उमा की वापसी के बाद अब कतार में गोविन्दाचार्य

हर्षवर्धन पाण्डे

“जैसे उडी जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवे”….. २ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी में अपनी वापसी पर इस साध्वी ने कुछ इन्ही पंक्तियों में अपनी वापसी को मीडिया के खचाखच भरे समारोह में बयां किया। पार्टी के आला नेताओं के तमाम विरोधो के बावजूद भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी उमा को पार्टी में लाने में कामयाब हो गए। इस विरोध का असर उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी देखने को मिला जिसमे पार्टी के जेटली, स्वराज, जैसे कई बड़े नेता शामिल तक नही थे। इन सभी की गिनती उमा के धुर विरोधियो के रूप में की जाती थी।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पार्टी के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अध्यक्ष प्रभात झा तक को इसकी जानकारी नही लगी। प्रभात झा का तो यह हाल था कि उमा की वापसी से २ घंटे पहले जब उनसे पार्टी में उनकी वापसी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा इस पर कुछ नही कहना है। परन्तु २ घंटे बाद वही झा और मुख्यमंत्री ने इस विषय पर गेंद केन्द्रीय नेताओं के पाले में फेकते हुए कहा जब भी कोई नेता पार्टी में आता है तो उसका स्वागत होता है। घर वापसी को लेकर उमा के पक्ष में माहौल लम्बे समय से बन रहा था लेकिन भाजपा के अन्दर एक तबका ऐसा था जो उमा की पार्टी में वापसी का विरोध कर रहा था।

दरअसल उमा की वापसी का माहौल जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी के बाद बनना शुरू हो गया था। उस समय उमा भारती भैरो सिंह शेखावत के निधन पर जसवंत के साथ राजस्थान गई थी। संघ ने दोनों की साथ वापसी की भूमिका तय कर ली थी लेकिन उमा विरोधी खेमा उनकी वापसी की राह में रोड़े अटकाते रहा।

पिछले साल उमा भारती छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुख्यमंत्री के पिता की तेरहवी में आडवानी और राजनाथ सिंह के साथ नजर आई तो फिर उमा की पार्टी में वापसी को बल मिलने लगा। इसके बाद पार्टी में गडकरी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उनका मोहन भागवत के साथ मुलाकातों का सिलसिला चला ॥ खुद भागवत ने भी पार्टी से बाहर गए नेताओं की वापसी का बयान दिया तो इसके बाद उमा की वापसी की संभावनाओ को एक बार फिर बल मिलना शुरू हुआ। लेकिन मध्य प्रदेश के भाजपा नेता खुले तौर पर उनकी वापसी पर सहमति नही देते थे क्युकि उनको मालूम था अगर उमा पार्टी में वापसी आ गई तो वह मध्य प्रदेश सरकार के लिए खतरा बन जाएँगी।

उमा ने राम रोटी के मुद्दे पर भाजपा से किनारा कर लिया था। कौन भूल सकता है जब उन्होंने आज से ६ साल पहले भरे मीडिया के सामने आडवानी जैसे नेताओं को खरी खोटी सुनाई थी और पार्टी को मूल मुद्दों से भटका हुआ बताया था। लेकिन इस दौर में उन्होंने संघ परिवार से किसी भी तरह से दूरी नही बड़ाई। शायद इसी के चलते संघ लम्बे समय से उनकी पार्टी में वापसी का हिमायती था।

वैसे भी उमा भारती पार्टी में कट्टर हिंदुत्व के चेहरे की रूप में जानी जाती रही है। कौन भूल सकता है अयोध्या के दौर को जब साध्वी के भाषणों ने पार्टी में नए जोश का संचार किया था। उमा की इसी काबिलियत को देखकर पार्टी हाई कमान ने उनको २००३ में मध्य प्रदेश में उतारा जहाँ उन्होंने दिग्विजय सिंह के १० साल के शासन का खात्मा किया। इसके बाद २००४ में हुबली में तिरंगा लहराने और सांप्रदायिक सौहार्द को नुकसान पहुचाने के कारण उनके खिलाफ वारेंट जारी हुआ और उन्होंने सी ऍम पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

भरी सभा में भाजपा के नेताओं को कैमरे के सामने खरी खोटी सुनाने के बाद उमा ने मध्य प्रदेश में अपनी अलग भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली। २००८ के चुनावो में इसने ५ सीटे प्रदेश में जीती। उम्मीद की जा रही थी कि उमा की पार्टी बनने के बाद भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा परन्तु ऐसा नही हुआ। इसके बाद से उमा के भविष्य को लेकर सवाल उठने लगे। हर बार उन्होंने मीडिया के सामने भाजपा को खूब खरी खोटी सुनाई परन्तु कभी भी संघ को आड़े हाथो नही लिया। शायद इसी के चलते संघ में उनकी वापसी को लेकर खूब चर्चाये लम्‍बे समय से होती रही।

प्रदेश के मुख्यमंत्री शिव राज सिंह चौहान और उमा भारती में शुरू से छत्तीस का आकडा रहा है। उमा की वापसी का विरोध करने वालो में उनके समर्थको का नाम भी प्रमुखता के साथ लिया जाता रहा है। शिव के समर्थक उनकी वापसी के कतई पक्ष में नही थे इसी के चलते उनकी वापसी बार बार टलती रही। लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व के आगे शिव के समर्थको की इस बार एक नही चली। इसी के चलते पार्टी के किसी नेता ने खुलकर उनकी वापसी पर ख़ुशी का इजहार नही किया।

उमा की वापसी पर सबसे ज्यादा चिंता मध्य प्रदेश में थी। राजनीतिक विश्लेषको का मानना था अगर उमा भाजपा में वापस आ गई तो शिवराज का सिंहासन खतरे में पढ़ जायेगा।

खुद शिवराज को गौर के समय जब सिंहासन सौपा गया था तो उमा ने केन्द्रीय नेताओं के इस फैसले का खुलकर विरोध किया था। अब उमा की वापसी से शिवराज के समर्थको की चिंता बढ़ गई है। उनके पार्टी में आने के बाद बैखोफ होकर शासन चला रहे मुख्यमंत्री शिवराज के लिए आगे की डगर आसान नही दिख रही। क्‍योंकि प्रदेश में शिव के असंतुष्टो का एक बड़ा खेमा मौजूद है। जो किसी भी समय उमा के पाले में जाकर शिवराज के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है। मध्य प्रदेश में आज भी उमा के समर्थको की कमी नहीं है। पार्टी हाई कमान भले ही उनको उत्तर प्रदेश के चुनावो में आगे कर रहा है लेकिन साध्वी अपने को मध्य प्रदेश से कैसे अलग रख पायेगी यह बड़ा सवाल बन गया है।

उमा की वापसी में इस बार नितिन गडकरी और संघ की खासी अहम भूमिका रही है। पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के मिशन २०१२ की कमान सौपी है। यहाँ भाजपा का पूरी तरह सफाया हो चुका है। कभी उत्तर प्रदेश की पीठ पर सवार होकर पार्टी ने केंद्र की सत्ता का स्वाद चखा था। आज आलम ये है कि यहाँ पर पार्टी चौथे स्थान पर जा चुकी है। १६ वी लोक सभा में दिल्ली के तख़्त पर बैठने के सपने देख रही भाजपा ने उमा को “ट्रम्प कार्ड” के तौर पर इस्तेमाल करने का मन बनाया है।

उत्तर प्रदेश में अब उमा भारती राहुल गाँधी को सीधे चुनौती देंगी। अपनी ललकार के दवारा वह मुलायम और माया के सामने हुंकार भरेंगी। अगर उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं का साथ उमा को मिला तो वह पार्टी की सीटो में इस बार इजाफा कर सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में भी भाजपा गुटबाजी की बीमारी से ग्रसित है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप साही की राह अन्य नेताओं से जुदा है। कलराज मिश्र के हाथ चुनाव समिति की कमान आने को राज्य के पार्टी के कई नेता नही पचा पा रहे है। मुरलीमनोहर जोशी, राजनाथ सिंह जैसे नेता केंद्र की राजनीती में रमे है ऐसे में उमा को मुश्किलों का सामना करना होगा। सबको साथ लेकर चलने की एक बड़ी चुनौती उनके सामने है। उत्तर प्रदेश की जंग में उमा के लिए विनय कटियार और वरुण गाँधी और योगी आदित्यनाथ जैसे नेता निर्णायक साबित होंगे। आज भी इनका प्रदेश में अच्छा खासा जनाधार है॥ हिंदुत्व के पोस्टर बॉय के रूप में यह अपनी छाप छोड़ने में अहम् साबित हो सकते है।

भले ही प्रेक्षक यह कहे कि भाजपा छोड़कर चले गए नेता जब दुबारा पार्टी में आते है तो उनकी कोई पूछ परख नही होती। साथ ही वे जनाधार पर कोई असर नही छोड़ पाते लेकीन उमा के मामले में ऐसा नही है। वह जमीन से जुडी हुई नेता है। अपने ओजस्वी भाषणों से वह भीड़ खींच सकती है। कल्याण सिंह के जाने के बाद वह पार्टी में पिछडो के एक बड़े वोट बैंक को अपने साथ साध सकती है।

उमा की वापसी के बाद अब गोविन्दाचार्य की भाजपा में वापसी की संभावनाओ को बल मिलने लगा है। उमा के आने के बाद अब संघ गोविन्दाचार्य को पार्टी में वापस लेने की कोशिशो में लग गया है। गडकरी कई बार उनकी वापसी को लेकर बयान देते रहे है परन्तु उमा की वापसी न हो पाने के चलते आज तक उनकी भी पार्टी में वापसी नही हो पायी।

गोविन्दाचार्य को साथ लेकर पार्टी कई काम साध सकती है। वह अभी रामदेव के काले धन से जुड़े मसले पर उनके साथ केंद्र सरकार से लम्बी लडाई लड़ रहे है…..इस समय केंद्र सरकार के खिलाफ व्यापक असंतोष है। भाजपा आम जनमानस का साथ इस समय लेना चाहती है। इसी के चलते संघ रामदेव का पीछे से साथ दे रहा है। क्योंकि उसे लगता है भ्रष्टाचार का मुद्दा उसे केंद्र की सवारी करा सकता है। ऐसे में संघ परिवार अपने पुराने साथियों को पार्टी में वापस लेना चाहता है। उमा की वापसी के बाद अब संघ परिवार गोविन्दाचार्य को अपने साथ लाने की कोशिसो में जुट गया है। हरिद्वार के एक महंत की माने तो उमा के आने के बाद अब भाजपा में गोविन्दाचार्य की जल्द वापसी हो सकती है। खुद उमा को इसके लिए संघ मना रहा है। अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो गोविन्दाचार्य भी भाजपा में होंगे।

उमा को गंगा प्रकोष्ठ का संयोजक बनाकर भाजपा ने अपने इरादे एक बार फिर जता दिए है। उत्तर प्रदेश पर गडकरी की खास नजरें है। पार्टी हिंदुत्व की सवारी कर पिछड़ी जातियों की पीठ पर सवार होकर यू पी में अपना प्रदर्शन सुधारने की कोशिशो में लग गई है। देखना होगा उमा में चमत्कार का अक्स देख रहे भाजपा हाई कमान की उम्मीदों में वह इस बार कितना खरा उतरती है?

( लेखक युवा पत्रकार है और भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका “विहान ” के स्थानीय संपादक है।)

1 COMMENT

  1. उमा के बाद गोबिन्दचार्य जैसे विचारको की भाजपा में वापसी एक शुभ संकेत है,गोबिन्दचार्य जब पटना के प्रचारक थे तो उनकी स्कूटर चोरी हो गई थी,उन्होंने पुलिस को सूचना देने के बजाय अपने नेटवर्क के बल पर उसी दिन स्कूटर को वापस पा लेते है शायद यह उनका विस्वास था,यही विस्वास भाजपा को फिर से चाहिए ,

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