही है। इसी क्रम में सरसों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करते हुए उसके सरकारी खरीद का आश्वासन किसानों को दिया गया है।

    हमारे आयात को बढ़ाने में इलेक्ट्रॉनिक कॉम्पोनेंट्स का भी बड़ा योगदान है। इस क्रम में अपनी आत्मनिर्भरता को तेजी से बढ़ते हुए मोदी सरकार ने उत्पादन आधारित इंसेंटिव योजनाएं लाकर घरेलू बाजारों में निर्माण को प्रोत्साहित करने का कार्य कर रही है। इन्हीं प्रयासों के फल स्वरुप विश्व प्रसिद्ध मोबाइल कंपनी एप्पल, चीन को छोड़कर भारत में अपने निर्माण इकाइयां स्थापित कर रही है। आर्थिक मोर्चे पर रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने डॉलर पर अपनी निर्भरता को खत्म कर सीधे रुपए में ट्रेड को सुगम बनाने के लिए विशेष vastro खातों की व्यवस्था को प्रारंभ किया है।

    असमानताबेरोजगारीरोज़गार एवम् कौशल गुणवत्ता की समस्या:

    वैश्विक परिप्रेक्ष्य के बाद अब हम घरेलू अर्थव्यवस्था की चुनौतियों पर दृष्टि डालें तो सबसे बड़ी समस्या असमानता है। ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत को अत्यधिक आसमान देशों की लिस्ट में रखा गया है। भारत के शीर्ष 10% लोग, देश के 57 प्रतिशत संपदाओं के मालिक हैं। 50% आबादी के पास मात्र 13 प्रतिशत संपदा है। लेकिन इस असमानता की स्थिति की गहराई में जाएं तो इसके कई मूल कारण दिखाई देंगे जैसे बेरोजगारी, रोजगार की गुणवत्ता में कमी तथा कौशल विकास एवं नवाचारों में कमी।

    इन विषयों को गहराई से समझने के लिए हमें भारतीय आर्थिक विकास नीति को गहराई से समझाना पड़ेगा। भारत ने देश के आजाद होने के बाद एक ऐसे मिले-जुले आर्थिक ढांचे को स्वीकार किया जिसमें सरकार अग्रणी की भूमिका में रही एवं निजी क्षेत्र को बेहद सीमित अधिकार दिए गए। सोशलिज्म के सिद्धांतों पर चलते हुए भारत सरकार आर्थिक योजनाओं के निर्माण के लिए उत्तरदाई थी एवं पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से निर्णय लिया जाता था कि देश के मानव संसाधन को किस क्षेत्र में लगाया जाएगा।

    देश की आजादी के समय भारत एक कृषि आधारित देश था एवं देश की अधिकतर जनसंख्या खेती-बाड़ी के कामों में लगी रहती थी। तत्कालीन नेहरू सरकार ने विनिर्माण एवं भारी उद्योगों को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे पंडित नेहरू का विचार था कि देश के इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के लिए भारी उद्योगों का विकास आवश्यक है। और इस तरह से इस विकास का लाभ ऊपर से नीचे की ओर स्वयं जाएगा। विकास की जी अधोमुखी अवधारणा पर नेहरू जी ने भारत के आर्थिक विकास का स्वप्न देखा उसे वास्तव में सरकार के अधिकारी नियंत्रित कर रहे थे। अंततोगत्वा भ्रष्टाचार एवं लाल फिताशाही के चलते योजना के अनुरूप लाभ कभी अंतिम व्यक्ति तक पहुंच ही नहीं सका। इसी के साथ भारी उद्योग के निर्माण में देश ने इतनी अत्यधिक पूंजी लगाई की शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र में निवेश के लिए संसाधन बहुत कम बचे।

    भारत में कौशल विकास :

    आजादी के बाद बनी विकास की योजनाओं में इस बात को भुला दिया गया कि एक कृषि आधारित समाज को शिक्षा के द्वारा ही भारी उद्योग आधारित कल कारखानों में नौकरियां मिलेंगी। साथ ही कृषि जिस पर देश की अधिकतर जनता का जीवन निर्भर करता था उसे क्षेत्र को पूरी तरह से इग्नोर कर दिया गया। इसके फल स्वरुप देश के पढ़े लिखे समाज ने उद्योगों में तेजी से नौकरियां तो हथिया लिया परंतु कृषि पर जीवन ज्ञापन करने वाले लोग शिक्षा के अभाव में गरीब के गरीब बने रहे। 1980 90 के दशक में अंत सरकारों को इस भारी गलती का एहसास हुआ और कृषि को अर्थव्यवस्था का केंद्र बिंदु बनाने का निर्णय लिया गया। परंतु इस फैसले को क्रियान्वित करने के क्रम में देश लगभग 40 वर्ष पीछे चला गया। साथ ही कृषि पर जीवन यापन करने वाली एक बहुत बड़ी जनता द्वारा सरकार की योजनाओं एवं सुधारो पर से विश्वास भी उठ गया।

    भारत में कौशल विकास की स्थिति एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में स्थापित है। मोदी सरकार के लगातार प्रयासों से आज भारत में एक स्टार्टअप इकोसिस्टम खड़ा हुआ है परंतु यदि फिनटेक एवं फार्मास्यूटिकल को छोड़ दिया जाए तो भारतीय नवाचारों के द्वारा कोई ऐसा क्रांतिकारी बदलाव घरेलू मार्केट में नहीं आया है जिससे इंटेल, एप्पल या गूगल जैसी क्रांति खड़ी की जा सके। भारत को नवाचारों की दिशा में अभी बहुत अधिक कार्य करने की जरूरत है। कुल मिलाकर नवाचारों की कमी कौशल विकास की कमी तथा बेरोजगारी एक दूसरे से अंतर संबंधित विषय हैं जिनका स्थाई समाधान शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में बड़े निवेश के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। मोदी सरकार के आगामी कार्यकाल में इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव की अपेक्षा है।

    अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च:

    विश्व बैंक के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत अपनी जीडीपी का 0.66% अपने अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च करता है जो विश्व औसत 2.63 प्रतिशत से चिंताजनक रूप से बहुत कम है। इजरायल अपने जीडीपी का 5.5% तथा अमेरिका 3.5% अनुसंधान एवं विकास कार्यों पर खर्च करता है। इन सभी समस्याओं को हल करने का रास्ता औद्योगिक विकास से होकर गुजरता है और इसलिए भारत सरकार चैतन्य होकर इस दिशा में कार्य कर रही है। इसी प्रयासों के क्रम में विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों जैसे एप्पल, लोकहिड मार्टिन, सैमसंग, एअरबस आदि भारत में अपने विनिर्माण इकाई बना रहे हैं। इन सभी के द्वारा भारत में अनुसंधान एवं विकास को गति मिलेगी। साथ ही भारत का स्टार्टअप इकोसिस्टम भी अपनी शैशव अवस्था से है जो आगामी 10 वर्षों में एक बड़े क्रांति के रूप में विश्व मंच पर दिखाई देगा। वर्तमान में ड्रोन विनिर्माण तथा अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित स्टार्टअप्स को सरकार द्वारा विशेष रूप से प्रमोट किया जा रहा है। परंतु सकारात्मक क्रांति के लिए भारत को अनुसंधान एवं विकास पर अपने जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने का लक्ष्य बनाना चाहिए। कौशल विकास के माध्यम से जिन नई तकनीकियों पर युवाओं को कुशल बनाने की आवश्यकता है उसमें अभी भी संयोजन की समस्याएं आ रही हैं जैसे ट्रेनिंग संस्थाओं एवं उद्योगों के बीच समन्वय न होने के कारण युवाओं को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

    विश्वीकरण के नकारात्मक पहलू:

    वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कई सकारात्मक पहलू हैं जिनसे 1991 के बाद देश की आर्थिक प्रगति के साथ देशवासी रूबरू हुए। परंतु इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं जिनसे हमें समय-समय पर दो-चार होना पड़ता है। ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा उछाल तो दिया परंतु इसी वैश्वीकरण के कारण विश्व भर की अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ गई है तथा दुनिया के दूसरे गोलार्ध में भी कोई नकारात्मक आर्थिक गतिविधि दुनिया के सभी देशों को कमोबेश प्रभावित करता है। वर्तमान में जब विश्व के कई देश मंदी की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं तो ऐसे भंगुर वैश्विक आर्थिक स्थितियों में यह स्थिरता भारत की आर्थिक गतिविधि के लिए एक शक्तिशाली संकट बन सकता है। वैश्विक स्तर पर एक लंबे समय के बाद आर्थिक मंदी की वापसी हुई है। भारत जैसे विकासशील देशों में सामान्य से उच्च मुद्रा स्फीति एक सामान्य घटना बनी रहती है जिसके अपने नफे नुकसान भी हैं। चिंताजनक बात यह है कि आज अमेरिका एवं यूनाइटेड किंगडम सहित यूरोप के सभी बड़े देशों में मुद्रास्फीति की स्थिति भारत जैसे विकासशील देशों से भी विकराल हो गई है। मुद्रास्फीति महंगाई को आमंत्रित करता है जिससे एक सामान्य व्यक्ति सबसे अधिक प्रभावित होता है। विश्व विकसित देशों की मुद्रा स्थिति के कारण भारत के निर्यात में एक गिरावट दर्ज की गई साथ ही आयत में बढ़ोतरी हो गई है जो चिंताजनक है। इसका सीधा सा अर्थ है कि वैश्वीकरण के इस दौर में भारत के “विश्व का कल्याण हो” की प्रार्थना की प्रासंगिकता कितनी महत्वपूर्ण है। कैसे संपूर्ण विश्व वैश्वीकरण के दौर में एक गांव बन गया है जहां सभी एक दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं इसलिए सभी को एक दूसरे के कल्याण की बात सोचनी पड़ेगी। इसी विश्व के कल्याण के अंतर्गत रूस एवं यूक्रेन के युद्ध ने पूरे विश्व की आर्थिक मंदी के दौर में कोढ़ में खाज का काम किया है।

    अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम ने आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाया है जिसका प्रभाव भारत में आने वाले विदेशी निवेश पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। साथ ही इसका दुष्प्रभाव मौद्रिक विनिमय पर भी पड़ता है और रुपया कमजोर होने लगता है। अभी हाल ही में एक्स एवं फेसबुक जैसी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर भारत में कर्मचारियों की छटनी किया है साथ ही स्टार्टअप इकोसिस्टम को भी विदेशी निवेश कम प्राप्त हो रहा है।

    इन सभी जटिल परिस्थितियों में मोदी सरकार के द्वारा बहुत सूझबूझ से कदम रखते हुए “आपदा में अवसर” तथा “वोकल फॉर लोकल” का नारा दिया गया है। हमें अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्थितियां से संगरोध करने के लिए अपने घरेलू बाजारों की ओर मुड़ना होगा। वैश्विक बाजारों से आत्मनिर्भरता को कम करना होगा। निवेश के लिए आम जनता के पैसों को बैंक खातों से निकाल कर स्टॉक मार्केट तक लाना होगा जिससे विदेशी निवेशकों पर निर्भरता को निर्णायक रूप से कम किया जा सके। इसी के साथ भारत को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन के स्थान पर नई रणनीतिक व्यवस्थाएं स्थापित करनी होगी। 21वीं शताब्दी को एशिया की शताब्दी कहा गया है तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस एशिया की शताब्दी का नेतृत्व भारत के हाथों में रहे। 75 वर्षों के अंतराल में हमने अपने कॉलोनाइजर को पीछे छोड़ विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनकर एक नज़ीर कायम किया है। अब हमें तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी करना है।