एफडीआईः राजनीतिक जोड़-तोड़ का दुष्परिणाम

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-प्रमोद भार्गव-   FDI3

दिल्ली की ‘आप’ सरकार के बाद, राजस्थान की भाजपा सरकार ने भी खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के फैसले को वापस ले लिया। शीला दीक्षित और अशोक गहलोत सरकारें किराना व्यापार में एफडीआई के लिए पलक-पांवड़े बिछाने में अव्वल थीं। करीब 25 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी से जुड़ा होने के कारण यह मुद्दा हमेशा ही विवादास्पद रहा है। बावजूद घोर राजनीतिक मतभेदों के चलते मई 2012 में केंद्र सरकार ने यह फैसला लिया। फैसला लेते वक्त सरकार ने न केवल संसद की स्थायी समिति की सिफारिष को रद्दी की टोकरी में डाल दिया था, बल्कि संप्रंग के सहयोगी दलों की भी अनदेखी की थी। तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, झारखंड विकास मोर्चा, सपा और बसपा खुदरा में विदेशी निवेश के विरोध में थे। तृणमूल ने तो इस नीतिगत फैसले के विरोध में समर्थन तक वापस ले लिया था और संसद में प्रस्ताव पर मत विभाजन के समय नाटकीय अंदाज में सपा और बसपा ने सदन का बहिष्कार कर दिया था। जाहिर है, बह्मांड में एफडीआई की 51 फासदी मंजूरी राजनीतिक जोड़-तोड़ का परिणाम थी। लिहाजा निवेश के खिलाफ जा रही राज्य सरकारों पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि संसद में नीतिगत निर्णय लेने के बाद, नीति पलटना कानून सम्मत नहीं है। राज्य सरकारों द्वारा नीति को पलटना इसलिए भी गलत नहीं है, क्योंकि प्रस्ताव के प्रारूप में यह शर्त जुड़ी है कि राज्य खुदरा में विदेशी निवेश स्वीकार करने, अथवा न करने के लिए स्वतंत्र हैं ?
खुदरा में एफडीआई लागू होने के बाद इसे केवल देश के कांग्रेस शासित राज्यों ने लागू करने पर सहमति जताई थी, लेकिन लगता है, जैसे-जैसे कांग्रेस राज्यों में सत्ता से बाहर होगी, वैसे-वैसे एफडीआई नकार दी जाएगी। क्योंकि यह नीतिगत फैसला व्यापक जनहित की बजाय चंद विदेशी कंपनियों के हित में है। किराना मसलन परचून की स्थायी दुकानें चलाने वालों के अलावा इस खुदरा व्यापार से पटरी,हाथ-ठेला,हाट बाजार के साथ फल व सब्जियों के कारोबारी भी जुड़े हैं। इन कारोबारियों की संख्या दो करोड़ के करीब है। इनके परिजनों की आजीविका भी इसी कारोबार पर निर्भर है,इस लिहाज से यह संख्या 25 करोड़ के आसपास बैठती है। तय है, इतने लोगों की पेट पर लात मारने का फैसला नीतिगत भले ही हो, न्यायसंगत एवं व्यावारहिक कतई नहीं हैं? इसलिए शेष रहे, 10 राज्यों से भी खुदरा में विदेशी निवेश की वापिसी जरूरी है ?
दो राज्यों से एफडीआई की वापसी के परिप्रेक्ष्य में मौलिक प्रश्न यह खड़ा करने की कोशिश की जा रही है कि हमारे देष में नीतिगत स्थिरता है अथवा नहीं? दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार ने तो राजपत्र में अधिसूचना तक जारी कर दी थी। ऐसे में अल्पमत वाली आम आदमी पार्टी सरकार बहुमत वाली सरकार के फैसले को कैसे बदल सकती है? इससे विदेशी पूंजी निवेशक असमंजस में रहेंगे और इन राज्यों के देखादेखी अन्य राज्यों में भी पूर्ववर्ती सरकारों के फैसले बदलने की परंपरा ही शुरू हो जाएगी। ऐसी दुविधाओं के चलते मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआई की स्वीकृति मिलने के बावजूद एक साल तक किसी भी कंपनी ने भारत में खुदरा के भण्डार खोलने का रूख तक नहीं किया। केंद्र सरकार द्वारा रियायतों का पिटारा खोलने के बाद बमुश्किल ब्रिटेन की टेस्को कंपनी ने भारत में किराना दुकानें चलाने के लिए तैयार हुई है। केंद्र ने इसे अनुमति भी दे दी है। टेस्को ने टाटा समूह की कंपनी टेंर्रट हाइपर मार्केट लिमिटेड के साथ किराना श्रृंखला खोलने का अनुबंध किया है। जाहिर है, टेस्को के सामने दिल्ली, जयपुर, उदयपुर, जोधपुर और कोटा जैसे शहर और उनके उपभोक्ता रहे होंगे ? तय है, पूर्ववर्ती सरकारों के फैसले बदले जाते हैं, तो निवेश प्रभावित होगा और पूंजीवादी अर्थव्यस्था को झटका लगोगा ?
यहां गौरतलब है कि केंद्र की लोकतंत्रिक सरकार को इतना बड़ा फैसला लेने से पहले, व्यापक जनहित का ख्याल रखने की भी जरूरत थी, जो मनमोहन सिंह सरकार ने नहीं रखा। उन्हें यह फैसला लेते वक्त न दलीय आधार पर बहुमत प्राप्त था और न ही सांसदों का बहुमत तय करने वाला संख्या बल उनके साथ था? क्योंकि मत विभाजन के समय सपा और बसपा के सांसद सदन से बहिर्गमन कर गए थे। ऐसा इन दलों ने इसलिए किया, क्योंकि सपा प्रमुख मुलायम सिंह और उनके परिजनों पर अनुपातहीन संपत्ति की जांच सीबीआई कर रही थी, जिसने समर्थन के लिए बहिर्गमन का रास्ता अपनाया। बाद में साबीआई ने मुलायम सिंह कुनबे का क्लीन चिट भी दे दी। बसपा के समर्थन के लिए केंद्र्र ने पदोन्नती में आरक्षण विधेयक पारित करा देने का भारोसा मायावती को दिया था। जाहिर है,यह फैसला सियासी नाकाबंदी का नतीजा था, जो लोकतंत्र में बहुमत की इच्छा के विरूद्ध था। मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के राजनीतिक हितों की परवाह इसलिए नहीं की,क्योंकि एक तो वे सोनिया गांधी द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री हैं, दूसरे उन्हें जनता के बीच जाकर कोई चुनाव नहीं लड़ना है? अलबत्ता खुदरा में एफडीआई के फैसले को यदि हमारे राजनेता सबक मानते हैं तो भविष्य में इतना जरूर होगा कि नेता प्रजाहित को प्राथमिकता देंगे।
खुदरा में विदेशी पूंजी निवेश को भारत का आधारभूत ढ़ांचा खड़ा करने के लिए इसके पैरोकार इसे जरूरी बताते रहे हैं। जिससे शीतालयों और अनाज भंडार गृहों की श्रृंखला खड़ी की जा सके। इनके अभाव में एक करोड़ लाख टन फल व सब्जी तथा कई करोड़ टन अनाज सड़ जा जाता है। लेकिन अमेरिका समेत तमाम यूरोपीय देशों में वालमार्ट की दुकानें होने के बावजूद वहां 40 फीसदी अनाज और 50 फीसदी फल व सब्जियां खराब होते हैं। जब अपने ही देश में ये कंपनियां खाद्यान्नों की बर्बादी नहीं रोक पा रही हैं, तो भारत में ये कहां करिश्मा कर पाएंगी ? जहां तक लोगों की आजीविका और रोजगार से जुड़ा सवाल है तो अमेरिका में 450 अरब डॉलर की वॉलमार्ट महज 21 लाख लोगों को रोजगार दे रही है,जबकि भारत में 460 अरब डॉलर का खुदरा कारोबार करीब पांच करोड़ लोगों को सीधा रोजगार और 25 करोड़ लोगों की रोटी का आधार बना हुआ है। जाहिर है, भारत में वॉलमार्ट,टेस्को और केयरफॉर जैसी खुदरा व्यापार की लालची कंपनियों को बाहर का रास्ता ही दिखाया जाए। इसके बजाय हम सहकारिता एवं स्वसहयता समूहों को प्रोत्साहित करें। जैसे कि अन्ना हजारे ने रालेगन सिद्धी समेत अनेक गांवों को आत्मनिर्भर बनाया हैं। डॉ. कुरियन वर्गीस ने दूध जैसे खराब हो जाने वाले पेय पदार्थ को अमूल ब्रांड में बदलकर अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बना दिया है। बाबा रामदेव के पातंजली संस्थान से उत्पादित ब्रांड भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। लिहाजा जरूरी है कि हम स्वदेशी उत्पादों को महत्व दें और बाजार में इन्हीं ब्राण्डों को प्रोत्साहित करें। ऐसा करते है तो हमें खाद्यान्नों को सुरक्षित रखने की दृष्टि से बुनियादी ढांचागत विकसित करने के लिए बड़ी मात्रा में धन प्राप्त हो सकता है।

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