मुलायम व लालू के बाद अब नितीश की मुस्लिम मसीहाई

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Lalu Nitishतनवीर जाफ़री
जनता दल युनाईटेड द्वारा भारतीय जनता पार्टी से अपना नाता तोडऩे के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) बिखर चुका है। जेडीयू व बीजेपी के मध्य आई दरार का प्रभाव बिहार सरकार पर भी पड़ा तथा नितीश कुमार की सरकार ने अपने पूर्व सहयोगी भाजपा से पल्ला झाड़ कर चार निर्दलीय विधायकों का समर्थन लेकर विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर दिया। एनडीए के इन दो प्रमुख घटक दलों के मध्य आई दरार का कारण गुजरात के मुख्यमंत्री तथा भारतीय जनता पार्टी द्वारा पिछले दिनों 2014 के लोकसभा चुनावों हेतु बनाए गए चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख नरेंद्र मोदी हैं। भारतीय जनता पार्टी जहां नरेंद्र मोदी की हिंदुत्ववादी छवि को राष्ट्रीय स्तर पर भुनाने का प्रयास कर रही है वहीं नितीश कुमार अथवा उन जैसे और कई धर्मनिरपेक्ष नेता नरेंद्र मोदी का विरोध करने पर उतारू हैं। नितीश कुमार ने तो भाजपा के सहयोग से चलने वाली अपनी सरकार के दौरान कई बार नरेंद्र मोदी के बिहार आने पर भी आपत्ति दर्ज कराई। यहां तक कि बिहार में हुए पिछले विधान सभा चुनावों में भी नितीश कुमार के प्रयासों से ही मोदी चुनाव प्रचार हेतु बिहार नहीं जा सके। सवाल यह है कि नितीश कुमार द्वारा नरेंद्र मोदी का विरोध किया जाना वास्तव में सांप्रदायिकतावादी शक्तियों का विरोध माना जाए या फिर ऐसा कर नितीश कुमार मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितैषी होने की अपनी अमिट पहचान बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
गौरतलब है कि देश की स्वतंत्रता से लेकर अब तक मुस्लिम समाज के पास राष्ट्रीय स्तर का ऐसा कोई भी मुस्लिम नेता नहीं रहा है जिसे मुस्लिम समाज अपना रहनुमा स्वीकार कर सके। बजाए इसके लालू प्रसाद यादव व मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने समय-समय पर देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाने की गरज़ से कुछ ऐसे कदम उठाए जिनके चलते मुस्लिम समाज किसी स्वधर्मी नेता को अपना नेता मानने के बजाए इनके नेतृत्व पर विश्वास करने को तैयार हो गया। और आज भी देश का मुस्लिम समाज मुलायम सिंह यादव व लालू प्रसाद यादव पर अन्य नेताओं अथवा दलों की तुलना में कहीं अधिक विश्वास करता है। सर्वविदित है कि मुलायम सिंह यादव ने नवंबर 1990 में उग्र हिंदुत्ववादी भीड़ को विवादित बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने से उस समय रोक दिया जबकि वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने अपने पद की गरिमा तथा संविधान की रक्षा करते हुए कारसेवकों की भीड़ को अयोघ्या स्थित विवादित क्षेत्र में जाने से रोकने के लिए पुलिस से फायरिंग तक करवा दी थी। परिणामस्वरूप कई लोगों की जानें भी गई थीं। परंतु बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा बच गया। इस प्रकार का सख्त एवं संवैधानिक कदम उठा कर मुलायम सिंह यादव ने देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को इस बात का सुबूत दे दिया था कि वे वास्तव में धर्मनिरपेक्षतावादी समाजवादी नेता हैं तथा सांप्रदायिक शक्तियों तथा उग्र विचारधारा रखने वाली भीड़ से नहीं घबराने वाले। और मुलायम सिंह यादव के इसी कदम ने उन्हें मुस्लिम अल्पसंख्यकों में लोकप्रिय नेता बना दिया था। उनकी यह पहचान आज तक कायम है तथा समाजवादी पार्टी की सफलता व देश की राजनीति में सपा के आगे बढऩे का मुख्य कारण भी उसे उत्तर प्रदेश में मिलने वाला भारी समर्थन है।
इसी प्रकार लालू प्रसाद यादव अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी की हिंदुत्ववादी की अलख जगाने वाली रथ यात्रा को 23 अक्तूबर 1990 को उस समय बाधित कर दिया था जबकि अडवाणी सोमनाथ से अयोघ्या की यात्रा पर जाते हुए बिहार के समस्तीपुर क्षेत्र से गुज़र रहे थे। उन दिनों अडवाणी की यह रथयात्रा देश के जिन-जिन क्षेत्रों से होकर गुज़र रही थी उनमें से अधिकांश क्षेत्रों में सांप्रदायिक तनाव फैलता जा रहा था। कई जगहों पर सांप्रदायिक दंगे,पथराव व आगजऩी जैसी वारदातें भी हो चुकी थीं। ऐसे में लालू यादव ने उग्र हिंदुत्ववादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के इरादे से निकले अडवाणी को गिरफ्तार कर लिया तथा उनकी आगे की रथयात्रा को रोक कर अपने धर्मनिरपेक्ष होने का सुबूत दिया। और इस प्रकार मुलायम सिंह यादव की ही तरह वे भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों को यह समझा पाने में सफल रहे कि मुस्लिम समाज का हितैषी तथा कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी शक्तियों का उनसे बड़ा दुश्मन और कोई नहीं। और इसी  एम  वाई अर्थात् मुस्लिम यादव समीकरण ने उत्तर प्रदेश व बिहार में मुलायम सिंह यादव तथा लालू प्रसाद यादव को अपने-अपने राज्यों का एकछत्र धर्मनिरपेक्ष नेता बना दिया। उत्तर प्रदेश में आए कई राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद मुलायम सिंह यादव अब भी मुस्लिम समुदाय के दिलों पर राज कर रहे हैं। यहां तक कि वे इसी मार्ग पर चलते हुए अपने पुत्र अखिलेश यादव को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना पाने में भी सफल रहे हैं। परंतु बिहार में लालू प्रसाद यादव की लोकप्रियता पर ज़ोरदार बट्टा लगा है। इसके कारण उनके शासन में बिहार में फैला भ्रष्टाचार,अराजकता,विकास कार्यों का गति न पकडऩा तथा राज्य में असामाजिक तत्वों का मज़बूत होना आदि कई हैं। परंतु इन सबके बावजूद बिहार के मुस्लिम अल्पसंख्यकों में लालू यादव का जादू अब भी बरकरार है।
लालू प्रसाद यादव को सत्ता से हटाने के लिए जनता दल युनाईटेड ने भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर उन्हें सत्ता से बेदखल करने में सफलता प्राप्त की। परंतु नितीश कुमार ने अपने पिछले शासनकाल में स्वयं को मीडिया मैनेजमेंट के द्वारा कुछ इस प्रकार पेश किया कि उन्हें मीडिया,सुशासन बाबू तथा विकास बाबू के नामों से संबोधित करने लगा। उधर देश के सभी राज्यों में बिजली,सडक़, पानी के क्षेत्र में होने वाले विकास की छाया बिहार पर भी पड़ती दिखाई देने लगी। मनरेगा योजना का भी बिहार पर अच्छा प्रभाव पड़ा। नितीश कुमार ने बड़ी चतुराई से इन सभी योजनाओं तथा विकास का सेहरा अपने सिर पर बांध लिया। परिणामस्वरूप दूसरे विधानसभा चुनाव में अर्थात् वर्तमान नितीश सरकार के गठन में भाजपा को तुलनात्मक रूप से कम सफलता मिली तथा सरकार में भी उसकी हिस्सेदारी पहले से कम रही। नितीश कुमार अब पूरी तरह जनता दल युनाईटेड के राज्य में आत्मनिर्भर होने का गेम खेलने में जुट गए। ऐसे में उन्हें लालू यादव के पक्ष में खड़े उन मुस्लिम मतों की दरकार थी जोकि उन्होंने लाल कृष्ण अडवाणी को गिरफ्तार करने के बाद अर्जित किए थे। ज़ाहिर है नितीश को इसके लिए कोई उसी प्रकार का मास्टर स्ट्रोक खेलने की ज़रूरत थी जैसे कि मुलायम सिंह यादव तथा लालू प्रसाद यादव द्वारा सही समय पर खेले गए थे।
2002 के गुजरात दंगों के दौरान तथा बाद में नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार सत्ता का दुरुपयोग करते हुए दंगों में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाते हुए सरकारी तंत्रों का प्रयोग कर राजय में अल्पसंख्यक मुसलमानों का नरसंहार कराए जाने का दृश्य प्रस्तुत किया ऐसा खेल देश के किसी भी नेता द्वारा यहां तक कि आरएसएस,जनसंघ अथवा भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता द्वारा भी कभी नहीं खेला गया। नरेंद्र मोदी की 2002 के गुजरात नरसंहार में पक्षपातपूर्ण भूमिका के लिए उनकी विश्वस्तर पर आलोचना हुई। ज़ाहिर है एक शासक द्वारा खुलकर एक समुदाय विशेष के विरुद्ध होने वाले नरसंहार को संरक्षण देना तथा 2002 के बाद भी अगले कई वर्षों तक किसी न किसी बहाने उस एजेंडे को जारी रखना नरेंद्र मोदी के प्रति मुस्लिम समाज के दिल में नफरत पैदा करने के लिए काफी था। और नरेंद्र मोदी के प्रति मुस्लिम अल्पसंख्यकों की नफरत का राजनैतिक लाभ उठाना भी अपने-आप में एक बड़ी राजनैतिक कला से कम नहीं। ज़ाहिर है नितीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के प्रबल विरोध को अपने पक्ष में एक शुभ अवसर समझते हुए कई प्रमुख अवसरों पर यह जताने की कोशिश की कि मोदी से वे भी उतनी ही नफरत करते हैं जितना कि देश का मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज करता है।
और इसी दिशा में आगे बढते हुए नितीश कुमार ने पहले तो नरेंद्र मोदी को विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार में चुनाव प्रचार हेतु आने से रोक दिया। उसके पश्चात गुजरात सरकार द्वारा कोसी नदी में आई प्रलयकारी बाढ़ के समय दी गई धनराशि को वापस करने जैसा गैर ज़रूरी कदम उठाकर पुन: नरेंद्र मोदी से फासला दिखाने की कोशिश की। और पिछले दिनों जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपनी चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया तो संभवत: नितीश कुमार ने इसे भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता तोडक़र अल्पसंख्यकों में अपने प्रति हमदर्दी व प्यार पैदा करने का अंतिम व स्वर्णिम अवसर समझा। उधर मात्र चार भाजपा विधायकों द्वारा नितीश सरकार को दिए जा रहे समर्थन का भी पुख्ता प्रबंध नितीश द्वारा चार स्वतंत्र विधायकों को अपने पक्ष में कर किया जा चुका था। लिहाज़ा नितीश कुमार ने सही अवसर पर सही मुद्दे को भांपते हुए राजग से अपना 17साल पुराना नाता मात्र नरेंद मोदी को मुद्दा बनाकर तोड़ लिया। इस प्रकार नितीश कुमार मोदी विरोध के नाम पर अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में अपनी लोकप्रियता और अधिक बना पाने में कामयाब रहे। राजनीति के भी अजब निराले रंग हैं कि कल तक भाजपा के सहयोग से राज्य में सत्ता तक पहुंचने वाले तथा केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में मंत्री पद पर आसीन रहने वाले यहां तक कि 2002 के गुजरात दंगों के समय भी वाजपेयी सरकार में अपना पद न छोडऩे वाले नितीश कुमार आज लालू प्रसाद यादव तथा मुलायम सिंह यादव की ही तरह तीसरे मुस्लिम मसीहा के रूप में अपनी पहचान बनाना चाह रहे हैं।

2 COMMENTS

  1. तनवीरजी,

    आपने लेख में कई बार ज़िक्र किया की मुलायम व लालू ने फलां फलां काम करके अपनी धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया और उनकी यह पहचान आज तक कायम है.. क्या आप इस बात से इत्तेफाक रखते हैं? क्या ये नेता गोल टोपी पहन रोज़ा इफ्तारी में शामिल हो, या तथाकथित धार्मिक नेताओं का विरोध कर धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं? वैसे मैं आज तक नहीं समझ पाया की धर्म निरपेक्षता की परिभाषा क्या है… सभी धर्मों का एक समान अनुसरण? क्या धर्मनिरपेक्षता का ठेका सिर्फ हिन्दुओं के माथे क्यों मढ़ा जाता है? मुझे मुलायम, लालू, नितीश और इन जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष, वोट के लालची नेताओं से बहुत चिढ होती है जो… जिधर वोट उधर का रुख कर लेते हैं… और जनता का मुर्ख बनाते हैं…जिससे समुदायों के बीच और ज्यादा दूरियां बढ़ जाती है.

  2. अभी तो कई और नेता अपनी दुकान चमकाने मुस्लिम मसीहाई बन कर उभरेंगे .पर समाज को धरम व जाती के आधार पर बाँट कर वे कितनी सत्ता पाएंगे व सुख भी, इसके लिए इंतजार कर देखना होगा,इन्हें क्या मिलेगा यह बात अलग है,और समाज के बीच विभाजन की कीमत क्या होगी यह अलग.ऐसा लगता है कि इसकी कीमत आने वाली पीढ़ियों को ही चुकानी होगी.यह तो अपना खेल खेल ही रहें हैं.

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