अजीत कुमार सिंह
कुछ दिनों से देश में अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में जो गतिविधियां चल रही है। उससे भारत की राजनीति में एक बार फिर उथल-पुथल सा हो गया है। कहीं जेएनयू के छात्रों का विरोध तो कहीं उनके समर्थन की बातें गूंज रही है। लेकिन सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की सर्वोच्च संवैधानिक पीठ को चुनौती देना कहां तक उचित है?अपने देश के सरजमीं पर देश विरोधी नारे लगाना कौन सा सभ्य राष्ट्र स्वीकार करेगा?आखिर इन लोगों को देश की अस्मिता परसवाल खड़े करने का अधिकार किसने दिया?
बीते 9 फरवरी को जिस तरह देश के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में देश विरोधी नारें लगाये गए उसको सुनकर हर भारतीय असमंजस की स्थिति में है। हर कोई इस बात से चिंतित है कि जनता के टैक्स पर पलने वाले इन बौद्धिक परजीवियों को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए कौन उकसा रहा है?
शिक्षा के मंदिर मेंभारत तेरे टुकड़े होंगे। इंशाल्लाह! इंशाल्लाह!
कश्मीर मांगे आजादी..
हम लड़कर लेंगे आजादी..
पाकिस्तान जिंदाबाद…
कश्मीर की आजादी तक… जंग रहेगी.. जंग रहेगी..
भारत की बर्बादी तक.. जंग रहेगी.. जंग रहेगी..
और इंडिया गो बैक…जैसे देश विरोधी नारे लगाना किस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी है…???
देश के लिए इससे ज्यादा विडंबना की बात नहीं हो सकती कि देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए जब दिल्ली पुलिस ने जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया तो देश के कुछ नेता-बुद्धिजीवी और समाजसेवी विपक्ष में खड़े हो गए। अपना छद्मराजनीतिक हित साधने के लिए ये तथाकथित बुद्धिजीवी राष्ट्र की एकता-अखंडता और अस्मिता को ताक पर रखने को उतारू हो गए। जबकि वक्त ऐसा था कि इस राष्ट्रद्रोह के खिलाफ सभी देशवासी एक सुर में राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की निंदा करते हुए इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करते हुए राष्ट्रद्रोही तत्वों को कड़ा संदेश देते। फिलहाल स्थिति इससे बिल्कुल उलट है।
ये संयोग ही है कि जब देश के विरोध में स्वर मुखरित हो रहे थे।उसी समय भारतीय सेना के कुछ जवान सियाचीन के ग्लेशियर में देश की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दे गए। इसी दौरान सियाचीन के ग्लेंश्यिर में फंसा भारत मां का एक और वीर सपूत हनुमंत थप्पा करीब तीन दिनों तक जिंदगी और मौत के बीच जूझता रहा। जिसकी सलामती के लिए पूरा देश दुआ मांग रहा था। ठीक उसी समय में देश के नामी शैक्षणिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्र संसद हमलें के दोषी आतंकी अफजल गुरु की तीसरी बरसी मना रहे थे।
संसद हमले में शहीद हुए जवानों की आत्मा इन सब गतिविधियों को देख कर कचोटती होगी। शहीद हुए जवानों के परिजनों पर क्या बीत रही होगी।यह कल्पना से परे है। इस घटना के बाद सवाल उठना लाजमी है कि अगर अफजल गुरू को शहीद बताया जा रहा है तो संसद हमलें में शहीद जवानों को आप क्या कहेंगें। जिस कश्मीर की रक्षा के लिए हमारे जवान माइनस 40डिग्री तापमान में अपनी हड्डियों को गलाकर हमारी सुरक्षा में लगे हैं उस कश्मीर की आजादी की बात कर देश को तोडने वाले लोग आखिर साबित क्या करना चाहते हैं…???
जेएनयू परिसर में हुए देशद्रोही गविविधियों को देखकर देश का गुस्सा चरम पर है। देश के खिलाफ नारे लगाने की घटना को देखकर कोई भी आक्रोशित हो सकता है। इसी क्रम में कुछ लोगो ने सोशल मीडिया में जेएनयू बंद करने की मांग कर डाली और “जेएनयू सट डाउन हैश टैग”भी वायरल हो गया। अब इसे कथित बुद्धिजीवी और शिक्षाविद जेएनयू की संप्रभुता का खतरा बता रहे हैं। जेएनयू में गुणवतापूर्ण शिक्षा देने के लिए भारत सरकार औसतन सलाना 244 करोड़ का मदद करती है। इस प्रकार से औसतन हर छात्र पर तीन लाख रुपये का खर्च आ रहा है। जो जनता के खुन पसीने की कमाई के टैक्स के तौर पर आती है। भारत सरकार इस पर इसलिए खर्च कर रही है ताकि छा़त्र यहां से पढ़कर अपना बेहतर भविष्य बना सके और भारत के विकास और बेहतरी में भागीदार बन कर सहयोग करें।
जेएनयू में अगर बीते सालों की गतिविधियों पर नजर डाले तो पता चलता है कि 2010 में दंतेवाड़ा में नक्सली हमलें में शहीद 75 जवानों के मौत पर पूरा देश आंसू बहा रहा था तब जवानों के शहादत पर इस जेएनयू परिसर में विजय दिवस मनाया गया। जब पूरे देश में दुर्गा पूजा मनाई जाती है तब जेएनयू परिसर के अंदर महिषासुर दिवस मनाया जाता है(हालांकि अभी कुछ वर्षों से बंद है)। इतना ही नहीं यहां बीफ फेस्टीवल का भी आयोजन होता है जिस पर 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोक लगाई थी। आज जो देशद्रोह के आरोप में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी को गलत ठहराते हुए इसे जेएनयू की अस्मिता के साथ जोड़ रहे हैं। उन्हें यह पता होना चाहिए कि देश की संप्रभुता और अस्मिता के आगे जेएनयू की अस्मिता कहीं नही टिकती है। देश सुरक्षित है तभी जेएनयू है।देश से आगे कुछ नहीं होता। विदित हो कि विश्व के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालय में जेएनयू का स्थान कहीं नही है। देश में यौन उत्पीड़न के 101मामलों में कथित तौर पर 50 प्रतिशत जेएनयू से जुड़े हुए थे। कथित रूप से जेएनयू में हर वर्ष औसतन यौन उत्पीडन में 17 मामलें प्रकाश में आते हैं। जेएनयू प्रशासन को कन्हैया की गिरफ्तारी पर विरोध के बजाय विश्वविद्यालय की गुणवत्ता की स्थिति पर आत्मचिंतन करना चाहिए। और विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय में जेएनयू अपना स्थान कैसे कायम करे इस पर ध्यान देना चाहिए।
देश के नागरिकों को भी अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए जेएनयू बंद की मांग नहीं करनी चाहिए। कोई भी संस्थान गलत नहीं हो सकता। हो सकता है वहां के कुछ छात्र गलत हों। सीधे-सीधे किसी संस्थान को बंद करने की मांग थोड़ी जल्दीबाजी होगी और इस मांग को किसी भी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता है। शैक्षणिक संस्थान को शिक्षा का केन्द्र ही बने रहने देना चाहिए। उसे कदापि राजनैतिक अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए। इसके लिए संस्थान के छात्रशिक्षक और विश्वविद्यालय प्रशासन को अपनी इच्छा शक्ति को मजबूत करना होगा। कन्हैया र्निदोष है या दोषी इसका फैसला देश का कानून तय करेगा न की टी.वी चैनलों पर बैठ कर बहस करने वाले कथित बुद्धिजीवी। कानून अपना काम कर रही है उसे अपने तरीके से काम करने दें। हमें अपने संविधान पर पूर्ण विश्वास करना चाहिए।यही राष्ट्र और समाज सभी के लिए हितकर होगा। बीतें कुछ दिनों में कन्हैया को अदालत में पेशी के दौरान कथित मारपीट को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि लोगो का गुस्सा जेएनयू घटना पर किस कदर छाया हुआ है। हांलाकि हिंसा किसी भी तरह का हो,इसे सही नहीं ठहराया जा सकता है।
(लेखक राष्ट्रीय छात्रशक्ति मासिक पत्रिका के संपादन मंडल सदस्य हैं।)