अभिनव गुप्त की आहट और रविशंकर की ललकार

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

बेंगलुरू में दो दिन श्री श्री रविशंकर जी के अन्तर्राष्ट्रीय आश्रम में ६-७ जनवरी को ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ । आश्रम में अभिनवगुप्त सहस्रावदी समारोहों का समापन कार्यक्रम था । अभिनव गुप्त दार्शनिक , तान्त्रिक, काव्यशास्त्र के आचार्य, संगीतज्ञ, कवि, नाट्यशास्त्र के मर्मज्ञ , तर्कशास्त्री, योगी और औघड क़िस्म के भक्त थे । उन्होंने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर भाष्य लिखा जो साहित्य जगत में प्रसिद्ध है । बुद्ध के तर्कशास्त्री का प्रयोग उन्होंने त्रिक दर्शन की व्याख्या में प्रयोग किया । लेकिन जैसे जैसे कश्मीर घाटी में इस्लाम के प्रसार के के कारण मतान्तरण होता गया वैसे वैसे कश्मीर के लोग शायद अपने इस बहुआयामी सपूत को भूलते गए । अभिनव गुप्त देश भर में दार्शनिकों और काव्यशास्त्रियो के शास्त्रार्थों में तो ज़िन्दा रहे लेकिन कश्मीरियों की स्मृति में से लोप होते गए । लेकिन पिछले दस पन्द्रह सालों से कश्मीरी युवा पीढ़ी में , जिनके पूर्वज मतान्तरित हो गए थे , अपनी मूल संस्कृति को जानने और अपने पूर्वजों को पहचानने की चाह जगी है । उसका एक कारण शायद मुसलमान युवकों में शिक्षा का होता प्रचार प्रसार भी हो सकता है । युवा पीढी में इसे कश्मीर का सांस्कृतिक पुनर्जागरण कहा जा रहा है । अभिनव गुप्त एक हज़ार पहले भैरव स्तोत्र गाते हुए जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के समीप की एक पहाड़ी पर बनी गुफ़ा में समा गए थे । श्रीनगर का आम निवासी ,चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान , इसको समाना नहीं कहता बल्कि उनकी शब्दावली में शिव में लीन हो गए थे । िकसी पूँजीपति ने वह पहाड़ी लीज़ पर लेकर उसे समतल करना शुरु कर दिया । स्वभाविक है पूँजीपतियों द्वारा इस प्रकार के ऐतिहासिक स्थान को नष्ट किए जाने के इस प्रयास के प्रति युवा पीढ़ी में आक्रोश उत्पन्न होता । इसी आक्रोश के चलते मामला राज्य के उच्च न्यायालय में पहुँचा और अभिनवगुप्त की उस गुफ़ा को नष्ट किए जाने के ख़िलाफ़ रोक लग गई । स्वभाविक ही केवल शैव भक्तों में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देशवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती । हुआ भी ऐसा ही । देश भर में अभिनव गुप्त के शिवलीन होने के एक हज़ार साल पूरे हो जाने के उपलक्ष्य में स्थान स्थान पर कार्यक्रम हुए । विचार गोष्ठियाँ हुईं । दसवीं शताब्दी के अभिनवगुप्त को इक्कीसवीं सदी में याद किया जा रहा है , इससे ही उनके प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है । गोवा से श्रीनगर तक अभिनव गुप्त यात्रा भी निकाली गई । गोवा से यह यात्रा शुरु करने का भी एक विशेष कारण था । कश्मीरी लोग , जो हिन्दू हैं वे भी और उनमें से जो इस्लाम में मतान्तरित हो गए हैं वे भी , सारस्वत वंश के माने जाते हैं और कोंकण या गोवा के ब्राह्मण भी सारस्वत ही हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विजय दशमी के अवसर पर हर साल नागपुर में होने वाली सार्वजनिक सभा में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी पिछले साल अपने सम्बोधन में अभिनवगुप्त का उल्लेख किया था । अभिनव गुप्त को लेकर किए जा रहे इन समस्त कार्यक्रमों के समन्वय के लिए बनी समिति के अध्यक्ष श्री श्री रवि शंकर ही थे । रवि शंकर अभिनवगुप्त यात्रा के मामले में श्रीनगर भी गए थे और वहाँ खीर भवानी मंदिर में एक बड़ा कार्यक्रम भी हुआ था । इसलिए उचित ही था कि अभिनवगुप्त समारोहों का समापन रविशंकर के आश्रम में ही होता । श्री श्री रवि शंकर ने अपने उदबोधन में वर्तमान युग में अभिनवगुप्त की प्रासांगिकता की चर्चा की । रविशंकर के इस कार्यक्रम को अस्सी देशों में प्रसारित किया जा रहा था । रविशंकर ने कहा कि कश्मीर में जो उलझनें हैं , उनका समाधान अभिनवगुप्त के रास्ते से भी हो सकता है ।
मुझे लगता है कि रविशंकर की इस बात में बहुत सार है । कश्मीरियत की आज बहुत चर्चा होती रहती है , दुर्भाग्य से उस कश्मीरियत की पहचान वे लोग बता रहे हैं जिनका ख़ुद कश्मीर से कुछ लेना देना नहीं है । वे ख़ुद गिलान, खुरासान, करमान और हमदान से आए हुए हैं । वे कश्मीरियों पर रौब ही नहीं गाँठ रहे बल्कि उनके मार्गदर्शक होने का दंभ भी पाल रहे हैं । कश्मीरियत की पहचान अभिनवगुप्त के बिना कैसे हो सकती है ? वही अभिनवगुप्त जो एक हज़ार साल पहले भैरव स्तोत्र गाते गाते शिवलीन हो गए थे । भैरवगुफा के रास्ते पर ही लल्लेश्वरी चल रही थी । नुंदऋषि के बिना कश्मीर को कैसे पहचाना जा सकता है ? अभिनवगुप्त , लल्लेश्वरी और नुंदऋषि की पहचान के लिए कश्मीरी दृष्टि चाहिए , गिलानी दृष्टि नहीं । कश्मीर का द्वन्द गिलानी दृष्टि और कश्मीरी दृष्टि का है । ध्यान रहे गिलानी यहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है । आज कश्मीर का सबसे बड़ा संकट यही है कि कश्मीर की व्याख्या वे लोग कर रहे हैं जिनका कश्मीर की विरासत से कोई ताल्लुक़ नहीं है । कश्मीर घाटी महज़ ज़मीन का टुकड़ा नहीं है , वह एक संस्कृति और एक दृष्टि है । वह नागभूमि है । गिलानियों को लगता है कि कश्मीरियों ने इबादत का एक अतिरिक्त तरीक़ा इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है , इससे उनकी मूल पहचान ही बदल गई है । कश्मीरी एक नहीं , इबादत के अनेक तरीक़ों को , बिना अपने मूल को छोड़े , एक साथ आत्मसात कर सकते हैं । यही तो कश्मीरियत है । यदि गिलानी सैकड़ों साल बाद भी अपनी मूल पहचान को छोड़ नहीं सके तो वे कैसे आशा करते हैं कि कश्मीरी केवल इसलिए अपनी मूल पहचान छोड़ देंगे , क्योंकि उन्होंने कुछ सीमा तक इस्लामी रीति रिवाजों को भी अपना लिया है । अभिनवगुप्त उसी का प्रतीक है । शायद यही कारण था कि कश्मीर घाटी में गिलानियों ने तो अभिनवगुप्त यात्रा का विरोध किया लेकिन आम कश्मीरी ने जगह जगह उसका स्वागत किया था । इसी सन्दर्भ में घाटी में अभिनवगुप्त यात्रा के दौरान एक कश्मीरी मुसलमान युवक ने प्रश्न किया था कि इबादत का तरीक़ा बदलने के लिए अपने पूर्वजों को छोडना जरुरी क्यों बताया जा रहा है ? यह प्रश्न अपने आप में कश्मीर घाटी में पुनर्जागरण की आहट देता है । गिलानियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । कश्मीर घाटी में एक बार पुनः एक हज़ार पहले के अभिनव गुप्त की पदचापों सुनाई देने लगी है । श्री श्री रविशंकर ने उस आहट को दुनिया भर में पहुँचा दिया । उनके आश्रम में मेरे दो दिन सार्थक हो गए ।

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