अडवाणीजी अब तो सच्चाई स्वीकारिये

वीरेन्द्र जैन

दर्शन शास्त्र के एक प्रोफेसर को साधारण भौतिक वस्तुएं भूल जाने की बीमारी थी। बरसात की एक शाम जब वे भीगे हुए अपने घर के दरवाजे पर पहुँचे तो घर में प्रवेश से पहले ही तेज याददाश्त वाली उनकी पत्नी ने पूछा “छाता कहाँ है?”

“वह तो कहीं खो गया” प्रोफेसर ने बताया

“…पर कहाँ?” पत्नी ने क्रोधपूर्ण जिज्ञासा की

“ वह तो पता नहीं” वे बोले ”आखिर आपको कब पता चला कि छाता खो गया है?” पत्नी का अगला प्रश्न था

“जब बरसात बन्द हो गयी और मैंने छाता बन्द करने के लिए हाथ ऊपर किया तो पता चला कि छाता तो है ही नहीं” प्रोफेसर ने बताया।

भाजपा के वरिष्ठतम नेता पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी को भी भाजपा से जनता के निराश होने का ज्ञान तब हुआ जब उन्हें सारी उम्मीदवारियों से मुक्त कर दिया गया अर्थात उनकी आशाओं पर न केवल पानी फेर दिया गया अपितु पौंछा भी लगा दिया गया। इतना ही नहीं गडकरी ने अपने चहेते भामाशाह अंशुमान मिश्रा द्वारा जो अपने पैसे की दम पर भाजपा अध्यक्ष को जेब में डाले हुए है, उनका अपमान भी करा दिया जिसने भारतीय राजनीति के इस सबसे वरिष्ठ नेता को रिटायर होकर नाती पोतों को खिलाने की सलाह दे डाली है और इस रामलीला पार्टी में राजनीतिक भूमिकाओं को अभिनेताओं की भूमिकाओं से तुलना करते हुए कहा है कि देश को ए.के. हंगल नहीं आमिर और रणवीर कपूर की जरूरत है। स्थिति की बिडम्बना यह भी है कि भरी पूरी पार्टी में उन लोगों का अकाल दिखा जो अपने नेता के इस अपमान का विरोध करते क्योंकि सारी ही पार्टी लालचियों और चापलूसों के गिरोह में बदल गयी है, जो गडकरी जैसी कठपुतली को सलाम कर सकते हैं पर अडवाणी के अपमान पर अफसोस भी नहीं कर सकते। जब अडवाणी के सहारे सत्ता तक पहुँचने की सम्भावनाएं थीं तब इन्हीं लोगों ने रथ यात्रा के दौरान उनको गिरफ्तार किये जाने पर पूरे देश में हिंसक उपद्रव कर दिये थे।

वैसे अडवाणी ने भाजपा के प्रति जनता के रुख का सार्वजनिक खुलासा अभी किया हो पर जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें हैं या वह किसी क्षेत्रीय पार्टी के नीचे किसी राज्य सरकार में सम्मलित है वहाँ वहाँ जनता की निराशा के पर्याप्त संकेत सूचना माध्यमों पर उपलब्ध हैं। उन्हें छुपाने के लिए सम्बन्धित राज्यों के जनसम्पर्क विभाग द्वारा पर्याप्त मात्रा में खैरातें बाँटी जा रही हैं, पर वे फिर भी रोके नहीं रुक रहीं। निराश जनता ने एनडीए का शासन भी भोग लिया है और वह जानती है कि सरकार के सहारे लूटखसोट करने में ये सबसे आगे रहते हैं इसलिए जनता अब इन्हें विकल्प के रूप में नहीं देख रही। जहाँ तक बाबूलाल कुशवाहा समेत उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गये मंत्रियों को भाजपा में सम्मलित करने का सवाल है, वह भाजपा के लिए कोई नया हथकण्डा नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चलाने के लिए उन सुखराम से गलबहियाँ करने से गुरेज नहीं किया गया था जिन पर छापा पड़ने पर इन्होंने छह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। शिबू सोरेन समेत दागी मंत्रियों को हटाने के नाम पर इन्होंने सदन के कई महत्वपूर्ण दिन बरबाद करवा दिये थे उन्हीं के साथ आज झारखण्ड में सरकार बनाये हुए हैं और वही शिबू सोरेन अपने लड़के के नाम पर सरकार चला रहे हैं और अपनी सरकार में भाजपा अपना राज्य सभा का उम्मीदवार तक नहीं जितवा पाती। जिन जयललिता के भ्रष्टाचार के खिलाफ इन्होंने संसद में तूफान मचा दिया था उन्हीं के सहारे अटल बिहारी ने एनडीए की सरकार चलायी तथा इतनी चिरौरियां करते हुए चलायी कि जयललिता अटलजी के “रक्षा मंत्री” को घंटों बाहर बिठाये रखती थीं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की शुरुआत भी एनडीए शासन काल में ही हो गयी थी, जिसमें अडवाणीजी उपप्रधानम्ंत्री थे व ‘प्रधान मंत्री के सारे काम’ देख रहे थे।

सत्ता के लिए सारे अनैतिक हथकण्डे अपनाना व सभी तरह के समझौते करना गडकरी ने अपने पूर्ववर्तियों से ही सीखा है। टिकिट न मिलने या किसी अन्य असंतोष की वजह से अपनी पार्टी छोड़ने वाले सारे प्रमुख नेताओं को भाजपा ने आगे बढकर गले लगाया है और उसका एक बड़ा हिस्सा दलबदलुओं या लोकप्रिय सितारों को किराये से लेकर से भरा हुआ है। दलबदल करा के पूरे विधायक दल को किसी पर्यटन स्थल पर कैद करने की परम्परा भी भाजपा ने ही शुरू की थी व दलबदल में सौदेबाजी की शुरुआत भी मध्यप्रदेश में संविद शासन के लिए विजया राजे सिन्धिया द्वारा थैली खोल देने से ही हुयी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ छह छह महीने सरकार चलाने का बेहद हास्यस्पद प्रयोग भी भाजपा की देन है। इस पर इनके सहयोगी बाल ठाकरे ने व्यंग किया था कि अगर कुछ पैदा करना था तो छह छह महीने क्यों कम से कम नौ नौ महीने का समझौता तो करना चाहिए था। समस्त दलबदलुओं समेत सौ लोगों का मंत्रिमण्डल बनाने का अजीब प्रयोग भी उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह सरकार में किया गया था जिसके मंत्रियों का यहाँ तक कहना था कि मंत्री बने छह महीने हो गये पर हमारे पास आज तक एक भी फाइल दस्तखत होने नहीं आयी। पूर्व डकैतों को टिकिट देने की शुरुआत भी भाजपा ने ही की थी जब उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ मलखान सिंह को खड़ा किया था, बाद में तो यह फार्मूला ही चल निकला था। आज भी प्रत्येक चुनाव में आत्मसमर्पित दस्यु या जमानत पर छूटे अपराधी टिकिट माँगते देखे जाते हैं। नगर निकायों या पंचायती राज में तो उनमें से कई अभी भी विभिन्न पदों पर कब्जा किये हुए हैं। अभी हाल ही में हरियाणा के उपचुनाव में इन्होंने उन्हीं भजनलाल के बेटे के साथ समझौता किया था जिन्हें भ्रष्ट और अवसरवादी बताते हुए इन्होंने लम्बा समय गुजारा है।

अवसरवादी, समझौता परस्ती का यह दोष भले ही भाजपा में अब अपने चरम पर पहुँच गया हो किंतु इसकी शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी और कोई भी ऐसा काम अडवाणी की जानकारी के बिना सम्भव ही नहीं था। कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं को इस दशा तक पहुँचाने में अडवाणी की परम शिष्य श्रीमती सुषमा स्वराज के आशीर्वाद का ही हाथ रहा है जिन्हें श्रीमती सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव में उतारा गया था और चुनाव की पूरी व्यवस्था रेड्डी बन्धुओं ने की थी। यदि उम्र के इस पड़ाव पर अडवाणीजी सचमुच ही अपने किये पर पछता रहे हों तो उन्हें चाहिए कि वे अब एक सच्ची आत्मकथा लिखें और पूरे राजनीतिक जीवन में अपने द्वारा किये या देखे गये उन कामों का खुलासा करें जो अभी तक जनता के सामने नहीं आये हैं। यदि उन्होंने ऐसा करने का साहस जुटाया तो वे प्रधानम्ंत्री बनने की तुलना में इतिहास में अमर हो सकते हैं और भारतीय लोकतंत्र को अपना आत्मावलोकन करने व सुधरने का अवसर मिल सकता है।

4 COMMENTS

  1. वीरेन्द्र जी का विश्लेषण तो सटीक है और भाजपा के आपसी सर फुटौवल पर कटाक्ष भी काबिले गौर है किन्तु इस सब धक्कामुक्की में आडवानी जैसे कट्टर दक्षिणपंथी,घोर सनातन -साम्प्रदायिक राजनीती के पुरातन पुरोधा का अवसान देखकर न केवल उनके समर्थकों का बल्कि अनेकों गैर भाजपाइयों,गैर संघियों का भी मन खिन्न हो रहा है.आडवाणी जी की पीड़ा देखकर पुराणी कहावत याद आ गई ‘चींटियाँ घर बनाती हैं….सांप उसमें रहने आ जाते हैं….!!!

  2. @डा.धनकर ठाकुर जी, आप लिखते हैं कि
    बीजेपी की स्थिति बिगड़ी जरूर है और उसके लिए उसका सामूहिक नेतृत्व जिम्मेवार है -कोई एक आदमी नहीं पर अभी भी कुल मिलाक आर यह अपने प्रतिद्वंद्वियों से अच्छा है –
    क्या आपने माकपा का नाम सुना है ?

  3. So called राजनीतिक मजबूरियां और ये मजबूरियां जैसे एक मात्र विकल्प हो सत्ता में आने के लिए और सत्ता में बने रहने की लिए…पर नहीं, इन मजबूरियों में ही तो मीठे फल हैं, जो पबलिक्ली खाने को मिले और कुछ अंदर ही अंदर…

    भले ही उनकी आत्मा को टटोल लो, वीरेन्द्र जी… पर आडवाणी जी से उतनी अपेक्षा ! ये कुछ ज्यादा नही है …?

  4. श्री वीरेंद्र जैन का अडवानीजी पर आक्षेप संभावनाओं के आधार पर है
    अच्छा होता की गड़े मुर्दे उखाड़ने के बदले वर्तमान इमादारी के प्रतीक पर भी अनुसन्धान कर ऐसा ही लिखते तो शायद अधिक जानकारी मिलती.
    सत्ता कभी भी सात्विक होती नहीं( राजा राम को छोड़) वैसे इसका मतलब नहीं की किसी के गलती पर इशारा नहीं किया जाय
    बीजेपी की स्थिति बिगड़ी जरूर है और उसके लिए उसका सामूहिक नेतृत्व जिम्मेवार है -कोई एक आदमी नहीं पर अभी भी कुल मिलाक आर यह अपने प्रतिद्वंद्वियों से अच्छा है -यह और भी अच्छा हो इस उद्देश्य से ही अद्वानीने आत्मचिंतन को ;लखा था पर इस बार भी यह उनके उलटा चला गया – दल के बहार के किसी व्यक्ति को दलीय जैसा बन मामले में उन्हें सलाह देने या गलत बात करने की आवश्यकता नहीं थी- अडवानी व अटल के पास न तो थैला था न ही वंश की परम्परा पर वे फिर भी संगठन की मुहीम के कारण ही उच्च स्थान तक गए – काश ऐसा ही दुसरे सत्ताधारी दलों में होता- अब राष्ट्रिय कौन पोछे क्षेत्री य भी रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं
    वीरेन्द्रजी ने अडवानी के ऊपर कोई सीधा आरोप लगाया नहीं और लेख का शीर्षक उनके नाम कर दिया

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