25 मई : आल्हा जयंती

aalha
डा.राधेश्याम द्विवेदी
आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल की 52 लड़ाइयों का विस्तृत रोमांचकारी वर्णन हैं। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था।आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवर्द्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया। ‘पृथ्वीराजरासो’ के सभी गुण-दोष ‘आल्हाखण्ड’ में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच। ‘आल्हाखण्ड’ पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढ़ियों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से ‘आल्हखण्ड’ की रसधारा मिलकर एक हो गयी है। इसी विशेषता के कारण उत्तर भारत की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से ‘रामचरितमानस’ के बाद ‘आल्हाखण्ड’ का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है।
आल्हाखण्ड की लोकप्रियता कालिंजर के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं,औ तेरह लौ जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जिऐं,आगे जीवन को धिक्कार।
साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था। इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं। आल्हा-ऊदल के गीत आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है, वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं।
बुंदेलखंड में, विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है। आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था। आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का ज़िक्र है। शुरूआत मांड़ौ की लड़ाई से है। मांड़ौ के राजा करिंगा ने आल्हा-ऊदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। ऊदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र 12 वर्ष थी। महोबा 12वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इसकी प्रामाणिकता के लिए न तो अन्तःसाक्ष्य ही उपादेय और न बर्हिसाक्ष्य। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है। यह प्रबन्ध काव्य समस्त कमज़ोरियों के बावजूद बुन्देलों जन सामान्य की नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता है। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता है।
भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये,जा दिन झड़ी लगे दिन रात।।
बुंदेलखंड अपनी निर्भीकता और अन्याय के विरूद्ध संघर्ष के लिए विख्यात है। इस कारण उसकी प्रसिद्धि राष्ट्रीय स्तर से उठकर विश्वव्यापी है। आल्हा-ऊदल, लाला हरदौल, वीर चंपतराय, महाराजा छत्रसाल, रानी दुर्गावती एवं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि समस्त उत्तरी भारत एवं दक्षिणी भारत में वीरता त्याग आत्म बलिदान के आधार पर पूजनीय और श्रद्धा के पात्र हैं। बुंदेलखंड में इन वीरों एवं वीरांगनाओं से संबंधित अनेक रचनाएँ गद्य एवं पद्य में लिखी गई हैं। इनमें आल्हा ही एक मात्र ऐसे पात्र हैं, जिन पर और अनेक नाम से आल्हा खंड नामक महाकाव्य का सृजन किया गया है।
आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता:- बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने बहादुर सैनिकों को उनके यथोचित सम्मान से विभूषित किया। आल्हा और ऊदल राजा नहीं थे। इसलिए उनके बारे में इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता है। जबकि इतिहासकार महोबा के राजा परमाल, दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान और जयचन्द को ऐतिहासिक व्यक्तित्व मानते हैं। आल्हा के लेखन का कार्य सबसे पहले ब्रिटिश शासनकाल में फर्रुखाबाद के कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 1865 में कराया। इसका संग्रह ‘आल्ह खण्ड’ के नाम से प्रचलित हुआ तथा यह पहला संग्रह कन्नौजी भाषा में था। आज भी अनेक शिलालेख और भवन मौजूद हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि आल्हा-ऊदल ऐतिहासिक पात्र हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा और मलखान के शिलालेख हैं। वर्ष 1982 के शिलालेख में यह उल्लेख है कि पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के परमाल राजा को पराजित किया था। आल्हा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की पुष्टि उत्तर प्रदेश के जनपद ललितपुर में मदनपुर के एक मन्दिर में लगे 1178 के एक शीलालेख से भी होती है। इसमें आल्हा का उल्लेख बिकौरा-प्रमुख अल्हन देव के नाम से हुआ है। मदनपुर में आज भी 67 एकड़ की एक झील है। इसे मदनपुर तालाब भी कहते हैं। इसके पास ही बारादरी बनी है। यह बारादली आल्हा-ऊदल की कचहरी के नाम से प्रसिद्ध है। इस बारादरी और झील को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है।
पृथ्वीराज रासौ में भी चन्द्रवरदाई ने आल्हा को अल्हनदेव शब्द से सम्बोधित किया है। उस काल में बिकौरा गाँवों का समूह था। आज भी बिकौरा गाँव मौजूद है। इसमें 11वीं और 12वीं शताब्दी की इमारते हैं। इससे प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज चौहान के हाथों पराजित होने से चार साल पहले महोबा के राजा परमाल ने आल्हा को बिकौरा का प्रशासन प्रमुख बनाया था। यह गाँव मदनपुर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा दो गाँवों में विभक्त है। एक को बड़ा बिकौरा तथा दूसरे को छोटा बिकौरा कहा जाता है। महोबा में भी 11वीं और 12वीं शताब्दी के ऐसे अनेक भवन मौजूद हैं जोकि आल्हा-ऊदल की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। इसी तरह सिरसागढ़ मे मलखान की पत्नी का चबूतरा भी एक ऐतिहासिक प्रमाण है। यह चबूतरा मलखान की पत्नी गजमोदनी के सती-स्थल पर बना है। पृथ्वीराज चौहान के साथ परमाल राजा की पहली लड़ाई सिरसागढ़ में ही हुई थी। इसमें मलखान को पृथ्वीराज ने मार दिया था। यहीं उनकी पत्नी सती हो गई थी। सती गजमोदिनी की मान्यता इतनी अधिक है कि उक्त क्षेत्र मे गाये जाने वाले मंगलाचरण में पहले सती की वन्दना की जाती है।आल्हा ऊदल की ऐतिहासिकता की पुष्टि पन्ना के अभिलेखों में सुरक्षित एक पत्र से भी होती है। यह पत्र महाराजा छत्रसाल ने अपने पुत्र जगतराज को लिखा था। आल्हा के किले को भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है। आल्हा की लाट, मनियादेव का मन्दिर, आल्हा की सांग आज भी मौजूद हैं। इन्हें भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मान्यता दी है।
प्रगतिशील विचारधारा:- आल्हा के उदय से बारहवीं शताब्दी में प्रगतिशील राष्ट्रीय विचारधारा अंकुरित हुई। जिसने जातिगत, वर्णगत, वर्गगत, भेदभाव तथा ऊँच नीच की विषमता मूलक प्रवृत्तियों पर घोर कुठाराघात किया। भाई चारे और विश्वबंधुत्व की भावनाओं का संचार जनमानस में किया। आल्हा-ऊदल सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष के आदि प्रणेता माने गये। जाति मान, प्रतिज्ञा पालन, शरणागत वत्सलता, साधु-सती और स्त्रियों की रक्षा जन-सेवा आदि के लिए बलिदान करने-जैसी उदात्त भावना के वे आगार थे। आल्हा-ऊदल के पद और प्रभाव की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता राष्ट्र की सीमाओं से भी परे है। आल्हा हमारे इतिहास की हुंकार हैं। भारतीय इतिहास और संस्कृति के निष्कलंक महानायक और मानवीय आदर्शों के प्रतीक हैं। आल्हा-ऊदल अपनी वीरता की आदर्श ऊँचाई के कारण समाज की शक्ति चेतना के स्फूर्ति केंद्र हैं, जिनकी जीवनी शक्ति लोक की जीवनी शक्ति बन गयी है। कितने युग बीत गये परंतु आज का लोक भी उनसे प्रेरणा पाकर अपने अंदर फूटती ओजस्विता महसूस करता है। आल्हा-ऊदल ने अपनी त्याग और बलिदान की गौरवगाथा से जो इतिहास रचा, उसे संपूर्ण महाकौशल और बुंदेलखंड गर्वित है। आवश्यकता है हम भी उन जैसी वीरता, स्वाभिमान और दृढ़ इच्छा शक्ति की भावना से सराबोर हों। उनके प्रति अपनी कृतज्ञता का इजहार करें। आल्हा का चरित्र प्रेरित करता है कि देश जाति व समाज की उन्नति व प्रगति हेतु हम आपस में कंधे से कंधा मिलाकर चलें। सामंती युग में जनतांत्रिक प्रवृत्ति का अनुसरण आल्हा के व्यकित्तव की विशेषता थी। ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय रक्षा के महत्व को छत्रपति शिवाजी से पूर्व किसी ने समझा था, तो वे आल्हा ही थे। उनकी नीति रही है कि चंदेल तथा दिल्ली राज्य सहित देश के सभी राज्यों की सामरिक शक्ति को बचाये रख उसका उपयोग यवन आक्रमणकारियों के विरूद्ध संगठित रूप से किया जाए। आल्हा ने देश की बिखरी हुई शक्तियों को मैत्री और प्रेम के द्वारा अपनी उदार प्रवृत्ति का परिचय देते हुए एकता के सूत्र में बाँधने प्रयास किया। यह निश्चित था कि वे अपनी नीति में कामयाब हो जाते तो देश का भौगोलिक, राजनीतिक, व सांस्कृतिक परिदृश्य ही आज कुछ और होता।
व्यक्तिगत जीवन:- महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। यहाँ कोई भी सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। आल्ह खंड में कहा गया है कि- जाके बैरी सम्मुख ठाडे, ताके जीवन को धिक्कार। आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप हैं। आल्हा गायक इन्हें धर्मराज का अवतार बताता है। कहते है कि इनको युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था। इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमाल के यहाँ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहनें देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदान मिला था। युद्ध में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेष-योग्यता थी। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इनका विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी निकला।
एक अजेय योद्धा:- आल्हा को छोड़कर विश्व में शायद ही ऐसा कोई इतिहास पुरूष महानायक हो, जिसने अपने जीवन में 52 लड़ाइयाँ लड़ी हों, और उन सभी में अजेय रहे हों। यवन आक्रमणकारियों और पठानों को युद्ध में आल्हा से मुँह की खानी पड़ी। एक अजेय योद्धा के रूप में आज भी उनकी यशपताका ज्यों की त्यों है। उनका दिव्य चरित्र महतो-महीयान है। यही कारण है कि उनकी अमर गौरव-गाथा सुनने और सुनाने में गर्व की बात मानी जाती है। आल्हा जहाँ सच्चे मातृ-भक्त थे, राष्ट्रभक्त थे, स्वामी भक्त थे, वहाँ वे सच्चे सेवक भी थे। आज भी वे राष्ट्रीय-चेतना और जन-चेतना के केंद्र हैं। उनके द्वारा स्थापित परंपराएँ भारतीय मनीषा की मार्गदर्शक हैं। मर्यादा और मान्यताएँ जनता के पथ प्रदर्शक हैं। चिंतकों और विचारकों का मत है कि जिस आल्हा ने अपने युग में राष्ट्रीय और सामाजिक क्षेत्र में आदर्श कीर्तिमान स्थापित किए हों, समान व राष्ट्र को प्रभावित किया हो, जो जन-जन का चहेता महानायक रहा हो। जिसने राष्ट्र व समाज का मान बढ़ाया हो, राष्ट्रीय गौरव और गरिमा के भाव जिसने विकसित किये हों, जो दलित और शोषित-पीड़ितों का मसीहा तथा उद्धारक रहा हो, समता मूलक समाज की रचना में जिसका जीवन समर्पित रहा हो, और जिसके लिए उसने जीवन न्यौछावर किया हो, क्या हमारी यह सोच न हो कि एक उत्तरदायी जन के नाते उसके गुणों के संबंध में अपना मौन तोड़ें, इतिहास में उसके राष्ट्रीय व सामाजिक योगदान का समावेश करें।
आध्यात्मिक रूप:- आल्हा एवं तपोभूमि का संबंध-देव-पुरुषों महापुरुषों से संबद्ध स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है। जैसे अयोध्या श्री राम के जन्म के कारण, कंस का कारागार मथुरा, श्रीकृष्ण के जन्म के कारण, बोध गया बिहार, भगवान बुद्ध को बोधत्व प्राप्त होने के कारण इत्यादि। आल्हा के संबंध से म.प्र. देश के सतना जिलांतर्गत मैहर का महत्व इसलिए है कि आल्हा ने यहाँ देवी शारदा की 12 वर्ष तक घोर तपस्या की थी और देवी से अमर होने का वरदान पाया था। कहा जाता है कि देवी उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देती थीं। अपना शीश काटकर आल्हा ने इसी स्थान में देवी को भेंट किया था। ऐसा लोक विश्वास है, जनश्रुति यह भी है कि आल्हा आज भी प्रतिदिन देवी की पूजा अर्चना करने आते हैं। शारदा देवी के दर्शन करने जो श्रद्धालु अथवा दर्शनार्थी आते हैं, आल्हा का स्मरण और चर्चा किये बिना नहीं रहते। भगवान का महत्व उसके भक्त के कारण है। उसी प्रकार आल्हा का महत्व जहाँ देवी शारदा के कारण है, वहीं देवी शारदा का महत्व भी उसके अनन्य भक्त आल्हा के कारण है। माँ शारदा को आल्हा से और आल्हा को देवी शारदा से पृथक कर नहीं सोचा जा सकता। शारदा की जहाँ चर्चा होगी, आवश्यक रूप से आल्हा का भी स्मरण होगा। यही बात आल्हा के संबंध में कही जा सकती है। इस दृष्टि से विचार किया जाए तो आल्हा का मैहर और तपोभूमि से ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक संबंध है।
ये सब बातें यह कर्तव्य-बोध देती है कि आल्हा तपोभूमि में माँ भगवती शारदा के आँचल में उसके पुत्र को निरंतर याद किया जाए। यहाँ विगत अनेक वर्षों से 25 मई को राष्ट्रीय स्तर पर आल्हा जयंती का आयोजन किया जा रहा है। देवी शारदा और आल्हा का संबंध ऐसा है, जैसा भगवती सीता और मातृभक्त हनुमान का है। देखा गया है कि जहाँ भगवान श्रीराम के साथ सीताजी विराजमान हैं, हनुमान भी वही प्रतिष्ठित हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर मैहर में आल्हा की मूर्ति श्री माँ के चरणों के निकट स्थापित की गई है। आल्हा की वह तपोभूमि जिसमें आल्हा ने 12 वर्ष तक कठिन तपस्या की हो और देवी से अमर होने का वरदान पाया हो, उसका प्रत्येक कण, उसकी रज पवित्र है।

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