माओवादियों से लडने के लिए दोतरफा रणनीति की जरूरत

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दंतेवाडा की घटना पर लगातार टेबुल टॉक जारी है। कोई माओवादियों को तो कोई केन्द्रीय गृहमंत्री चिदंबरम को मसीहा घोषित कर रहा है। इधर दंतेवाडा के मओवादी हमला में मारे गये केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों की वीरता पर पूरा देश नतमस्तक है, लेकिन चिदंबरम साहब के नाकट से यह साबित हो गया है कि जिस व्यक्ति के हाथ में देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेबारी है वह उस लायक नहीं है। उनके त्याग-पत्र से तो ऐसा लगा कि चिदंबरम साहब के पास माओवादियों से लडने की दूरगामी रणनीति ही नहीं है। जैसे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी लगातार एक के बाद एक नाटक कर रही है वैसे ही विगत दिनों गृहमंत्री पी0 चिदंबरम ने भी एक जोरदार नाटक किया। दंतेवाडा की घटना के बाद रोते प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह के पास पहुंचे और कहने लगे कि महोदय मेरा त्याग-पत्र स्वीकार करें। यह कितनी हास्यास्पद बात है कि जब लडाई कांटे की हो और दुश्मन सामने खडा हो उस समय कोई सेना नायक यह कह रहा हो कि अब मैं सेना का नेतृत्व नहीं करूंगा। गृहमंत्री का यह कृत्य एक जिम्मेदार नायक की नहीं है जिसका अफसोस देश को सदा रहेगा। दरअसल यह चिदंबरम की गलती नहीं है। यह इस देश के अभिजात्य वर्ग की कमजोरी है। मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौय और अशोक महान के बाद ऐसा कोई योध्द इस देश में पैदा नहीं हुआ जो अपने जीवन के अंतिम क्षण तक लडता रहा हो और किसी से न तो हारा हो और न ही समझौता किया हो। मगध सम्राटों ने किसी के साथ कोई समझौता नहीं किया लेकिन बाद के कालखंड में दुश्मनों के साथ समझौते होते रहेहैं। जब पृथ्वीराज चौहान गोरी से लोहा ले रहे थे तो कुछ लोग समझौते की रोटी सेक रहे थे। हेमचंन्द्र विक्रमादित्य यानी हेमू को जिन शक्तियों ने धोखा दिया वही शक्ति अंग्रेजों के सारथी बने। अग्रेजी शासनकाल में जिस अभिजात्य वर्ग का निर्माण हुआवही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद साम्यवादी हो गये। इस बात की कटु व्याख्या सचिदानंद सिंह ने अपनी किताब नक्सलवाद का बैचारिक संकट नामक पुस्तक में किया है। इस देश की सबसे बडी त्रासदि रही है कि जब देश के दुश्मन से देश के योध्दा लोहा ले रहे हों, ठीक उसी समय देश का अभिजात्य वर्ग दुश्मनों के साथ समझौता कर रहा होता है। यही नहीं देश के दुश्मनों के साथ न केवल समझौता किया गया है अपितु उन योध्दाओं को अस्पृष्य भी घोषित किया गया है जिन लोगों ने देश के संस्कृति की रक्षा के निए अपना सबकुछ लुटा दिया। इतिहास को विक्रित करने के बाद भी ऐसे कई उदाहरण भारत के इतिहास में भरे परे हैं। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के लिए करोडों रूपये घूस लेने वाला वर्ग आज भी इस देश में सक्रिय है। चिदंबरम के व्यक्तित्व का गठन ऐसे ही अभिजात्य संप्रदाय का प्रतिफल है। चिदंबरम ने कोई नया काम नहीं किया है। जो लोग अंग्रेजों की चाकरी में लगे थे उन्हें राजा, रायबहादुर, महाराज, जमीनदार आदि की उपाधि दी जाती थी। अंग्रेज उन चाटुकारों को मालगुजारी वसूल करने के लिए कुछ जागीर दे दिया करते थे। ऐसे ही जागिरदारी प्रथा में रचे बसे चिदंबरम साहब का परिवार रहा है। जिस प्रकार जमीदार के बेटे आजादी के बाद साम्यवाद की तरफ झुके उसी प्रकार अपने जवानी के दिनों में चिदंबरम साहब घुर साम्यवादी थे। और जिस प्रकार बूढा साम्यवादी कॉरपोरेट का प्रवक्ता हो जाता है ठीक उसी तरत चिदंबरम साहब ने भी कॉरपोरेटी वकालत में जम गये। श्रीमान जाने माने कॉरपोरेट अधिवक्ता है। साहब का पूरा परिवार प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह के परिवार की तरह संयुक्त राज्य में सिफ्ट कर गया है।

अब जरा माओवादियों के इतिहास पर दृष्टि निक्षेप करें। साम्यवाद की धारा से माओवाद का जन्म हुआ है। चीन में माओत्सेतुंग नाकम एक जमीनदार का बेटा साम्यवादी खेमे में आ गया। उस समय के जमीनदार और अभिजात्य हानों ने माओ का समर्थन किया। माओ चीन के अंदर साम्यवाद की स्थापना करने में सफल रहे। कई पत्नी रखने वाले और वेहद आइयास किस्म के माओ ने चीन में साम्यवाद की स्थापना की। साम्यवादी चीन विकास के बदले अवनति की ओर बढने लगा। यह देख माओ साम्यवाद के अन्तरराष्ट्रवादी चिंतन को चीनी राष्ट्रवाद से जोड दिया। इसी बीच भारत के साथ चीनी राजनेताओं की ठन गयी और चीन ने सन 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया। चीनी जासूसों ने चीनी नेताओं को इस बात की सूचना दी कि भारत भले सामरिक दृष्टि से कमजार है लेकिन भारत के लोगों में अपनी मातृभूमि के प्रति वेहद लगाव है। ऐसे में चीन भारत को निगल तो सकता है लेकिन पचा नहीं सकता है। इस सूचना के बाद चीनी राजनेताओं ने भारत के खिलाफ एक दूरगामी रणनीति बनायी। इसके तहत भारत के साम्यवादी पार्टी का विभाजन कराया गया। कुछ नौजवान साम्यवादियों को चीन बुलाया गया। जिसमें चारू मजुमदार, कानू सन्याल, जंगल संथाल, बी0 पी0 रणदिबे आदि प्रमुख नेता थे। उस नेताओं को समझाया गया कि भारत में चीन की तरह सशस्त्र साम्यवादी संघर्ष की जमीन तैयार की जाये लेकिन चीन की इस रणनीति के पीछे भारत में चीन के प्रति प्रेम पैदा करना तथा भारत को तहस नहस करना था॥ सिरफिरे नौजवानों ने चीन की सह पर भारत में सशस्त्र आन्दोलन खडा कर दिया। उसे भारत में माओवादी सशस्त्र आन्दोलन की संज्ञा दी गयी। यह आन्दोलन सबसे पहले प0 बंगाल के नक्सलबाडी नामक स्थान पर हुआ इसलिए इसे नक्सली आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है। प्रथम चरण में यह आन्दोलन चीन के समर्थन से ही चलता रहा। लेकिन बाद में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही बदनामी और आर्थिक बोझ के कारण चीन, भारत के माओवादी सशस्त्र संघर्ष से अपना हाथ खीचने लगा। अब भारतीय माओवादियों को चीन से नैतिक समर्थन ही मिल रहा है। हालांकि आए दिन माओवादियों के पास से मिले चीनी हथियारों से यह साबित होने लगा है कि चीन अब भी भारतीय माओवादियों को आयुध्द की आपूर्ति कर रहा है, लेकिन पैसे के लिए भारतीय माओवादियों ने अन्य रास्ते भी खोज निकाले हैं। जानकारों की मानें तो इस देश में माओवादियों को दो श्रोतों से पैसे आ रहे हैं। पहला श्रोत इस देश में काम करने वाली ईसाई मिशनरियां माओवादियों को अपने हितों के लिए पैसे देती है। दूसरा श्रोत देश तथा विदेश के औद्योगिक समूह हैं। औद्योगिक समूह प्राकृतिक एवं खनिज संपदाओं के अबैध विदोहन के लिए माओवादियों को अथाह पैसे दे रहे हैं जबकि हिन्दु कार्र्यकत्ताओं को ठिकाना लगाने के लिए ईसाई मिसनरियों ने माओवादियों का उपयोग करना प्रारंभ किया है।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में माओवादियों के दोनों समर्थक प्रभावी भूमिका में है। केन्द्र सरकार की कर्ताधर्ता स्वयं सोनिया जी पर कैथोलिक चर्च समर्थक होने का आरोप है। जबकि चिदंबरम साहब पर कॉपोरेट समर्थक होने का आरोप है। ऐसे में यह सरकार कैसे माओवादियों से लोहा ले सकती है। दंतेवाडा की घटना के बाद यह साबित हो गया है कि केन्द्र सरकार के पास माओवादियों से लडने की कोई रणनीति नहीं है। या यह भी कहा जा सकता है कि जनता के दबाव के कारण भले केन्द्र सरकार कुछ कर रही हो लेकिन सरकार की मंशा माओवादी के खिलाफ लडाई की नहीं है। आज माओवादियों से लडने के लिए दोतरफा रणनीति की जरूरत है। जिस प्रकार 70 – 80 के दशक में श्रीमती इन्दिरा गांघी ने माओवादियों के खिलाफ दो तरफा रणनीति बनायी थी उसी प्रकार आज भी माओवादियों से लडने के लिए दो अस्तर पर काम करना होगा। जब बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मुसहरी प्रखंड में माओवादियों का आतंक बढ गया और माओवादी सर्वोदयी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने लगे तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तीन महीने तक मुसहरी में प्रवास किया और वहां से माओवादियों को भागना पडा। यह काम केवल सरकारी स्तर पर नहीं हो सकता है। माओवाद से लडने के लिए सामाजिक सुधार तथा संवाद के साथ ही साथ शक्ति की भी जरूरत है। उस समय राजकिसोर जैसे सिरफिरे माओवादियों को मौत के घाट उतार दिया गया लेकिन उमाधर प्रसाद सिंह जैसे समझदार माओवादियों को मुख्यधारा में आने की छूट दी गयी। जयप्रकाश जी के साथ काम कर चुके कई कार्यकर्ता आज भी जीवित हैं। उनका उपयोग सरकार कर सकती है। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र भाई, गांधी चिंतन के प्राध्यापक डॉ0 विजय कुमार सिंह, लोहियावादी समाजवादी विचारक सचिदानंद सिंह आदि कई ऐसे लोग हैं जिन्हें माओवादियों से रचनात्मक लडाई लडने का अनुभव है। देश भर के ऐसे रचनात्मक योध्दाओं की एक समिति बनाकर माओवादियों से संवाद किया जाना चाहिए। साथ ही जो माओवादी पूर्वाग्रहग्रस्त हैं उनके खिलाफ शक्ति से निवटने की जरूरत है। एक तरफ समाज में संवाद की पृष्टभूमि तैयार की जाये और दूसरी ओर सिरफिरे माओवादियों के खिलाफ ताकत का उपयोग किया जाये। इस लडाई के लिए माओवादी प्रसार वाले क्षेत्र में संवेदनशील, इमानदार और रचनात्मक प्रवृति के प्रशासकों की बहाली की जाये जो किसी कीमत पर डिगे नहीं। चिंहित कर वैसे स्वयंसेवी संगठनों को माओवादी क्षेत्र से बाहर निकाला जाये जो बाहरी पैसे से माओवादियों को उकसा रहे हैं। ऐसा अगर नहीं किया गया तो माओवादियों की स्थिति दिन व दिन मजबूत होती जाएगी और इस बात को बल मिलेगा कि केन्द्र सरकार माओवादियों से लडने के लिए नहीं अपितु उसे और प्रशिक्षित करने के लिए शक्ति का उपयोग कर रही है।

-गौतम चौधरी

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