आदिवासी भाषाओं पर उपेक्षा का दंश…………….

विशिष्ट सभ्यता, संस्कृति के नाम पर लगभग एक सौ वर्ष के  संघर्ष के बाद झारखंड राज्य तो अस्तित्व में आया, लेकिन इन विशिष्टताओं को पहचान देने वाली जनजातीय भाषाएं विकास की आंधी में कहीं गुम हो गई… झारखण्‍ड का गठन हुए एक दशक हो जाने के बावजूद आदिवा‍सियों के द्वारा मांगी गई विकास की स्थितियां जस की तस है…. राज्य के आदिवासियों की  आकांक्षाओं आज तक पूरी नहीं हो पायी है…. और आदिवासियों को अभी तक उनका सम्मान नहीं मिला है….यहां तक कि राज्य में आदिवासी अकादमी का भी गठन नहीं किया गया है….आदिवासी पत्र-पत्रिकांए बंद हो चुकी हैं…..

आज झारखंड की छः आदिवासी भाषाएँ विलुप्ति की कगार पर है…. ये हम नहीं यूनेस्को द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट कह रही है….जो सात हजार भाषाओँ की सूची है…गौरतलब है कि झारखंड सरकार ने नौ आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को द्वितीय राज्यभाषा का दर्जा दिया है….और संथाली भाषा भी संविधान के आठवी अनुसूची में शामिल है बावजूद इसके झारखंड़ में इसे समुचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है…. कृषि, आखेट,  और जंगल के  जीवन पद्धति की हर भाव-भंगिमा को दर्शाने वाले सूबे के सभी 32 जनजातीय समुदायों की 32 भाषाओं में से 27 भाषाएं  विलुप्त हो चुकी हैं, जबकि पांच बड़ी जनजातीय भाषाओं को केंद्रीय भाषा संस्थान मैसूर ने देश के बारह संक्रमण काल से गुजर रही भाषाओं की सूची में डाल दिया है…. असुर और बिरहोर जैसी आदिम जनजातीय समुदाय के मातृभाषाएँ प्रायः विलुप्ति के कगार पर आ चुकी है…..

भाषा विशेषज्ञों का मानना है कि आदिवासी भाषाएँ ज्ञान के भण्डारको अपने में समेटे हुए हैं जिसका इतिहास करीबन चार हजार साल पुराना है….. यदि इस दिशा में प्रयास तेज नहीं हुए तो आने वाले सौ वर्ष में 15 लाख लोगों के द्वारा बोली जाने वाली कुड़ुख भाषा भी विलुप्त हो जाएगी…. हिन्दी को समर्थ बनाने के लिए आदिवासी भाषाओं को बचाना जरूरी है क्योंकि मातृभाषाएं बचेंगी, तभी राष्ट्रभाषा की उन्नति होगी…अभी झारखंड में सिर्फ नौ आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं की औपचारिक शिक्षा दी जाती है…… यूनेस्को की महानिदेशक इरीना वोकोवा कहती  है कि ‘‘मातृभाषाएँ जिनमें कोई भी अपना पहला शब्द बोलता है, वही उनके इतिहास एवं संस्कृति की मूल बुनियाद होती है…और यह बात सिद्ध भी हो चुकी है…स्कूल के शुरुआती दिनों में वही बच्चे बेहतर ढंग से सीख पाते हैं जिन्हें उनकी मातृभाषाओं में पढ़ाया जाता है”….
अमरकंटक में अखिल भारतीय आदिवासी विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना की गई है….लेकिन यदि झारखण्‍ड की कला, संस्‍क़ति और भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन के लिए भी एक झारखण्‍डी विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना की जाए तो हम अपनी विरासत को बचा सकते है… आदिवासी भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन का काम अत्‍यंत महत्‍व का है…..इसमें समय पर उठाए गए कदमों से ही अच्छे परिणाम मिलेंगे…. ऐसी उम्‍मीद की जा सकती है….. इससे एक ओर जहॉं सामाजिक प्रतिमानों की उचित विवेचना की जा सकेगी, सकते है….. आदिवासियों के द्वारा आदिवासियों के लिए और आदिवासियत के साथ किए जाने वाले कार्यो से आदिवासी समाजों को अत्‍यंत लाभ प्राप्‍त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए…..संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी भाषाओं में महत्वपूर्ण परंपरागत ज्ञान संरक्षित हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के कई स्थलों सहित अन्य ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई में ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं, जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है……कई विद्वानों द्वारा उन्हें आदिवासी भाषाओं से मिलाकर समझने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसे में इन भाषाओं के लुप्त होने से बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी के लुप्त होने का भी खतरा पैदा हो गया है…..विशेषज्ञों के अनुसार जनजातीय भाषाओं का मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से काफी समृद्ध है……लेकिन भाषाओं को जीवित रखने के लिए वर्तमान समय के अनुसार अब उन्हें लिखित साहित्य का रूप देना आवश्यक है…..लेकिन इस ओर स्थानीय सरकारों का रवैया भी काफी उपेक्षापूर्ण रहा है….आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में संताल एकमात्र झारखंडी जनजातीय भाषा है, जबकि कई ऐसी भाषाएं इस सूची में शामिल हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या झारखंड की अन्य जनजातीय भाषाओं से भी काफी कम है…कई राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों ने एक से अधिक भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दिया है….झारखंड में भी ऐसा किया जाना चाहिए…. जनजातीय साहित्य के प्रकाशन की व्यवस्था भी सरकार के स्तर पर की जानी चाहिए तथा इन भाषाओं में साहित्य सृजन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए…..संयुक्त राष्ट्र संघ की सांस्कृतिक परिषद की रिपोर्ट के अनुसार इस सदी में दुनिया क सात हजार भाषाओं में से 63 सौ भाषाएं मर जाएंगी। इस गंभीर स्थिति को देखते हुए झारखंड की आदिवासी भाषाओं को बचाना आवश्यक हो गया है…. झारखंड में सादरी (नागपुरी), कुरमाली, खोरठा और पंचपरगनिया चार प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हैं….इसमें सादरी नागवंशी राजाओं के संरक्षण के कारण झारखंड के आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच समान रूप से लोकप्रिय है। इसने जहां झारखंड के सदान और आदिवासी समुदायों को एक सूत्र में बांधे रखा है, वह सूबे की संपर्क भाषा बन कर उभरी…. इन भाषाओं की भी पर्याप्त वैज्ञानिकता के बावजूद वे बाजार की लड़ाई हारती दिख रही है….अगर गौर करें तो यूनेस्को को हमारी भाषाओं की चिंता है… लेकिन झारखंड के सरकार को नहीं….भारतीय संविधान की अनुच्छेद 350ए में यह प्रावधान किया गया है कि यह राज्य का दायित्व है कि छात्रों को उनकी मातृभाषा में ही प्रारंभिक शिक्षा दी जाए….फिर भी यह सवाल लोगों के जेहन में लगातार उठता है कि आखिर कब उन्हें उनका मान सम्मान मिलेगा….आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो जागी तब..या झारखंड के आदिवासी और इनकी आने वाली पीढ़ी अपनी भाषा से दूर हो जाएंगे …तब… ???????????

प्रतिमा गुप्ता

1 COMMENT

  1. सदानीयों की मातृभाषा संस्कृति अस्तित्व सदानी भी हस्य पर है और सदानीयों की मातृभाषा सदानी को ही आमतौर पर सादरी तथा अधिकारिक रुप से नागपुरी कहते हैं, सदान समुदाय के भाषाओं का चार भेद है : सदानी (सादरी/नागपुरी), खोरठा, पंचपरगनिया, कुर्माली है।

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