राष्ट्र से बड़ा नहीं अफजल ?

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प्रमोद भार्गव

सामंती युग में जिस तरह से देश के वजूद के प्रतीक दुर्ग हुआ करते थे और दुर्ग पर हमले का मतलब राष्ट्र पर हमला माना जाता था,उसी तरह किसी भी प्रजातांत्रिक देश में राष्ट्रीय असिमता का प्रतीक संसद भवन होते हैं। संसद पर हमले के सीधे-सीधे मायने देश पर हमला है। मसलन संसद पर सशस्त्र हमले के आरोपी अफजल गुरू की फांसी की सजा किन्हीं अर्थों में कम करने के मायने होंगे, आतंकवाद के आगे घुटने टेक देना और आतंकवाद को प्रोत्सहित करना। इस परिप्रेक्ष्य केंद्र्रीय मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा का अफजल की सजा फांसी से उम्र कैद में बदलने का जो बयान आया है, उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। हालांकि कागे्रंस प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने तुरंत इस बयान का खण्डन करते हुए कहा है कि अफजल की सजा फांसी से कम हो ही नहीं सकती। किंतु यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और बचकाना हरकत है कि हमारे देश में चंद राजनेता,चंद सामाजिक व स्वंयसेवी संगठन और कुछ मीडिया घराने अपने को थोथी चर्चाओं में बनाए रखने के लिए फांसी को अमानवीय कृत्य बताकर इसके पक्ष में बेहूदी दलीलें पेश करते रहते हैं। ऐसी चर्चाएं सांप्रदायिक वैमस्यता फैलाने का भी काम करती है।

आम जतना जिस तरह से मुंबर्इ में हुए 2611 के हमले के अतिप्रतीक्षत अरोपी अजमल कसाब को फांसी पर लटका दिए जाने से प्रसन्न हुर्इ, उससे कहीं ज्यादा अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने से होंगे। इस बहुप्रतिक्षित इच्छा के पीछे खुशी जताने के कर्इ कारण हो सकते हैं। एक तो अफजल गुरू भारतीय नागरिक है, इस नाते उसने राष्ट्र के साथ द्रोह किया है। अफजल ने हमले की भूमिका सीधे-सीधे संसद के उस भवन पर करने की रची थी, जो देश की संप्रभुता और स्वंतत्रता का प्रतीक है। इस हमले से न केवल देश सकते में था, बल्कि पूरी दुनिया आतंकवादियों की बढ़ी ताकत से रूबरू होकर हैरान थी,कि चंद आतंकवादी किसी देश की संसद पर हमला करने का भी दुस्साहस जुटा सकते हैं। तत्काल तो भारतीय संसद और अटल बिहारी बाजपेयी की राजग सरकार ने भी इसे गंभीरता से लिया। पकिस्तान से सटी सीमाओं की ओर सेनाओं ने कूच कर दिया। लेकिन अमेरिकी दबाव में राजग सरकार पाकिस्तान के विरूद्ध कोर्इ कड़ा कदम नहीं उठा पार्इ। और अटल बिहारी बाजपेयी अमेरिका की कूटनीतिक पराजय के शिकार हो गए। यदि वाजपेयी सख्त कदम उठाने की इच्छा शक्ति जताते तो वे इंदिरा गांधी के साहस की तरह देश के लिए दूसरा आर्दश उदाहण बन गए होते। इंदिरा गांधी ने अमेरिका की परवाह न करते हुए 1971 में न केवल पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर किया,बल्कि उसके टुकड़े करके एक नए राष्ट्र बांग्लांदेश को असितत्व में ला दिया था।संसद पर हमले के समय पूरे देश मे पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने का माहौल पूरे देश में बन गया था, लेकिन अटल बिहारी पाकिस्तान को सबक सिखाने में नाकाम साबित हुए।

बहरहाल संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी सजा सर्वोच्च न्यायलय द्वारा भी अपील में बरकरार रखी गर्इ है। लिहाजा उसे जल्द से जल्द फांसी पर लटकाना भी तर्कसंगत व न्यायोचित है। अफजल को फांसी देना उन तमाम पुलिसकर्मियों और बेगुनाह लोगों को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी, जिन्होंने हमलावरों से मुकाबला करते हुए अपने प्राण गवाएं हैं। हालांकि भारत ने 21 नवंबर को कसाब को फांसी पर चढ़ाकर पाकिस्तान समेत दुनिया के सामने यह नजीर पेश कर दी है कि वह इस तरह के हमलों को बर्दाश्त करने वाला नहीं है। यही वजह रही कि जब कसाब को फांसी पर चढ़ाने वाली खबर दुनिया में फैली तो न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में रह रहे भारतीयों ने सामूहिक रूप से एकत्रित होकर वंदे मातर्रम के नारे लगाए और संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू का इंसाफ भी जल्द किए जाने की मांग की।

बेनी प्रसाद वर्मा की मंशा जो भी हो,अफजल भी अब फांसी के करीब है। हालांकि संसद पर हमला 13 दिसंबर 2001 में हुआ था और मुबंर्इ पर 26 नबंवर 2008 को। इस विंसगति के चलते यह कोशिश तेज हुर्इ है कि अफजल की दया याचिका राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जल्द से जल्द खारिज करें। इसके पहले शीर्श न्यायालय अफजल की पुनर्विचार याचिका खारिज कर चुका है। कुछ समय पहले ही दिल्ली के मुख्य सचिव का बयान आया था कि दिल्ली सरकार गृह मंत्रालय को अफजल की फांसी से जुड़ी फाइल भेज चुकी है, वह इस बात के लिए भी अडिग है कि अफजल को फांसी होनी ही चाहिए। दूसरी तरफ कांग्रेस के महासचिव दिगिविजय सिंह भी अफजल की फांसी की मांग कर्इ मर्तबा कर चुके हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इन सब मांगो को गंभीरता से लेते हुए गृहमंत्री सुशील कुमार शिदें से फांसी की सजा पाए अफजल की दया यचिका पर राय मांगी है। संभावना है संसद का शीत सत्र बीताने के बाद इस याचिका पर अंतिम फैसला जल्द सुना दिया जाएगा। और फिर एक दिन कसाब की तरह अचानक मीडिया पर खबर आएगी कि गोपनीय ढ़ंग से अफजल को फांसी पर लटका दिया गया।

कसाब की तरह अफजल को भी गोपनीए ढ़ंग से फांसी पर लटकाया जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारे तथाकाथित मानवाधिकार हनन से जुड़े सामाजिक तथा कुछ गैर सरकारी संगठन मौत की सजा पर न केवल सवाल उठाने लग जाएंगे, बल्कि फांसी स्थल पर पहुंचकर कानूनी कारवार्इ को बाधित करने की गैर कानूनी कोशिशे भी कर सकते हैं ? हालांकि भारत ने मृत्युदण्ड को देश में बरकरार रखने की पहल की है। कसाब के फांसी पर लटकाए जाने के ठीक एक दिन पहले ही भारत ने मृत्युदण्ड समाप्त करने संबंधी सयुक्ंत राष्ट्र के प्रस्ताव को नकारते हुए हस्ताक्षर नहीं किए थे। जबकि इस प्रस्ताव के पक्ष में 110 देश और विपक्ष में केवल 39 देश थे।

फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे 61 पशिचमी और ऐसे योरोपीय देश हैं, जो मौत की सजा को अपने देशो में समाप्त कर चुके हैं। जबकि 70 ऐसे देश हैं, जिनमें मृत्युदण्ड खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन मुजरिम को फांसी पर नहीं लटकाते हैं। संयुक्त राष्ट्र का यह प्रस्ताव अहिंसा के उदात्त व मानवीय सिद्धांत पर आधारित है, लेकिन आदर्श और यथार्थ में अंतर होता है। अहिंसा का विस्तार महावीर, बुद्ध और महात्मा गांधी के विचारों के मार्फत ही पूरी दुनिया में भारत – भूमि से हुआ है, लेकिन आज भारत समेत बि्रटेन, अमेरिका व चीन जैसे षकित संपन्न देश भी आतंकवाद की चपेट में हैं। भारत के लिए तो बीते दो दशक से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद एक जबर्दष्त चुनौती बना हुआ है। शायद इसीलिए देश की सर्वोच्च न्यायालय ने उम्र कैद को नए सिरे से परिभाशित करते हुए कहा है कि आजीवन कारावास का मतलब दोशी की जिंदगी समाप्त होने तक जेल में रहना है, न कि 14 अथवा 20 साल कारावास में बिताना। हालांकि संयुक्त राष्ट्र की यह तीसरी कोशिश है, जब उसने मृत्युदण्ड को खत्म करने का प्रस्ताव पारित कराया है।

दरअसल यूरोप के बहुसंख्यक ऐसे देश हैं, जिनमें भारत जैसी सांप्रदायिक, जातीय व उग्रवाद की कोर्इ समस्याएं नहीं हैं। वहां न बहुलतावादी संस्कृति है और न ही एकता में अनेकता। वहां पड़ोसी देशो में सदभाव का माहौल है और बिना पासपोर्ट व वीजा के लोगों की आवाजाही है। इसलिए वे मौत की सजा खत्म करने के तर्क आसानी से गढ़ लेते हैं। जबकि भारत सुरक्षा के मोर्चे पर अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। पाकिस्तान जहां कश्मीर के रास्ते प्रशिक्षित आतंकवादियों को घुसपैठ कराकर भारत की शांति भंग कराने में लगा है, वहीं बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम के मूल निवासी बोडो आदिवासियों की ही बेदखली की भूमिका रच दी है। केवल इसी कारण पिछले छह माह से असम हिंसा की आग में जल रहा है। ऐसे विपरीत हालातों में सोचा ही नहीं जा सकता कि भारत मौत की सजा से तौबा कर ले ?

इन सब नजरियों से जरुरी है कि भारत आतंकवादियों के साथ कड़ार्इ से पेश तो आए, लेकिन फांसी पर लटकाए जाने के वक्त गोपनीयता बरते। क्योंकि भारत को सांप्रदायिक सदभाव भी बनाए रखना है। हालांकि हमारे देश के सार्वजनिक जीवन से जुड़े मुसिलम व इस्लामी व्याख्याकार हमेशा ही आतंकवादी हरकतों को इस्लाम के विरुद्ध बताते रहे हैं। यही कारण है कि कसाब की फांसी के बाद किसी भी मुसिलम संगठन ने उसकी फांसी को और फांसी के बाद दफनाने की कार्रवार्इ को गलत अथवा धर्मविरुद्ध नहीं ठहराया। हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद में छिपे ओसामा बिन लादेन को मारने का आपरेशन कितना गुप्त रखा था। वरना क्या उसे उसी की मांद में घुसकर मारा जाना मुमकिन था ? इसलिए भारत को हर कदम इस सोच-विचार के साथ उठाना चाहिए कि जिससे किसी भी समुदाय को यह गलतफहमी न हो कि उक्त कदम जल्दबाजी में उठाया गया है अथवा कानून की अवहेलना करके उठाया गया है ?

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