एक सराहनीय निर्णय – वी.आई.पी. कल्चर की विदाई

 राकेश कुमार आर्य

भारत का संविधान कानून के समक्ष समानता की बात कहता है। यदि भारतीय संविधान पर एक समीक्षात्मक दृष्टिपात किया जाए तो यह संविधान अपने मौलिक स्वरूप में सामंती परम्परा और उसके प्रतीकों को जारी रखने का विरोधी है और यह नहीं चाहता कि समाज में कोई ऐसा वर्ग या समुदाय पनपे या विकसित हो जो विशेषाधिकारों से सुसज्जित होकर देश के जनसाधारण पर अपना वर्चस्व स्थापित करे या उस पर रौब झाड़े। भारतीय संविधान की यह मूल भावना इस संविधान के प्रति हर संवेदनशील व्यक्ति की निष्ठा को प्रगाढ़ करती है।

जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश का नेतृत्व पं. नेहरू को मिला। यह वही पं. नेहरू थे जिनके विषय में कहा जाता है कि जब वह विद्यालय में अध्ययनरत थे तो उनके घर के दोनों द्वारों पर अलग-अलग दो गाडिय़ां उन्हें स्कूल जाने के लिए छोडऩे हेतु खड़ी रहती थीं। इससे नेहरूजी भारत की निर्धनता को समझ नहीं पाये और उनके भीतर राजसी ठाटबाट का संस्कार बचपन से ही पड़ गया। उनका यह संस्कार प्रधानमंत्री बनने के बाद भी जारी रहा और हमारे इस ‘लोकतांत्रिक अधिनायक राजा’ के कपड़े भी पेरिस धुलकर आते रहे।
बलराज मधोक भारतीय जनसंघ के नेता रहे हैं। 1951 में उन्होंने हिंदू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी। उससे पूर्व वह कश्मीर की तत्कालीन परिस्थितियों को लेकर बड़े सक्रिय रहे थे। वह कश्मीर संबंधी अपनी योजना को लेकर पं. नेहरू और सरदार पटेल दोनों से मिले थे। पहले वह सरदार पटेल से मिले थे, जिनके विषय में उन्होंने लिखा है कि सरदार पटेल का पहनावा एकदम एक किसान जैसा था, उनके यहां कोई बनावट और अनावश्यक सजावट या दिखावट नहीं थी। जब मैं उनसे मिला तो ऐसा लगा कि मैं वास्तव में भारत के किसी लोकतांत्रिक नेता से मिल रहा हूं, उनकी सादगी ने मुझे प्रभावित किया और मैंने उसी दिन निर्णय ले लिया कि भारतीय राजनीति में मेरे आदर्श सरदार पटेल ही होंगे। इसके विपरीत पं. नेहरू से जब मधोक साहब मिले तो उनके साथ बीते क्षणों का उनका अनुभव कुछ दूसरा रहा। उस पर उनका कहना है कि पं. नेहरू के यहां राजसी ठाटबाट थे, मुझे नही लगा कि मैं किसी भारत जैसे निर्धन देश के एक प्रधानमंत्री से मिल रहा हूं। मुझे लगा कि जैसे मैं एक समृद्घ और धनी देश  के किसी राजा से मिल रहा हूं।
पाठकवृन्द! इस प्रकार हमारे देश के इस पहले ‘राजा’ नेहरू ने भारत की राजनीति में ‘वीआईपी कल्चर’ को जन्म दिया। कहा जाता है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ अर्थात जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है। प्रजा राजा का अनुकरण करती है। फलस्वरूप ‘राजा’ का अनुकरण उसके मंत्रियों ने और मंत्रियों का अनुकरण हमारे सांसदों व विधायकों ने किया। बात वहां भी नहीं रूकी, अनुकरण की यह परम्परा राजनीतिक पार्टियों के राष्ट्रीय, प्रांतीय और जिले के पदाधिकारियों तक में घुस गयी। अपने आपको वीआईपी सिद्घ करने के लिए लोगों ने सुरक्षागार्ड लेना भी ‘स्टेटस सिम्बल’ बना लिया। लालबत्ती लेने के लिए राजनीतिक दलों के लोगों में आपाधापी मचने लगी। राजनीतिक दलों ने भी अपने लोगों की महत्वाकांक्षा को शांत करने के लिए किसी भी प्रांत में सत्ता संभालते ही उन्हें लालबत्ती रेवडिय़ों की भांति बांटी। ऐसी व्यवस्था कर ली गयी कि बहुत से लोगों को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर उन्हें संविधानेतर व्यवस्था के अंतर्गत लाभ देना आरंभ किया गया। नेहरू से बात चली तो 70 वर्ष में पूरे देश की नसों में विष बनकर फैल गयी। यदि नेहरू सादगी के पुजारी होते और वह भी मोटी खादी का कपड़ा पहनकर चार पांच जोड़ी कपड़ों में गुजारा करने वाले तपस्वी राजनीतिज्ञ होते तो आज देश की राजनीति की दिशा और दशा कुछ दूसरी ही होती।
अब इस ‘वी.आई.पी. कल्चर’ ने शहरों में ऑफिसर्स कालोनी, जजेज कालोनी, एडवोकेट्स कालोनी आदि के रूप में अपना नया स्वरूप दिखाना आरंभ कर दिया है। यदि कोई जजेज कालोनी है तो रोज न्याय करने वाले जजों की उस कालोनी में भी जम्मू कश्मीर की धारा 370  लागू हो जाती है और उसमें कोई साधारण व्यक्ति अपना आवास क्रय नहीं कर सकता। कोई भूमि नहीं खरीद सकता। ऐसा ही आफिसर्स कालोनी या एडवोकेट्स कालोनी जैसी दूसरी कालोनियों की स्थिति है। वहां भी आप अपने लिए भूखण्ड क्रय नही कर सकते। ऐसी स्थिति में कानून के समक्ष समानता और सबको समान अधिकार देने की संविधान की प्रत्याभूति केवल ‘शोपीस’ बनकर रह गयी है। जो लोग इस संविधान को दिन रात गाली देते हैं वे थोड़े ठंडे दिमाग से यह भी विचार कर लें कि इस संविधान की मूल भावना के अच्छा होने के उपरांत भी उसे मारने वाले हम हैं। पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन ने कहा था कि यह देखने वाली बात होगी कि इस संविधान में दोष है या फिर इसे लागू करने वालों की भावना में दोष है?
अब नरेन्द्र मोदी की सरकार इस दु:खदायक ‘वीआईपी कल्चर’ को समाप्त करने जा रही है। सचमुच मोदी सरकार का यह बहुत बड़ा और साहसिक निर्णय है। इस निर्णय से न केवल संविधान की मूलभावना का सम्मान होगा अपितु नेहरू के काल से देश की राजनीति जिस गलत दिशा में जाकर अटकी भटकी पड़ी थी, उससे उसे लौटाकर सही लोकतांत्रिक स्वरूप में ढालने में भी सहायता मिलेगी। नोटबंदी के पश्चात मोदी सरकार का यह बड़ा निर्णय देश के लिए बहुत उपयोगी होगा। अच्छा हो कि इस ‘वीआईपी कल्चर’ के अंतिम संस्कार से पूर्व हमारे समाज के उन सभी सामंती प्रतीकों और परम्पराओं को चिन्हित कर लिया जाए जिनसे कुछ लोगों को अपने आपको सबसे अलग सिद्घ करने का अवसर मिलता है। हमारा संकेत ऑफिसर्स कालोनी, जजेज कालोनी आदि की उन नियमावलियों के लिए भी है जो भारत के कानून को ठेंगा दिखाकर किसी साधारण व्यक्ति को उनकी कालोनी में प्लॉट खरीदने से निषिद्घ करती है । जब देश का कानून एक है और वह सब लोगों को पूरे देश में सर्वत्र बसने की अनुमति देता है तो फिर इन कालोनियों में ही कोई क्यों नही बस सकता? ‘एक धक्का और दो ये परम्परा भी तोड़ दो’ हमें इस नीति पर कार्य करते हुए सामंती परम्परा की हर नस को तोडऩा होगा। मोदी की ‘न्यू इंडिया’ में इन परम्पराओं और प्रतीकों का कोई स्थान नही होगा हमेें ऐसी आशा करनी चाहिए।

 

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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