एकर का भरोसा, चोला माटी के राम

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– पंकज झा

हालांकि अपने रोजी-रोटी में मशगूल देश को शायद ही 24 सितम्बर के बारे में कोई खास जिज्ञासा हो. ऐसा कोई माहौल दिख भी नहीं रहा है कि आम जन आतुर हों राम जन्मभूमि पर आने वाले फैसले के लिए. राजनीतिक दल भी शायद इस मामले पर फूंक-फूंक कर ही कदम रखना पसंद करे. चुकि हालिया कोई बड़ा चुनाव भी नहीं है तो कोई फायदे नुकसान का हिसाब भी लगाने की ज़रूरत शायद नेताओं को नहीं है.अगर बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव है भी तो ज़ाहिर है वहाँ कभी इस मुद्दे से किसी को कोई फायदा कभी नहीं मिला. जहां बिहार में जाति के आगे की बात कभी नहीं हुई, वही पश्चिम बंगाल में तो चुनाव के नाम पर मजाक ही होता रहा है दशकों से. अगर दोनों जगह परिस्थितियाँ इस बार बदली हुई भी हैं तो इसके कारण दुसरे हैं और वहाँ राम जन्मभूमि कोई मुद्दा हो नहीं सकता.

रही पूरे देश की बात तो ज़ाहिर है जो दल राम जन्मभूमि के आंदोलन के पक्ष में थे उन्हें यह बेहतर मालूम है कि उन्होंने अपना भरोसा कम से कम इस मुद्दे पर गंवा दिया है. ज़ाहिर है काठ की हांडी को एक बार ही चढ़ना होता है. वे शायद समझते हैं कि अगर मामले को ज्यादा तूल दिया तो लेने के देने भी पड सकते हैं. आम आदमी तो एक चर्चित फिल्म का गीत ही गाना शुरू कर देंगे कि ‘चोला माटी के राम एकर का भरोसा.’ इसके अलावा केन्द्र में सत्ताधारी दल की तो आज तक नीति ही रही है कि ‘चोर से कहो चोरी कर, साहूकार से कहो जागते रह.’ तो अवसरवाद को ही एकमात्र अपना ‘वाद’ समझने वाली कांग्रेस निश्चित ही तराजू पर वोटों को तौल कर ही अपना रुख अख्तियार करेगी.

तो इस मुद्दे के प्रति आज ना आम जनता में कोई कुलबुलाहट है और न ही राजनीतिक दलों में कोई कसमसाहट. अगर कही भविष्य सवांर लेने की आहट है तो केवल समाचार माध्यमों में. उनको ही केवल यह ऐसा अवसर दिख रहा है जहां मोटी कमाई की गुंजाइश है. सांप-सापिन और सावंत को बेचते-बेचते उकताए इन माध्यमों को ज़रूर इस बात का भरोसा है कि शायद राम जी फिर करेंगे बेरा पार. इस बार शायद एक अच्छा उत्पाद हाथ लगे. नयी बात ये है कि ‘नए मीडिया’ के रूप में स्थान बनाता जा रहा हिन्दी का वेब जगत भी टूट पड़ा है इस बार. लगभग हर साईट पर आपको राम ही राम दिखेंगे. आशंकाओं, संभावनाओं और खतरों के मार्केटिंग-ब्रांडिंग का दौर जारी है.

तो जैसा कि सब जानते हैं कि उक्त दिनांक को तीन बजकर तीस मिनट पर आने वाला फैसला भी अंतिम नहीं है. पिछले छः दशक के उबाऊ-थकाऊ और उलझाऊ फैसले का यह भी एक सामान्य कड़ी ही साबित होने वाला है. ज़ाहिर है दोनों में से किसी एक के पक्ष में ही फैसला आएगा और दूसरा पक्ष ऊपरी अदालत में अपील भी करेगा.फिर स्टे फिर लंबी सुनावाई और अगर कोई खास दबाव नहीं हुआ तो फिर दशकों के लिए छुट्टी. तो फैसले के मद्देनज़र प्रशासन द्वारा बरती जा रही सावधानी तो समझ में आ रही है लेकिन मीडिया को आखिर इतनी जल्दी किस बात की है? सबसे आपत्तिजनक व्यव्हार तो लग रहा है विद्वान लेखकों का. सभी करीब बीस साल पुरानी सन्दर्भ सामग्री को अपडेट करने में जुट गए हैं. अपने पुराने लेखों को धो-पोछ कर थोड़ा कम्प्युटरानुकूल बना कर अपनी-अपनी दूकान के साथ इस नए मीडिया की दुनिया में हाज़िर हैं.

सीधी सी बात है कि अगर न्यायालय में सारे तथ्यों को कलमबंद कर दिया गया है, सभी सम्बंधित सामग्रियां एक जगह इकट्ठी भी कर ली गयी है तो अभी उसका विषद वर्णन करने की ज़रूरत क्या है? इस लेखक को आशंका तो इस बात की है कि जिस तरह विगत लोकसभा चुनाव के दौरान बेकार के लोक-लुभावन प्रायोजित समाचारों की भीड़ में जन सरोकारों से जुड़े मुद्दे मीडिया द्वारा दबा दिए गए, उसी तरह शायद यूपीए सरकार इस मुद्दे का इस्तेमाल करके कहीं महंगाई, आतंकवाद, भुखमरी, अनाज के सड़ने पर पडी घुडकी, किसानों की आत्महत्या, राष्ट्रकूल नाम के गुलामी के खेलों की आड में किया जा रहा भ्रष्टाचार, स्पेक्ट्रम मामले में हज़ारों करोड के वारे-न्यारे समेत अन्य तमाम ढके-छुपे और सामने आये लूटों पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं कर रही है. पिछले चुनाव के दौरान एक विशेषज्ञ ने यह टिप्पणी की थी कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधन की सबसे ज्यादा तारीफ़ इसलिए की जानी चाहिए कि वह अपने अनुकूल मुद्दों को उभारने से ज्यादा इस मामले में सफल रहा है कि अपने प्रतिकूल रहने वाले मुद्दे को दबाया कैसे जाय. वास्तव में उस चुनाव से प्राप्त अनुभव को अब भी इस्तेमाल करने का प्रयास कांग्रस क्यू छोड़ना चाहेगी ?

अगर बात राम जन्मभूमि के नाम पर एक बार फिर जनांदोलन खड़े करने की हो तो फिलहाल तो इसकी कोई ज़रूरत नज़र नहीं आ रही है. अगर सभी संबंधितों को अपना पक्ष मज़बूत दिख रहा हो तो न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा कर अपनी ऊर्जा सड़क पर गवाने के बजाय ‘कठघरे’ में लगाए यही ठीक होगा. हाँ अगर सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपने लाभ के लिए न्यायिक फैसले को कुंद किये जाने का प्रयास किया गया तो निश्चय ही एक बार और उसी तरह का खुमार सड़कों पर दिखेगा जैसा नब्बे के शुरुआती दशक में दिखा था. उस समय जन-ज्वार को फैलने से पुनः कोई रोक नहीं सकता चाहे बाकी चीज़ें जाए भाड में.

इस आशंका का कारण भी नज़र आ रहा क्युकी इतिहास इस बात का गवाह है कि राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेस तुष्टिकरण के किसी भी हद तक जा सकती है. देश को आग में झोंक देने में भी उसे कोई परहेज़ नहीं होगा. आखिर जो कांग्रेस, शाहबानो को मिले चंद निवालों को छिनने के लिए संविधान में संशोधन करवा सकती है, वह निरपेक्ष भाव से अपना सब कुछ खोता हुआ देखती रहे यह कैसे संभव है? सामान नागरिक संहिता, धारा 370 समेत दर्ज़नों मामले में जिस कांग्रेस ने न्यायपालिका को ठेंगा दिखाया है वह इस मामले में बिलकुल चुप रह जाएगा यह नहीं कहा जा सकता है. और तो और, अनाज सड़ने के मामले में शालीन माने जाने प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च अदालत तक को उसकी ‘हैसीयत’ बता यह सन्देश तो दे ही दिया है कि अपने खिलाफ जाने वाले किसी भी मामले में उनकी सरकार किसी भी हद तक जा सकती है. बावजूद उसके सभी पक्षों से यह निवेदन किया जा सकता है कि देश आज जिस तरह की समस्यायों से घिरा हुआ है, उसमें किसी नान-इशू को इशू बनाने के किसी भी प्रयास का विरोध करें. नागरिकों के सामने वैसे ही चुनौतियों का अम्बार है. उन्हें अपने घर-परिवार, रोजी-रोटी के बारे में सोचने, काम करने का अवसर दें.

प्रस्तावित स्थल पर भव्य राम मंदिर का निर्माण वास्तव में राष्ट्र के स्वाभिमान और सम्मान के पुनर्स्थापना हेतु आवश्यक है. लेकिन इसके लिए किसी का भी कोई बलिदान अब ना हो, कोई भी जन सामान्य अब इस मुद्दे पर राजनीति की भेंट ना चढ़े यही मर्यादा पुरुषोत्तम से प्रार्थना है. ‘डायन’ के बारे में भी कहा जाता है कि वह भी कम से कम एक घर को बख्स देती है. नेताओं एवं उनसे भी बड़े नेता ‘पत्रकारों-स्तंभकारों’ से आग्रह कि वे भी कम से कम इस मुद्दे को अब ‘उत्पाद’ की शक्ल ना दें, बेहतर हो कि वे ‘महंगाई डायन’ पर ही ध्यान केंद्रित करें….आमीन.

9 COMMENTS

  1. भाई पंकज जी आपको शानदार एवं जानदार लेखन के लिए साधुवाद .

  2. सचमुच, हर किसी ने अयोध्या को अपने-अपने तरीके से भुनाया है। महाआरती करने वाले लोग और महानमाजी जमात आम दिनों में कहां होती है।रामलला और अल्लामियां की याद नहीं आती। मैंने आलेख पढ़ा पंकज जी, अच्छा आलेख है। तटस्थ है। न तो इसमें राजनीतिक पूर्वाग्रह है (भाजपा प्रवक्ता होने के नाते) और न ही व्यावसायिक (पत्रकार होने के नाते)। कबीरवाणी के लिए बधाई।

    • आपके आलेख की कुछ पंक्तियों पर मेरी भी तटस्थता दर्ज करें। आखिरी के चार पैरा।

  3. एक संतुलित आलेख !!!

    काश कि राम और अल्लाह के नाम पर मरने कटने वाले लोग अपने व्यक्तित्व और चरित्र में भी इन्हें ढाल पाते…लड़ने भिड़ने लायक कोई नौबत ही नहीं होती..

  4. श्री राम जन्म भूमि पर लिखे गए अब तक के सभी लेखो में एक बेहतरीन लेख. साधुवाद. आज की तारीख में अगर इसा फैसले को लेकर कोइ घिनौना खेल खेल सकता है तो तथाकथित बुद्धीजीवी या मुख्यधारा का मीडिया ही है. उन्हें संतुलन-संयम रखना होगा. वरना टीआरपी की लत में वह देश को आग में झोंक सकते हैं.

  5. पंकज झा जी की गहन व सूक्ष्म दृष्टी बहुत दूर तक संभावनाओं को परख लेती है, परिभाषित करती है और भवितव्यता की और सशक्त संकेत करती है.
    – महंगाई के मार व समस्याओं के भरमार में राम मंदिर क्या कोई भी मुद्दा समाज
    की भावनाओं को छूता नज़र नहीं आता. मंगाई जैसे सर्व स्पर्शी मुद्दे पर ही समाज आंदोलित नज़र नहीं आया.
    – वास्तविकता ये है कि थका और निराश समाज अपने नेताओं तथा अपनी अभिव्यक्ती के परिणामों के प्रती विश्वास खो चुका है. जैसा कि पंकज जी ने सशक्त शब्दों में चित्रित किया है.
    – समाज के मुद्दे और मीडिया के मुद्दे भी अब एक कहाँ होते हैं . ”तेरे मन माहीं कुछ और रही मेरे मन माहीं कुछ और” वाली स्थिति है.
    – अतः समाज की निस्तेज प्रतिक्रया से ये अनुमान नहीं लग सकता कि राम मंदिर का मुद्दा उनके लिए कितना ह्रदय स्पर्शी है.
    – ये संवेदनशील समाज अपने रोष को समय पर अभिव्यक्ती देकर अनापेक्षित परिणामों का करक बन सकता है. इसका ये मौन कईयों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. राम की जड़ें हज़ारों नहीं लाखों, करोड़ों साल से गहरी बैठी हुई हैं. वक्त ही इस सत्य को उजागर करेगा.
    * अस्तु पूर्वाग्रह के बिना लिखे इस विश्लेष्णात्मक लेख हेतु पंकज जी को साधुवाद.

  6. आगामी निर्णय पर संभावित प्रतिक्रिया का क्‍या और कहां कितना असर अभी हो रहा है, ध्‍यान रखना जरूरी है.

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