पोस्टरबॉय एनकाउंटर के बाद …..

समाचारों से ज्ञात हो रहा है कि कश्मीरी आतंकियों का पोस्टरबॉय बुरहानबानी जो पिछले वर्ष 8 जुलाई को मुठभेड़ में मारा गया था कि पहली वरसी (8.7.2017 ) पर बदला लेने के लिए पाकिस्तानी सेना व आतंकी अत्यधिक उग्र व आक्रामक हो रहे है | जिहाद के लिए ये मजहबी आतंकी अपने एक एक साथी की मौत का बदला लेने के लिए कैसा भी दुस्साहस करने के लिए संकल्पित है | परन्तु क्या यह हम देशवासियों के लिए संतोषजनक है कि हम अपने सैनिको के बलिदानों पर बार बार शोक सभा व केंडल मार्च द्वारा निंदा करने तक ही सीमित रह जाते है | क्या हमारी रक्त वाहिनियों में उबाल लाने वाले राष्ट्रभक्ति के जीवाणुओं का अभाव हो गया है या हम इतने कर्तव्यविमुख हो गए है कि अपने रक्षको के प्रति केवल संवेदनाओं के सरलीकरण का मार्ग अपना कर समाचार पत्रों में छपते रहें ? क्यों नहीं हम अपने वीर सैनिकों के निरन्तर हो रहें बलिदानों पर आक्रोशित  होते ?  ” वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः ”  का आग्नेय मन्त्र उदघोष करने वालों की रगो में उष्णित रक्त कब तक शीतल व शांत रहेगा ?
यह बहुत कष्टकारी व पीडादायक है कि लगभग एक वर्ष से कश्मीर घाटी व सीमाओं पर आतंकियों व पाक सेनाओं के निरन्तर आक्रमणों से सुरक्षाबलों और सामान्य नागरिकों के हो रहे बलिदानों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह ठीक है कि सीमापार से घुसपैठ में कुछ कमी आयी है परन्तु सीमाओं के दोनों ओर आतंकियों को मारने में सफलता मिलने के बाद भी हम  उनको नियंत्रित नहीं कर पा रहें है ? हम अपने को सुरक्षित रखते हुए तथाकथित तैयारियां करने तक ही सीमित रहना चाहते है ? हम उन रक्त पिपासु जिहादियों पर आक्रमणकारी नीतियों का विचार ही नहीं करते, क्यों ? कब तक हमारा नेतृत्व हमको धैर्य व संयम रखकर देखो और देखते रहो का पाठ पढाता रहेगा ? जबकि इन मजहबी आतंकियों का जिहाद के लिए न थमने वाला अघोषित युद्ध ही उनका संकल्प है | उनका यह छदम युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक कश्मीर में शरियत का कानून या निजामें मुस्तफा की स्थापना नहीं हो जायेगी | जिस प्रकार दुनिया के अनेक देशों में पकडे व मारे जाने वाले आतंकी यह स्वीकार करते है कि वे यह जिहाद अल्लाह के लिए कर रहें है, उसी प्रकार कश्मीर के आतंकियों का भी कश्मीर का इस्लामीकरण करना ही मुख्य ध्येय है |
जिहाद एक ऐसा युद्ध है जिसकी कोई बंधी हुई नियमित सेना नही होती और न ही कोई सीमा और नियम कानूनों का बंधन होता | जबकि हमारी सेनाओं व अन्य सभी सुरक्षाबलों को अनेक नियमों और कानूनों में बंध कर पूर्ण अनुशासन में रहना होता है |  साथ ही हमारा शासन व प्रशासन भी अंतरराष्ट्रीय नियमों व मानवाधिकारवादियों के दबाव में आकर इस अघोषित युद्ध के उत्तरदायी आतंकियों को उन्ही की भाषा में उत्तर न देकर आत्मघात सहने को विवश है | लेकिन इसका कुछ तो उपाय करना ही होगा | समझदार व सभ्य समाज युद्ध का विकल्प अवश्य ढूंढते है परन्तु जब युद्ध पिपासु आक्रमणकारी ही बना रहें तो उसको नष्ट करने के लिए युद्ध ही एकमात्र विकल्प शेष रह जाता है | इसलिये इसका इलाज गुप्तरुप से या वार्ताओं का सहारा लेकर नही किया जा सकता। अब जब हमारी केन्द्रीय सरकार मज़हबी आतंकवाद का समूल नाश करने के लिए स्वयं कटिबद्ध है और विश्व के अनेक देशों से इस महामारी को समाप्त करने में सहयोग लेने व देने के लिए भी सक्रिय है तो फिर हमें अपनी ही भूमि से इस जिहादरुपी महामारी का एनकाउंटर करके जड़ से मिटाने में कैसा संकोच ?
आज यह एक और गंभीर व सोचनीय बिंदू है कि इन संकटमय व विपरीत परिस्थितियों में भी हमको अस्थायी व अल्पकालिक रक्षामंत्री के भरोसे निश्चिन्त होना पड़ रहा है, क्यों ? लेकिन अब सरकार को अपने राजनैतिक स्वार्थ के स्थान पर देशहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी क्योंकि अल्पकालिक राजनैतिक लाभ दीर्धकाल में विनाशकारी बन सकता है।

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