पं. कुमार गन्धर्व से मुकेश गर्ग की बातचीत : पहली कड़ी
(यह लंबा साक्षात्कार मैं ने 1990 में दिल्ली के गन्धर्व महाविद्यालय में लिया था. बड़ी मुश्किल से पंडित जी इसके लिए तैयार हुए थे. जब नवभारत टाइम्स में इसका प्रकाशन हुआ तो वह इतने प्रसन्न हुए कि दिल्ली की एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने नवभारत टाइम्स की इस कटिंग को सब पत्रकारों के सामने लहरा कर पूछा था – “हिन्दी को तो छोड़ दीजिए, क्या किसी अन्य भाषा में भी कभी किसी ने मेरे ऊपर ऐसा लिखा है ?” मैं उस प्रेस-कांफ्रेंस में नहीं था, पर यह बात मुझे वहाँ मौजूद इलाहाबाद के संगीतज्ञ पं.शांताराम कशालकर और दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के संगीत-समीक्षक स्वर्गीय श्री आर.एन.वर्मा ने बाद में बताई थी.)
कुमार गन्धर्व यानी हिन्दुस्तानी संगीत का जीता-जागता नया सौंदर्यशास्त्र. कुमार गन्धर्व यानी बग़ावत. घरानों के ख़िलाफ़ बग़ावत. ऐसी बग़ावत जिसने घरानों के नाम पर चली आ रही ‘श्रेष्ठता’ का पर्दाफ़ाश किया. बताया कि नक़ल कर लेने से कोई बड़ा नहीं होता. बड़ा होता है सृजन से, कुछ नया रचने से. “मैं तोताराम नहीं हूँ” — कहना है उनका.
कुमार गन्धर्व की बग़ावत से घरानेदार संगीत के हिमायतियों में खलबली मच गयी. जिन्हें अभिमान था कि संगीत को घरानों ने पनपाया है, उनके सामने अब ऐसा आदमी आ खड़ा हुआ जो कह रहा था कि घरानों की ही वजह से हमारा संगीत नीचे गया है. यह कोई छोटी बात नहीं थी, वह भी आज से चालीस साल पहले.
नतीजा यह कि हर तरफ़ से हमले होने लगे कुमार पर. कोई कहता- “यह भी कोई गाना है इयेSS करके बिल्लियों की तरह आवाज़ निकालना !” (आचार्य बृहस्पति). बहुतों को कुमार के राग-रूपों से शिकायत होने लगी — “अगर राग के परंपरागत रूप की रक्षा नहीं कर सकते तो उसका नाम बदलकर कुछ और क्यों नहीं रख लेते ?” किसी ने इल्ज़ाम लगाया — “मेरे बनाए राग ‘वेदी की ललित’ में तुमने तीव्र निखाद लगा दी और कह दिया लगनगंधार ! हमारे राग के ऊपर तुम एक सुर और नया लगाते हो !!” (पं. दिलीपचन्द्र वेदी). गरज़ यह कि परंपरा के प्रति भावुक लगाव रखने वाला हर संगीतज्ञ कुमार गन्धर्व को एक ख़तरे के रूप में देखने लगा. और यह ग़लत भी नहीं था. कुमार ने उन जड़ों को ज़ोरदार झटका दे दिया था, जिन पर हिन्दुस्तानी संगीत का वटवृक्ष सीना ताने खड़ा था.
क्या सचमुच कुमार परंपरा-विरोधी हैं, इसकी पड़ताल के लिए हमने उन्हीं से पूछा- “कुछ लोगों का आरोप है कि आप परंपरा को नहीं…” इतना सुनना था कि आवेश में आ गए–“परंपरा के ऊपर आप क्यों इतने लट्टू होकर बैठे हैं ? हमको समझ नहीं आता. फिर क्यों नहीं रहते आप पुरानी तरह से ? यह इतना फ़ालतू लफ़्ज़ है. लोग इसमें क्यों इतने अटके हैं? आप आगरा-फ़ोर्ट देखने जाइए न ! मैं तो नकार नहीं कर रहा. हम भी जाते हैं आपके साथ. अच्छा भी लगता है. आपको फिर राजा लोग चाहिए क्या ? फिर बैलगाड़ी चाहिए आपको ? यानी, फिर कुआँ चाहिए क्या? तो फ़्लश-संडास निकाल दीजिये घर से. आपको फ़्लश-संडास भी चाहिए घर में, नल भी चाहिए और कुआँ भी चाहिए. और कुआँ का अभिमान भी छूटना नहीं चाहिए आपको !”
(जारी…)
धन्यवाद सम्पादक जी…
कुमार गन्धर्व-संबंधी इस साक्षात्कार के साथ लेखक-परिचय वाले कॉलम में कम से कम मेरा नाम दिया जाना चाहिए था.
– मुकेश गर्ग