अभिशप्त

अभिशप्त
अभिशप्त
अभिशप्त

रात का था धुँधलका ,
सिर्फ़ तारों की छाँह ।
मैंने देखा –
मन्दिर से निकल कर एक छायामूर्ति
चली जा रही है विजन वन की ओर ।
आश्चर्यचकित मैंने पूछा,
” देवि ! आप कौन हैं ?
रात्रि के इस सुनसान प्रहर में
अकेली कहाँ जा रही हैं ? ”
*
वह चौंक गई, कुछ रुकी , बोली,
” मैं जा रही हूँ राम के वामांग से उठकर,
चिर दिन के लिये ,
क्योंकि विश्वास और सत्य प्रमाण-सापेक्ष नहीं होते ।
चेतनामयी नारी का स्थान ले ले सोने की मूरत,
मर्यादा का ये आचार ,
मैं वैदेही की चेतना छाया,
जड़ सी देखती रह गई !
अब मैं जा रही हूँ चिर दिन के लिये ।”
*
” अब इतने दिनों बाद ? आज ? ”
मेरे मुँह से निकल पड़ा ।
वह उदास सी मुस्कुरायी- बोली
” तुम आज देख पाई हो ।
मैं तो जा चुकी शताब्दियों पहले ,
सरयू अपार जलराशि बहा चुकी तब से ,
श्री-हत अयोध्या अभिशप्त है तभी से ।।”

डॉ. प्रतिभा सक्सेना

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डॉ. प्रतिभा सक्‍सेना
मध्यप्रदेश (भारत) में जन्मी डॉ. प्रतिभा सक्सेना आचार्य नरेन्द्रदेव स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय कानपुर ( उ.प्र.) में शिक्षण सेवा से १९९८ में सेवानिवृत्त। कविता , कहानी,लघुउपन्यास , लेख, वार्ता एवं रंगमंच के लिये नाटक,रूपक एवं गीति-नाट्य आदि का लेखन । रचनाएँ अन्तर्जाल पर कविता एवं गद्यकोष में संकलित। भारत, अमेरिका एवं अन्तर्जाल की हिन्दी की साहित्यिक विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।पुस्तकें: 1 सीमा के बंधन - कहानी संग्रह, 2. घर मेरा है - लघु-उपन्यास संग्रह .3. उत्तर कथा - खण्ड-काव्य सम्प्रति : आचार्य नरेन्द्रदेव स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कानपुर में शिक्षण. सन्‌ 1998 में रिटायर होकर, अधिकतर यू.एस.ए. में निवास

3 COMMENTS

  1. बहुत सुन्दर। क्या कहें? वास्तव में अयोध्या अभिशप्त होगी, अब राम भी कुटिया में रहने लगे हैं।

  2. बहुत सुन्दर –
    अभिशप्त है सरयू – तिल तिल बहने के लिए
    अभिशप्त है लंका – धू धू जलने के लिए …………..

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