यह सपाटबयानी और कहाँ मिलती है !

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सुनील अमर

डेढ़-दो दशक पहले की बात है। प्रदेश की ग्राम पंचायतों के चुनाव हुए थे और उन्हें आर्थिक अधिकार भी दिए गए थे। जनपद फैजाबाद के नवनिर्वाचित प्रधानों ने वहाँ मुख्यालय स्थित सभागार नरेन्द्रालय में एक सम्मेलन किया और आयोजकों ने उसमें ‘अदम’ जी को भी आमंत्रित किया था। उन्हें आशीर्वचन देने के लिए जब आयोजकों ने मंच पर बुलाया तो माइक पकड़ते ही ‘अदम’ जी ने जो दो पंक्तियाँ पढ़ी थीं वो अदम जैसे अदम्य साहस और आग से भरे हुए आदमी से ही सुनी जा सकती थीं -‘‘जितने हरामखोर थे पुरवो-जवार में, प्रधान बनके आ गए अगली कतार में।’’ जिसने बुलाया हो उसी के घर में बैठकर उसकी बुराइयों पर गरियाना! अदम के सिवा और कौन कर सकता था ऐसी हिमाकत! कहने की आवश्यकता नहीं, सभागार में बैठे प्रधानों ने कितना हल्ला मचाया था।

‘अदम’ जन्म से ठाकुर यानी क्षत्रिय थे। उनका गाँव भी ठाकुरों का ही था। वहीं वे आजीवन रहे भी। अव्यवस्था, शोषण और अन्याय के प्रति उनकी रगों में खौलता हुआ खून ही था जो उन्हें व्यवस्था की भीड़ में घुसकर मारकाट करने पर आमादा कर देता था। प्रधानों की सभा का वाकया ही नहीं, ऐसे दर्जनों अवसर थे जब उन्होंने अत्याचारियों के मुंह पर थूका। कल्पना कीजिए कि- ‘‘दिन-दहाड़े इनको डंडों से सुधारा जाएगा, ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा।’’ अपनी मशहूर नज़्म ‘‘मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको’’ में यह पंक्तियाँ लिखकर वे किस तरह अपने ठाकुर पट्टीदारों के बीच में रहते रहे होंगें? यह अनायास नहीं कि उनकी जाति-बिरादरी के जमे-जमाये लोग उन्हें सनकी कहते थे!

अपने मुख्यमंत्रित्व काल में सपा प्रमुख मुलायमसिंह ने अपने गृह स्थान सैफई में ‘सैफई महोत्सव’ का आयोजन शुरु किया था जो सामाजिक-सांस्कृतिक-व्यापारिक गतिविधियों का राष्ट्रव्यापी केन्द्र हुआ करता था। मुलायम सिंह जी ‘अदम’ को बहुत मानते थे और अदम की सोच भी वामपंथी-समाजवादी ही थी। 2006 या 07 की बात है ऐसे ही सैफई महोत्सव में मुलायम की मौजूदगी में मंच से ‘अदम’ ने यह शे‘र पढ़ा तो लोग सन्न रह गए-‘‘इस इलेक्शन में मुसलमानों से रुमाल बदलेंगें, चेहरा तो बदल लिया है अब चाल बदलेंगें।’’

‘अदम’ में एक स्वाभाविक वैचारिक आग थी जो अपने स्वार्थ के लिए किसी का भी लिहाज करना नहीं जानती थी। तमाम आलोचक आज अगर उन्हें कबीर कहते हैं तो यकीन मानिए कई अर्थो में वे कबीर से भी चार कदम आगे थे। वे अकृत्रिम थे इसलिए जीवन के झंझावातों से जूझने की कृत्रिम व्यवस्थाऐं नहीं कर पाये। कर पाते तो शायद जीवन के आखिर दौर में उन्हें पी.जी.आई. लखनऊ में उस शर्मनाक स्थिति से न गुजरना पड़ता कि उन्हें अस्पताल की एक बेड दिलाने के लिए मुलायम सिंह जैसे एक पूर्व मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पडे़। उनकी सारी सोच, सारी चेतना क्रांतिधर्मा थी और जो क्रांति करने निकलते हैं वे समझौते नहीं करते। वे कहते हैं – ‘‘ मैंने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को। चोरी न करें, झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकायेंगें शाम को।’’ यह अदम ही थे जो इतने सपाट और बेबाक होकर कह सकते थे कि-‘‘ बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में, मैं जब भी देखता हूँ आँखों बच्चों की पनीली है।’’

‘अदम’ आजीवन अदम ही रहे। ऐसा नहीं था कि युवावस्था के अदम ने जवानी के जोश में क्रांति की बात की हो और परिपक्व होने पर व्यवस्था से समझौते कर जिन्दगी का सुख बटोरना सीख लिया हो। एक परिपक्व उम्र तक वे जिए लेकिन जवानी के जोश में ही जिए और लिखे। अपने समय आँकलन जिस एक शे’र में उन्होंने किया वो न सिर्फ बेमिसाल और अद्भुत है बल्कि गागर में सागर भरने की कहावत को चरितार्थ करता है- ‘‘ इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आखिर क्या दिया, सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियां सल्फास की।’’

किसी एक आदमी के न रहने से कोई काम रुक नहीं जाता लेकिन सच यही है कि दुष्यंत के बाद हमें अदम की आदत पड़ गयी थी। बहुत दूर-दूर तक देखने पर भी हमें फिलहाल अदम का विकल्प दिखता नहीं। उन्हें श्रृद्धांजलि देने के लिए उचित यही होगा कि जो उन्होंने ‘होशो-हवास’ में कहा था उसे हम भी अपने होशो-हवास में उतार लें -‘‘ जनता के पास एक ही चारा है इंकलाब, यह बात कह रहा हॅू मैं होशो-हवास में।’’ 0 0

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