आमिर का अपने बयान पर कायम होने का अर्थ

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aamirडॉ. निवेदिता शर्मा

आखिर दो दिन के अंतराल के बाद आमिर खान ने अपने बयान पर सफाई दी है, पर अभी भी वे इस बात पर डटे हुए हैं कि देश में असहिष्णुता का माहौल कायम है या बढ़ रहा है। इस पर हद तो यह है कि उनके समर्थन में संगीतकार ए.आर. रहमान से लेकर तमाम नेता व अन्य कुछ नामी हस्तियां भी खड़ी नजर आ रही हैं। अपनी सफाई में भी आमिर ने यह कह दिया है कि विरोध करने वाले लोगों ने मेरे बयान पर मोहर लगा दी। आमिर, अपने इस बयान से सीधे तौर पर कहना चाह रहे हैं कि वे इस देश के बारे में कुछ भी कहेंगे और देश के लोग उसका विरोध भी न करें। क्यों कि विरोध करने का और देश की स्थिति का ब्यौरा देने का जिम्मा हम जैसे कुछ लोगों और तथाकथित पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों को ही है।

वास्तव में यदि आमिर जैसे उन तमाम लोगों ने जो इन दिनों असहिष्णुता का राग अलाप रहे हैं सही में असहिष्णुता झेली होती तो देश का कोई भी हिन्दू निर्देशक आमिर के साथ फिल्म नहीं बनाता, न ही आमिर की तरह इन दिनों असहिष्णुता की बीन बजा रहे अन्य लोगों को यश और आर्थिक मदद मिलती। ए. आर. रहमान को भी अपने दो शो रद्द होने के कारण देश में असहिष्णुता नजर आ रही है। वास्तव में इन सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस प्रकार आतंकवादियों के कारण पूरे इस्लाम को बदनाम नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार कुछ लोगों के कारण देश की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।

जरा इस घटना पर भी गौर करें, भोपाल रेलवे स्टेशन पर भोला नाम से एक चाय-नाश्ते के ठेले का संचालन किया जाता है, इस पर एम.आई.एम. नेता असुद्दीन औबेसी के स्वागत के लिए कुछ लोगों ने पोस्टर चिपका दिए थे। ठेला संचालक को यह पोस्टर रास नहीं आए और उसने इन पोस्टर्स को फाड़ दिया, तब मुस्लिम सम्प्रदाय की एक भीड़ ने आकर उसकी जमकर पिटाई की। ठेला उसकी रोजी रोटी का साधन है और वह उसका मालिक है, लेकिन उस पर क्या चिपकाना है और क्या नहीं, इसका हक तक वह हिन्दू नहीं रखता है।

यह घटना मध्यप्रदेश की राजधानी की है, जहां कि हिन्दू बहुसंख्यक हैं। फिर भी किसी नेता या समाज के ठेकेदार ने यह नहीं कहा कि यह एक वर्ग विशेष की ठसक के साथ जारी असहिष्णुता है। वहीं असहिष्णुता के नाम पर पूरे देश में एक वर्ग विशेष के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है और यहां तक कहा जा रहा है कि यदि आमिर खान को भय है तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि उनके भय का समाधान कैसे किया जा सकता है। जबकि हकीकत यही है कि इस देश के तमाम आमिर जैसे एक वर्ग विशेष के लोग करोड़पति नहीं अरबपति बन चुके हैं। आज देश में असहिष्णुता आमिर और उनकी बात का समर्थन करने वालों को ही नजर आती है, लेकिन उस ठेले वाले को नहीं, जिसके साथ अभी-अभी घटना घटी है।

पूर्वोत्तर भारत के राज्य असम में बोडो जनजाति एक लम्बे समय से बांग्लादेशी घुसपैठियों के द्वारा हो रही हिंसा को झेल रहे हैं पर न तो उन्होंने कहा, देश में असहिष्णुता बढ़ रही है और न ही उनके समर्थन में किसी ने कहा कि देश में असहिष्णुता का माहौल है। 23 मार्च 2003 पुलामा नादीमार्ग जम्मू कश्मीर में एक साथ एक लाईन में खड़ा करके 24 कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया, जिसमें 11 पुरुष और 11 महिलाएं और 2 पांच साल से कम आयु के बच्चे थे और जो बच गए वो भय के साए में अपने आलीशान मकानों को छोड़कर चले गए। आज किसी को पता नहीं है कि वे कहां गए, पर तब भी उन कश्मीरी पंडितों ने नहीं कहा कि देश में असहिष्णुता का माहौल है।

26/11 सभी को याद होगा ही, इस दिन मुंबई में कई लाशें देखने को मिली, तब भी देश में सहिष्णुता का माहौल था, फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया है कि देश में असहिष्णुता का बोलबाला है। तब यहां जरूर इसके मायने तलाशने होंगे जिसका कि माध्यम आज दादरी है। असल में रूस, ब्रिटेन, अमेरिका द्वारा सीरिया और अन्य आई.एस.आई.एस. के ठिकानों वाले देशों पर हो रही सैन्य कार्रवाही का यह दर्द सामने आ रहा है। बताना होगा कि इस देश में यह पहली बार नहीं हो रहा है। ब्रिटिश शासनकाल में जब तुर्की के खलीफा के विरोध में ब्रिटेन ने सैन्य कार्रवाही की, तब इस देश के मुस्लिम वर्ग ने खलीफा की ताजपोशी के लिए इस पूरे देश को खिलाफत आंदोलन की आग में झोंक दिया था। जिससे न तो इस देश के मुसलमानों और न ही हिन्दुओं का कुछ लेना देना था।

इसकी विफलता के बाद मौलवियों ने भोली-भाली मुस्लिम जनता को यह कहकर भ्रमित किया कि भारत दारुल हरब अर्थात एक युद्धरत देश है और हमारी कुरान कहती है कि हमें इस देश में एक दिन भी नहीं टिकना चाहिए बल्कि हिजरत करनी चाहिए। गांधीजी के दाहिने हाथ मौहम्मद अली ने भारत को दारुल हरब कहा तो वहीं मौलाना अब्दुल वारी ने हिजरत के लिए फतवा जारी कर दिया और लगभग 20 हजार गरीब अनपढ़ मुसलिम जो अपने नेताओं पर अटूट विश्वास करते थे अपनी पैतृक सम्पत्ति छोड़कर अफगानिस्तान गए, लेकिन यह उनके लिए भयावह श्मशान की कालीरात साबित हुई। अफगानों ने धर्म के नाम पर समान लेकिन उन सभी भारतीय मुसलमानों को सीमा पर ही रोककर लूट लिया और वापस भगा दिया। जब वह वापस लौटे तो वह असहाय और बेघरवार थे। मुसलमानों की इस दयनीय स्थिति का वर्णन जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक भारत एक खोज में भी किया है।

इस आंदोलन के ठप होने के बावजूद केरल के स्थानीय मुसलमान मोपलाओं के बीच यह प्रचारित किया गया कि खिलाफत आंदोलन सफल हो गया है और खिलाफत फिर से स्थापित हो गई है। अब समय आ गया है कि काफिरों को समाप्त करके दारुल इस्लाम की स्थापना कर दी जाए। इस प्रचार ने मोपला कट्टरपंथियों को भड़काया और जिहाद की घोषणा की। यहां हुए दंगों की भयावहता का अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि 2 हजार 266 दंगाई मारे गए। 1 हजार 615 घायल हुए, 5 हजार 688 बंदी बनाए गए और 38 हजार 656 ने आत्म-सर्मपण किया। अंग्रेजों से हारने के बाद कुंठित मोपलों ने हिन्दुओं पर अपना पूरा कहर बरसाया, क्यों कि उनके लिए हिन्दू भी काफिर थे। भारत सेवक समिति की जांच रिपोर्ट के अनुसार इसमें 1500 से अधिक हिन्दुओं को मार दिया गया। 20 हजार हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाया गया तथा लगभग 3 करोड़ की सम्पत्ति लूटी गई। जिसकी वर्तमान कीमत खरबों रुपए है। हिन्दू महिलाओं के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया, उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं जिसका उल्लेख डॉ. ऐनी बेसेन्ट ने द फ्यूचर ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स में किया है।

पहले मोपला में ब्रिटिश महिलाओं पर अत्याचार किए गए और जब इसकी कार्रवाही में कई मुस्लिमों को फांसी दी गई तो इसका कहर हिन्दुओं पर टूटा, अहिंसा के पुजारी गांधी जी ने इसका समर्थन यह कहकर किया कि उन्होंने जो भी किया वह उनके धर्म के अनुसार है और यह उनके आक्रोश को प्रकट करने का रूप है। गांधीजी यही नहीं रुके, उन्होंने यहां तक कहा था कि ‘‘वे धर्मभीरू वीर लोग हैं, जो उसके लिए युद्ध कर रहे हैं जो उनके विचार में धर्म है और उस रीति से युद्ध कर रहे हैं, जो उनके विचार में धर्म सम्मत है।’’ खिलाफत आंदोलन के समर्थन में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाया, जिसमें कि बाद में स्वराज्य प्राप्ति को जोड़ा गया। असहयोग आंदोलन के रूप में गांधीजी ने भी अपने सारे सम्मान और पुरस्कार जो कि ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें दिए गए थे वापस कर दिए थे। विदेशी वस्त्रों की होली न जलाकर अपने मुस्लिम भाईयों के कहने पर उन वस्त्रों को तुर्की भिजवाया गया।

यहां इस घटना को उल्लेखित करने का आशय यह है कि यह असहिष्णुता पहले भी इस देश में दूसरों के कारण फन उठा चुकी है और उसका परिणाम पाकिस्तान के रूप में हमारे सामने है। आज यदि फिर से वही नीति अपनाई गई तो देश में एक और पाकिस्तान नहीं बनेगा बल्कि उसकी जगह देश साम्प्रदायिकता की आग में जल उठेगा, जिसमें कि सबसे ज्यादा नुकसान हमेशा की तरह बहुसंख्यक होने के बाद भी हिन्दुओं का ही होगा। क्यों कि इस देश का बहुसंख्यक समाज यह मानता है कि पूजा पद्धति कोई भी हो, सभी ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग हैं। दूसरा यह कि वह अपने से ज्यादा दूसरे के विचार की कद्र करता है। यह बात कहने का पुख्ता आधार यह भी है कि यदि वह अपने विचार को ही सर्वोपरि मानता तो कभी इस देश में हिन्दू के अलावा कोई दूसरा धर्म आ पाता यह सपने भी नहीं सोचा जा सकता है।

आज भारत में जो असहिष्णुता की बात कर रहे हैं उन्हें फ्रांस से सीखना चाहिए। फ्रांस में मस्जिदों को गिराने के आदेश देने के बावजूद किसी व्यक्ति या अखबार ने यह नहीं कहा कि देश में असहिष्णुता है यहां इस गंगा-जमुना संस्कृति वाले देश में चेन से जिंदगी गुजारने वाले ए.सी. कमरों में बैठकर बयान दे रहे हैं कि देश असहिष्णुता की राह पर चल पड़ा है। यहां लोगों को केवल अपने संवाद के माध्यम से देश विरोधी ताकतों का विरोध करना भी असहिष्णुता नजर आ रहा है। कुछ लेखक अभी भी आमिर खान के बयान को यह कहकर सही ठहरा रहे हैं कि देश के लोगों ने स्नेपडील के ऑर्डर केंसिल करके उनके घर के बाहर प्रदर्शन कर उनकी फिल्मों को न देखने का संकल्प लेकर असहिष्णुता का परिचय दिया है। उन सभी लेखकों व इसी प्रकार के सभी लोगों से यही गुजारिश है कि फुरसत निकालकर जरा अपना इतिहास उठाकर भी पड़ लें। उन्हें उनके सभी उत्तर मिल जाएंगे।

आज हम सभी इन देशद्रोही ताकतों से दो-दो हाथ करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन इनकी कमर केवल इसी प्रकार के आर्थिक प्रहारों के द्वारा तोड़ी जा सकती है। इन्हीं सकारात्मक विरोध माध्यमों से इन्हें यह अहसास कराया जा सकता है कि आप हीरो अपने कारण नहीं इस देश की आम जनता के कारण हैं जो ब्लैक में टिकिट लेकर भी आपकी फिल्मों को सुपरहिट बनाती है। साथ में यह भी कहना होगा कि किरण राव की तरह आज हर भारतीय कह सकता है कि हमें जागते-सोते यह डर लगता है कि कहीं आई.एस.आई.एस. के आतंकवादी हम पर हमला न कर दें, क्यों कि कहने में क्या लगता है, मुंह तो चलाना ही है।

मतलब बिल्कुल साफ है यदि हमारा देश असहिष्णुता की ओर बढ़ रहा है, कुछ देर के लिए यह मान भी लिया जाए और यदि देश का बहुसंख्यक वर्ग यह कहे तो रजा मुराद, शाहरुख, आमिर, वह तमाम नेता और अभिनेता, साहित्कार क्या हमसे पूछने आएंगे कि हमें डर क्यों लग रहा है और क्या हमारे डर का समाधान करेंगे? यह आश्वासन देंगे कि भारत में कभी मोपला नहीं दोहराया जाएगा, जहां 20 से 40 प्रतिशत मुस्लिमों की संख्या पहुंच गई है, वहां वे हिन्दू भाईयों को अपने कारण से असहिष्णुता से दो-चार नहीं होने देंगे? जबकि वर्तमान हकीकत यही है कि देश में पूवोत्तर से लेकर जहां भी मुस्लिमों की संख्या बढ़ी है, हर रोज हिन्दुओं को सरेआम पीटा जा रहा है। उनकी सहिष्णुता को भीरुता और कायरता का नाम दिया जाता है, यदि वे विरोध के लिए सामुहिक प्रयास करते हैं या उनके लिए विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू जागरण मंच, हिन्दू मुन्नानी जैसे संगठन आवाज उठाते हैं तो तमाम मीडिया और नेता उन पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने के लिए सबसे आगे खड़े रहते हैं। वे यहीं नहीं रुकते, कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल व अध्यक्ष सोनिया गांधी से लेकर समाजवादी के नेता, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू, जेडीयू नेता नीतीश कुमार, शरद यादव समेत अनेक पार्टियां और उनके नेताओं को उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका नजर आने लगती है। ऐसे सभी मामलों में देशभर में मीडिया इस प्रकार का स्यापा करती नजर आती है कि मानो देश का अल्पसंख्यक खतरे में है। हिन्दू ही बदमाश है, और यह अतिवादी हिन्दू संगठन छोटी-छोटी घटनाओं को बेवजह बड़ा तूल देते हैं। आज के समय में आमिर से लेकर उनका समर्थन करने वाले सभी लोगों को इन बातों पर भी विचार जरूर करना चाहिए । नहीं तो यही माना जाएगा कि वे अपने देश के बहुसंख्यक समाज के प्रति तथा देश भक्ति के प्रति सहिष्णु नहीं हैं।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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