आरक्षण की समीक्षा से कौन डरता है?

reservationइक़बाल हिंदुस्तानी
रोज़गार और ग़रीबी से रिज़र्वेशन का सीधा रिश्ता नहीं है!
आर एस एस प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा करने की बात कही थी लेकिन बिहार चुनाव सामने होने की वजह से सियासी फायदा नुकसान देख कर नेताओं ने इसको चुनावी मुद्दा बना दिया गया। नतीजा यह हुआ खुद भाजपा को भी सफाई देनी पड़ गयी। हालांकि संघ प्रमुख ने यह कभी नहीं कहा कि आरक्षण ख़त्म कर दिया जाये लेकिन जो लोग आरक्षण की राजनीति कर रहे हैं वे जानते हैं कि अगर आरक्षण की समीक्षा हो गयी तो यह सच सामने आ जायेगा कि आरक्षण जिस मकसद से शुरू किया गया था वह आज तक पूरा नहीं हो सका है। हालांकि रिज़र्वेशन शुरू में मात्र 10 साल के लिये दिया गया था लेकिन आज यह 67 साल बाद भी अपना मकसद पूरा नहीं कर सका है। अगर आरक्षण की समीक्षा होगी तो यह कारण भी सामने आ सकता है कि ऐसा क्यों हुआ ?
लेकिन आरक्षण की समीक्षा करने का विरोध करने वाले जानते हैं कि फिर यह सवाल भी उठेगा कि आज तक आरक्षण अपना लक्ष्य पूरा क्यों नहीं कर सका? जिन लोगों को यह भ्रम है कि अगर आरक्षण ख़त्म हो जाये तो उनको रोज़गार मिल सकता है यह उनकी भूल है क्योंकि ऐसा करने से केवल सरकारी रोज़गार का आधा हिस्सा ही उनके हिस्से में और आ सकता है आधा तो पहले ही सबके लिये खुला है। हर साल निकलने वाली ऐसी सरकारी नौकरियां तीन लाख से अधिक नहीं होंगी जिससे केवल डेढ़ लाख लोग ही यह मान सकते हैं कि उनको 50 प्रतिशत अवसर अधिक मिलेंगे लेकिन ऐसा करने पर यह भी ज़रूरी नहीं कि आरक्षित कोटे के लोग मैरिट पर सरकारी सेवाओं से पूरी तरह बाहर हो जायेंगे बल्कि उनमें से एक बड़ी तादाद तो आज भी जनरल कोटे में अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर सरकारी सेवाओं में चुनी जाती रही है।
यही हालत कमोबेश शिक्षण संस्थाओं की रहेगी। सामान्य वर्ग के कुल बेरोज़गार और छात्रों को इससे पांच प्रतिशत भी लाभ नहीं मिल पायेगा। कुछ लोग आरक्षण के कारण अयोग्यता और भ्रष्टाचार बढ़ने का दावा करते हैं उनकी आंखे खोलने को एक सर्वे की चर्चा यहां करना ज़रूरी है। इसका उल्लेख भाजपा सांसद और एससी एसटी संगठनों के महासंघ के अध्यक्ष वरिष्ठ दलित नेता उदित राज ने अपने एक लेख में भी किया है। मिशिगन यूनिवर्सिटी में इकोनोमिक के प्रोफेसर थॉमस विसकाफ और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे ने दलितों और आदिवासियों को रेलवे में 1980 से 2002 तक मिले रोज़गार के बाद की हालत पर रिसर्च किया। इस अध्ययन से पता चला कि आरक्षण के बल पर ही रेलवे के ग्रुप ए और बी में आरक्षित जातियों को पहंुचने का अवसर मिल सका है।
सबसे रोचक तथ्य यह सामने आया कि जिन ज़ोनों में सबसे अधिक और सबसे कम आरक्षित श्रेणी के कर्मचारी और अधिकारी काम कर रहे थे जब उनकी कार्यक्षमता और उत्पादकता की जांच की गयी तो न केवल कोई विशेष अंतर सामने नहीं आया बल्कि सर्वे करने वालों को यह देखकर हैरत हुयी उल्टे जिन ज़ोन में दलित कर्मचारियों की तादाद ज़्यादा थी उनमें से कुछ में सामान्य वर्ग के बाहुल्य वाले ज़ोन के मुकाबले उत्पादकता अधिक बढ़ी थी। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब देश के अधिकांश उच्च संस्थानों जैसे आईआईटी और विश्वविद्यालयों में उच्च जाति के ही लोग विराजमान हैं तो भी देश में रिसर्च और तकनीक का स्तर क्यों नहीं उठा? भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी विश्व की 300 प्रमुख यूनिवर्सिटी में शामिल क्यों नहीं हो सकी हैं ? ऐसे ही उच्च न्यायपालिका में आरक्षण नहीं है जिससे इनके उच्च पदों पर अधिकांश उच्च जातियों का ही कब्ज़ा है फिर भी इन पर उंगली क्यों उठती हैं ?
खुद सुप्रीम कोर्ट के जज रहे काटजू और सीनियर एडवोकेट शांति भूषण क्यों कहते हैं कि न्यायपालिका के 50 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं ? इतना ही नहीं भारत सरकार के 150 सचिवों में से दो चार ही आरक्षित वर्ग के होंगे फिर भी सरकारी मशीनरी में कितना भाई भतीजावाद भ्रष्टाचार जातिवाद पक्षपात और नाकारापन है यह किसी से छिपा नहीं है इससे यह भी पता चलता है कि अगर आरक्षण न हो तो हमारे यहां दलितों पिछड़ों और आदिवासियों को निजी क्षेत्र की तो बात ही मत कीजिये खुद सरकार कितना हिस्सा दे रही है ? जब इन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है तो फिर भी ये बुराइयां क्यों पनप रही हैं? कुछ लोग आरक्षण आर्थिक आधार पर किये जाने की मांग करते रहे हैं लेकिन वे भूल जाते हैं कि आरक्षण सामाजिक बराबरी के लिये दिया गया है ना कि गरीबी दूर करने के लिये। जातीय पूर्वाग्रह आज भी हमारे समाज में बड़े स्तर पर मौजूद है।
जो लोग आरक्षण से देश के कमज़ोर होने का राग अलापते हैं उनको इस सवाल का जवाब भी देना चाहिये कि जब देश में आरक्षण नहीं था तब देश गुलाम क्यों और कैसे बन गया? इसके पीछे एक वजह यह भी थी जिन लोगों के साथ जाति की वजह से पक्षपात होता था उन्होंने देश को गुलामी से बचाने के लिये समाज से अलग थलग होने के कारण और नाराज़ होकर कोई सक्रिय विरोध अंग्रेज़ों और मुस्लिम शासकों का नहीं किया। इतने बड़े वर्ग की क्रयशक्ति कम या ना के बराबर होने से देश को भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ। जो लोग बार बार आरक्षण में क्रीमी लेयर की आय सीमा बढ़ाने का विरोध करते हैं उनको लगता है कि ऐसा करने से वे आरक्षित वर्ग के गरीब लोगों को आगे आने का रास्ता दे सकते हैं जबकि आरक्षण का मूल सामाजिक गैर बराबरी और पक्षपात ख़त्म करना था ना कि गरीबी या बेरोज़गारी। इसका एकमात्र हल यही है कि सरकार सर्वसमावेशी विकास की तरफ बढ़ते हुए लोगों के बीच आय में लगातार बढ़ रही खाई को कम करने का प्रयास शुरू करे नहीं तो आरक्षण विरोधी पटेल आंदोलन आगे बढ़ेगा। संघ प्रमुख के आरक्षण का मुद्दा बिहार के चुनाव के वक्त उठाने पर तो यह शेर याद आ रहा है।
कौन सी बात कहां कैसे कही जाती है,
यह सलीक़ा हो ता हर बात सुन जाती है।।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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