हाथी आएल, हाथी आएल, आएल हाथीक लिद्दी… ‘उड़ता पंजाब’

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udta punjab
डिस्क्लेमरः मनमोहन देसाई की फिल्म ‘अमर, अकबर, एंथनी’ का वह दृश्य याद है, जब एक मां को उसके तीनों बेटे का खून चढ़ाया जा रहा है और वह भी एक साथ। जब इस फिल्म में इस दृश्य की शूटिंग हो रही थी, तो किसी ने देसाई से कहा- ‘सर, ये खासी असंभव बात है। तीन लोगों का खून एक साथ, लिया जा रहा है औऱ फिर वही उस बूढ़ी मां को चढ़ाया भी जा रहा है…इस पर कौन यकीन करेगा?’ मनमोहन देसाई ने कहा, ‘यह देसाई की फिल्म है, लोगों को मैं जो भी दिखाउंगा, उस पर यकीन होगा।’ अनुराग कश्यप और अभिषेक चौबे ने भी शायद यह कथा सुन रखी हो।

पतन की राह बड़ी चिकनी और रपटीली होती है। इसके साथ मज़ेदार बात यह भी है कि शिखर से पतन जब भी होता है, तो वह आपको सीधा गर्त में पहुंचाता है। ‘उड़ता पंजाब’ देखते हुए सवाल केवल यही उठता है कि जिस अनुराग कश्यप (एंड टीम) को हिंदी सिनेमा में नयी बयार लानेवाले के तौर पर देखा जाता रहा है, वह अपने पतन के मौजूदा दौर से उबर भी पाएंगे या नहीं। वहीं, एक डर भी समा गया है (कम से कम इस दर्शक को) कि कहीं ‘रमन राघव’ भी तो ऊंची दुकान, फीका पकवान साबित नहीं होगी।
‘उड़ता पंजाब’ अभिषेक चौबे की फिल्म है, यह लेखक भी जानता है, लेकिन प्रोजेक्ट वह अनुराग का है और इसीलिए आलोचना का अधिक हिस्सा भी उनको ही मिलना चाहिए। अभिषेक चौबे ने तो इश्किया के बाद डेढ़ इश्किया बनाकर आसार जता ही दिए थे कि उनको धोखे से बटेर हाथ लग गयी थी।
बहरहाल, मसला फिर से सर्जनात्मकता, बाज़ार और जीनियस का है। यह बात पता नहीं क्यों जेहन में पैठी सी लगती है कि जीनियस जहां बाज़ार से मिलता है, वहीं फिसल जाता है। ‘खामोशी द म्यूजिकल’ बनाने वाला भंसाली ‘गुजारिश’ बना बैठता है, ‘सांवरिया’ जैसा अपराध करता है, ‘देव-डी’ और ‘गुलाल’ देने वाला अनुराग कश्यप वासेपुर में रपटता है, फिर ‘बॉम्बे वैलवेट’ जैसी उलटबांसी करता है, ‘अगली’ बनाता है और फिर ‘उड़ता पंजाब’ को सपोर्ट करता है।
मेरे एक दोस्त ने फिल्म देखने के बाद सही सवाल पूछा कि आखिर सीबीएफसी के चेयरमैन पहलाज निहलानी को इस फिल्म में इतना आपत्तिजनक क्या लगा? यह लेखक इसी बात को
थोड़ा आगे बढ़ाकर ‘कांस्पिरैसी थियरी’ के लेवल पर ले जाना चाहता है, कहीं यह दोनों की मिलीभगत का नतीजा तो नहीं था? आखिर, निहलानी की बेटी ही फिल्म के प्रमोशन के लिए भी तो जिम्मेदार थीं।
बहरहाल, हरेक ‘जीनियस’ आखिरकार सामान्य होने को अभिशप्त होता है, हरेक सर्जना अंततः समझौते की ओर झुक जाती है। यह बात तब और भी सच होती है, जब बात मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री की हो।
वैसे, हमारे समाज की एक बात बड़ी मज़ेदार है। दिल्ली के कूल डूड से लेकर दरभंगा के एक स्क्रीन वाले ढहते सिनेमाघरों तक, सामान्यीकृत डायलॉग आप खूब सुनेंगे। ‘लाइट हाउस’ में फिल्म देखने से पहले जो जनता अनुराग कश्यप (यहां इस फिल्म को अभिषेक चौबे की कोई नहीं कह रहा था, सॉरी) के कसीदे कढ़ रही थी,- “हां रे, वासेपुर न देखली छल….इहे न बनैले रहइ…हा हा हा हा, बिजोड़ सनीमा बनबइ हइ-” वही, फिल्म होने के बाद बिना बीप के अपशब्दों की बौछार कर रही थी- “इहो साला अनुरगवा बु**** के बेकारे हो गेलौ, बहा#^& की बनलकै ह रे, धुत साला, पइसा बरबाद हो गेलौ,”…।
हालांकि, मेरी जनता-जनार्दन से पूछने की इच्छा हुई कि भाई, ‘नाम का इतना खौफ किसलिए? अनुराग हों या अभिषेक, वे भी इंसान हैं, वह भी सहम सकते हैं, फेल हो सकते हैं’। हालांकि, ‘उड़ता पंजाब’ की सबसे कमज़ोर कड़ी इसकी स्क्रिप्ट, डायरेक्शन और किरदारों का नकलीपन है।
कश्यप एंड कंपनी की फिल्मों पर अश-अश करनेवाले हमें बताते नहीं थकते कि इनका असली हुनर फिल्मों का यथार्थवादी होना है। यह हालांकि अलग बहस का विषय है कि फिल्में यथार्थवादी हों या नहीं, अगर हों तो कितनी, या यह उनकी कसौटी ही नहीं। इस फिल्म के बारे में यह बहस का मुद्दा नहीं, क्योंकि इसके पीछे वो लोग खड़े हैं, जिनके ऊपर हिंदी फिल्म को नया व्याकरण, नयी दिशा औऱ यथार्थवाद देने का लेबल पहले ही चिपका हुआ है और उन्होंने उससे इंकार भी नहीं किया।
‘उड़ता पंजाब’ में कुछ भी असली नहीं है। इसके तीन प्लॉट हैं, रॉक सिंगर टॉमी सिंह, बिहारन मजदूर, पुलिस इंसपेक्टर सरताज और तीनों प्लॉट समानांतर चलते हैं और एक साथ ही खत्म होते हैं। सरताज की कहानी के साथ ही डॉक्टर (करीना कपूर खान) की कहानी भी गुंथी हुई है। फिल्म को इन तीनों सब-प्लॉट को एक साथ खत्म करने का प्लॉट बनाने के चक्कर में भी कबाड़ा हुआ है।
यह फिल्म न तो नशेड़ियों की दुनिया को उजागर कर पायी है, न ही उससे छुए पहलुओं को छू पायी है। एक शब्द में कहें, तो कुछ भी नया नहीं है और अगर नया नहीं है, तो साहब हम आपकी फिल्म क्यों देखें? हरेक हफ्ते चार फिल्में तो वैसे भी रिलीज होती ही हैं।
चरित्रों का विकास अस्वाभाविक और चित्रण निरर्थक है। आलिया भट्ट को बिहारन मजूदर बनाना अन्याय है और उससे भी बड़ा अन्याय है, उसके चरित्र की परिणति। नशे की लती बनायी गयी मजदूर के साथ सामूहिक बलात्कार हो और उसके चरित्र की प्रतिक्रियाएं (जो फिल्म में दिखती हैं) वैसी हों, यह हजम नहीं होता।
शाहिद ने हैदर में अभिनय की जिन बुलंदियों को छू लिया था, ‘उड़ता पंजाब’ में उन्होंने सब मिट्टी कर दिया है। वह अब वापस सिफर से अपना सफर शुरू करेंगे। टॉमी सिंह के किरदार में इतनी अस्वभाविकता, इतनी नाटकीयता उन्होंने और निर्देशक ने भर दी है कि वह न तो सहानुभूति का पात्र हो पाते हैं, न ही गुस्से के। करीना कपूर खान शो-पीस हैं और वह वही लगी भी हैं। बाज़ी जीत ली है पुलिस के सब-इंस्पेक्टर बने दिलजीत दोसांझ ने। वह इस पूरे कूड़े के ढेर में जगमगाता हुआ प्रकाश-पुंज हैं।
इस फिल्म की सबसे बड़ी असफलता तो इसी में है कि यह फिल्म कुछ भी नहीं जगा पाती। आप जब हॉल से निकलते हैं तो बिल्कुल अप्रभावित, बिल्कुल खाली और इससे बड़ी असफलता और क्या हो सकती है? फिल्म अति-सरलीकरणों से इतनी भरी है कि वह आलिया के दर्द को भी नहीं उभार पाती, उसके साथ भी दर्शक सहानुभूत नहीं हो पाते। शाहिद कपूर के जिम्मे बस चीखना-चिल्लाना और गालियां देना है, नशे से जूझ रहे व्यक्ति की पीड़ा और दर्द को प्रकट करने के वह आस-पास भी नहीं पहुंच पाए हैं।
‘उड़ता पंजाब’ देखने के बाद लगता है कि इसे दरअसल उनलोगों ने बनाय है, जो कई हॉलीवुड फिल्में देखने के बाद एडिटिंग और डायरेक्शन की कुर्सियों पर बैठ गए हैं। इसे देखने के दौरान आपको कभी ‘रिज़र्वायर डॉग्स’ की याद आ सकती है, कभी ‘डेस्पराडो’ की तो, कभी किसी और की।
मिथिलांचल में एक कहावत है, ‘हाथी आएल, हाथी आएल, आएल हाथीक लिद्दी…’। तो, ‘उड़ता पंजाब’ भी वही है। अगर आप कश्यप एंड कंपनी के अटूट प्रेमी हैं, तो यह फिल्म देखने जाइए, वरना इस फिल्म में आपके लिए कुछ है नहीं।

व्यालोक

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