आखिर क्या चाहते हैं केजरी

-सतीश मिश्रा- aap

केंद्र सरकार व दिल्ली पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोलने के साथ ही धरने पर बैठ जाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आखिर चाहते क्या हैं? मुख्यमंत्री के नाते अपने दायित्व व कर्तव्य निभाने की बजाए वे आंदोलन की राह अपना कर अपनी सरकार को ‘शहीद’ करना चाहते हैं। अपनी इसी रणनीति के तहत एक ओर तो अरविंद केजरीवाल कांग्रेस पर आक्रमण कर उसे समर्थन वापिस लेने को मजबूर कर देना चाहते हैं। दूसरी ओर वे संवैधानिक व्यवस्था को पूरी तरह से विफल कर ऐसे हालात पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं जिससे उप-राज्यपाल को दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करनी पड़े। दोनों ही हालात में उनकी सरकार की बिदाई हो जाएगी। इससे उन्हें लोगों से यह कहने का मौका मिल जाएगा कि वे तो दिल्ली व यहां के लोगों की भलाई के लिए व्यवस्था को पूरी तरह से बदलना चाहते थे। मगर सरकार का कार्यकाल पूरा न होने के कारण ऐसा नहीं कर पाए हैं।
संविधान व विधायी मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी निर्वाचित सरकार का पहला दायित्व यही है कि वह जनहित की योजनाएं बनाकर उन्हें लागू करे। उसे जनता की समस्याओं की सुनवाई करने के साथ ही उन्हें दूर करने के उपाय करने चाहिए। जब सरकार संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ मोर्चा खोलकर खुद ही अराजकता पैदा करने पर आमादा हो जाएगी तो उसके परिणाम कितने भयावह होंगे, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है।
उनका यह भी मानना है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस संविधान के प्रति पूरी आस्था व निष्ठा रखने की शपथ ली थी, वे ही अब उस संविधान का अपमान करने के साथ ही उस पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। क्योंकि संविधान में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि दिल्ली सरकार के अधीन कौन से विभाग होंगे और कौन से विषय केंद्र सरकार के अधीन होंगे। बावजूद इसके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के तबादले की मांग को लेकर सड़क पर उतर कर आंदोलन कर रहे हैं। क्या उन्हें इसकी जानकारी नहीं है कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है और संवैधानिक व्यवस्था व प्रावधान के तहत उसके बारे में किसी भी प्रकार का फैसला लेने का अधिकार केवल केंद्र के प्रतिनिधि उप-राज्यपाल को ही है? वैसे भी मुख्यमंत्री की शिकायत व मांग पर उप-राज्यपाल पहले से न्यायिक जांच के आदेश जारी कर चुके हैं। बावजूद इसके मुख्यमंत्री का एक आंदोलनकारी संगठन के मुखिया के तौर पर सड़कों पर उतर आना उनकी मंशा पर कई तरह के सवालिया निशान लगाता है।
उनका यह भी कहना है कि जो राजनीतिक पार्टी भारतीय संविधान को मान ही नहीं रही है चुनाव आयोग को उसकी मान्यता ही रद्द कर देनी चाहिए। जानकारों का कहना है कि आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में जो लंबे-चौड़े वादे किए हैं उन्हें पूरा करना आसान नहीं हैं। मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद से अरविंद केजरीवाल को यहां की प्रशासनिक जटिलताओं की बात अच्छी तरह से समझ आ गई है और उन्होंने यह भी महसूस कर लिया है कि सरकार चलाना उनके बस की बात नहीं है। यही वजह है कि वे ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश कर रहे है जिनमें उप-राज्यपाल के पास संवैधानिक तंत्र फेल हो जाने का कारण बताते हुए केंद्र सरकार से दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करने के बजाए दूसरा कोई चारा ही न बचे। दिल्ली के एक पूर्व मुख्य सचिव ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि सचिवालय के बजाए सार्वजनिक स्थल पर मंत्रिपरिषद की बैठक बुलाना सरासर गलत है। अगर केजरीवाल अपनी घोषणा के मुताबिक ऐसा करते हैं तो दिल्ली के मुख्य सचिव व दूसरे अन्य अधिकारियों को उसमें जाने से साफ इनकार कर देना चाहिए।
उनका यह भी कहना है कि दिल्ली पुलिस से उलझने व महिलाओं को अपमानित करने के मामले में कानून के शिंकजे में फंसे अपने मंत्री को बचाने के लिए धरने पर बैठ कर मुख्यमंत्री ने दिल्ली में अराजकता फैला कर अपने पद की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने के साथ ही संवैधानिक संकट पैदा भी कर दिया है। ऐसा करके अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद एक निश्चित समयावधि में जन-लोकपाल विधेयक विधेयक न पारित कर पाने के कारण अपनी जिम्मेदारी से भी बच गए हैं।

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