एक सामाजिक प्रश्नः बिन फेरे हम तेरे

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परिवार नाम की संस्था को बचाने आगे आएं नौजवान

भारत और उसकी परिवार व्यवस्था की ओर पश्चिम भौंचक होकर देख रहा है। भारतीय जीवन की यह एक विशेषता उसकी तमाम कमियों पर भारी है। इसने समाज जीवन में संतुलन के साथ-साथ मर्यादा और अनुशासन का जो पाठ हमें पढ़ाया है उससे लंबे समय तक हमारा समाज तमाम विकृतियों को उजागर रूप से करने का साहस नहीं पाल पाया। आज का समय वर्जनाओं के टूटने का समय है। सो परिवार व्यवस्था भी निशाने पर है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ही एक विचार दिया है जिसमें कहा गया है कि शादी से पहले संबंध बनाना अपराध नहीं है। 24 मार्च के अखबारों में यह जैसी और जितनी खबर छपी है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कह रही है। क्योंकि दो बालिग लोगों को साथ रहने पर सवाल उठाने वाले हम कौन होते हैं। कानून भी उनका कुछ नहीं कर सकता। प्रथमदृष्ट्या तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि कोई दो वयस्क साथ रहते हैं तो इसमें क्या किया जा सकता है।

भारतीय समाज भी अब ऐसी लीलाओं का अभ्यस्त हो रहा है। हमारे बड़े शहरों ने सहजीवन की नई परंपरा को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया है। सहजीवन का यह विस्तार शायद आने वाले दिनों में उन शहरों और कस्बों तक भी हो जहां ये बातें बहुत स्वीकार्य नहीं मानी जातीं। किंतु क्या हम अपने समाज की इस विकृति को स्वीकृति देकर भारतीय समाज के मूल चरित्र को बदलने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। क्या इससे परिवार नाम की संस्था को खोखला करने का काम हम नहीं करेंगें। अदालत ने जो बात कही है वह कानूनी पहलू के मद्देनजर कही है। जाहिर है अदालत को अपनी सीमाएं पता हैं। वे किसी भी बिंदु के कानूनी पहले के मद्देनजर ही अपनी बात कहते हैं। किंतु यह सवाल कानूनी से ज्यादा सामाजिक है। इसपर इसी नजर से विचार करना होगा। यह भी सोचना होगा कि इसके सामाजिक प्रभाव क्या होंगें और यदि भारतीय समाज में यह फैशन आमचलन बन गया तो इसके क्या परिणाम हमें भोगने होंगें। भारतीय समाज दरअसल एक परंपरावादी समाज है। उसने लंबे समय तक अपनी परंपराओं और मान्यताओं के साथ जीने की अभ्यास किया है। समाज जीवन पूरी तरह शुद्ध है तथा उसमें किसी तरह की विकृति नहीं थी ऐसा तो नहीं है किंतु समाज में अच्छे को आदर देने और विकृति को तिरस्कृत करने की भावना थी। किंतु नई समाज रचना में व्यक्ति के सदगुणों का स्थान धन ने ले लिया है। पैसे वालों को किसी की परवाह नहीं रहती। वे अपने धन से सम्मान खरीद लेते हैं या प्राप्त कर लेते हैं। कानून ने तो सहजीवन को मान्यता देकर इस विकृति का निदान खोज लिया है किंतु भारत जैसे समाज में इसके कितने तरह के प्रभाव पड़ेंगें इसका आकलन अभी शेष है। स्त्री मुक्ति के प्रश्न भी इससे जुड़े हैं। सामाजिक मान्यता के प्रश्न तो हैं ही। आज जिस तरह समाज बदला है, उसकी मान्यताएं भी बदली हैं। एक बराबरी का रिश्ता चलाने की चाहना भी पैदा हुयी है। विवाह नाम की संस्था शायद इसीलिए कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिख रही होगी किंतु वह भारतीय समाज जीवन का सौंदर्य है। ऐसे में इस तरह के विचार निश्चय ही युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं। युवा स्वभाव से ही अग्रगामी होता है। कोई भी नया विचार उसे आकर्षित करता है। सहजीवन भी एक नया विचार है। युवा पीढ़ी इस तरफ झुक सकती है।

आप देखें तो इस पूरी प्रकिया को मीडिया भी लोकप्रिय बनाने में लगा है। महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है। वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं। दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ हैं। ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है। सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं। इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद अचानक नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं। कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती। मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की। उसका विमर्श है-देह ‘जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म’ जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है। जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है। अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का डै। कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है।

अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देह राग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं। यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए। अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया। इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं। हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं। कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है। अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमें बिना बात नहीं बनती। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं। लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं। ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही महिला पत्रकारिता का मूल विमर्श है। जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गया है। बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं। नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। जाहिर तौर समाज के सामने चुनौती कठिन है। उसे इन सवालों के बीच ही अपनी परंपराएं, परिवार नाम की संस्था दोनों को बचाना है। क्योंकि भारत की आत्मा तो इसी परंपरागत परिवार में रहती है उसे और किसी विकल्प में खोजना शायद बेमानी होगा।

-संजय द्विवेदी

6 COMMENTS

  1. अक्सर इस अंधी दौड़ में वे विवेकहीन लोग जुड़ जाते हैं, जो दूसरों के दिखाये रास्ते पर चलने में ज्यादा विश्वास करते हैं। स्त्री पुरुष के सम्बन्धों को संदेह की दृष्टि से देखना बिल्कुल गलत है, लेकिन समाज की मर्यादा और पवित्रता बनाये रखने के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था को विकृत होने से बचाये रखने के लिए लिव इन रिलेशनशिप से दूर रहना होगा।
    देवाशीष मिश्रा

  2. Court deals legality NOT ETHICS.—- Do not copy West where Family is declining.— 2 out of 3 marriages in USA, do not succeed. Children are brought up by step fathers/mothers. Only 21 % Couples live with their own children. 50-54 % population never marry ( NO NEED). — SEX WITHUT MARRIAGE IS ALLOWED. THEN -Why would any male want the responsiobility of family and headaches. Women are loosers and are busy all their life in looking attrctive and sexy to men. (this is no liberty but slavery to men)in this culture. All their life they are busy in make up and artificial beauty techniques. Students are intersted in variety of sexual (experiences) partners— End up in unhappy marriages. BHARAT BE WARNED.From USA ( University Professor) Being out of town could not Write in Hindi— Excuse me.

  3. सारा खेल एक महिला की छवि को सौंदर्य की प्रतिमूर्ति से हटाकर सेक्स की प्रतिमूर्ति बनाने का है. इसको रोकने का काम सिर्फ और केवल संगठित महिलायें ही कर सकती हैं . अगर महिलाए इसका विरोध सामूहिक रूप मैं करेंगी तो ही कोर्ट और सरकार इसके खिलाफ कोई कानून बना सकती है .
    मीडिया द्वारा महिलाओं को पुरुषप्रधान समाज से बगावत करना सिखाया जा रहा है, उनको ये बताया जा रहा है की उनका सदियों से शोषण हुआ है. जबकि ये देश सदियों से महिलाओं द्वारा निभाई गयी सशक्त भूमिकाओं से ही सुद्रढ़ हुआ है . महिलाओं को समझना होगा की मीडिया द्वारा निरुपित स्वतंत्र कामोत्तेजक महिला की छवि सिर्फ बाज़ार के लिए गढ़ी गयी है. जिसने महिलाओं को सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप मैं प्रस्तुत किया है. और इसी छवि के चलते आज अधिकतर लोगों द्वारा महिलाओं को सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट के तोर पर देखा जाता है. अगर महिला इतनी शसक्त हुयी है तो क्यों नहीं इसका विरोध करती है. अगर इस सबमे महिलाओं की मौन स्वीकृति है तो इस दलदल से निकलना न ही समाज के लिए संभव है न ही महिला के लिए.

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