आगरा-लालकिला था कभी-बादलगढ़

राकेश कुमार आर्य

विगत 10 अगस्त 2012 को आगरा के लालकिले को अपने पूरे परिवार के साथ गहराई से देखने का अवसर मिला। यमुना एक्सप्रेस-वे पर यात्रा का आनंद लेने के लिए आगरा जाने का यह कार्यक्रम ज्येष्ठ भ्राता श्री पूज्य देवेन्द्र आर्य जी ने बनाया, यात्री दल में पूज्य ज्येष्ठ भ्राताश्री विजेन्द्र सिंह आर्य मे. वीरसिंह आर्य लेखक स्वयं व श्रीमति शीला आर्या, श्रीमति बलेश आर्या, श्रीमति मृदुला आर्या, श्रीमति ऋचा आर्या, श्री राजकुमार आर्य, श्री अजय कुमार आर्य चि. वरूण आर्य, चि. आशीष आर्य, चि. अमन आर्य, बेटी भावना आर्या, पूजा आर्या, सोनेश आर्या, कुमारी श्रुति आर्या, कुमारी श्वेता आर्या व श्रेया आर्या सम्मिलित थे। यमुना एक्सप्रेस वे को जिस ढंग से बनाया गया है वह सचमुच काबिले तारीफ है। इस पर यात्रा का आनंद वास्तव में ही इस यादगार बन गया। हालांकि अभी यात्रा के लिए आवश्यक सुविधाओं से यह मार्ग अछूता है, लेकिन देर सबेर वह सब भी यहां उपलब्ध हो जाएगी। इस यात्रा में मेरे जेहन में एक बात उतर रही थी कि अतीत में अंग्रेजों और मुसलमानों ने इस देश पर जब शासन किया था तो उनके लिए यह कितना जोखिम भरा रहा होगा? रास्तों की सुविधा नही, दूसरा देश का अपना देश नही भाषा की समस्या और लोगों का असहयोग अलग साथ ही यह भी कि जब सूचना के साधन अधिक नही थे तो अंग्रेजों ने और मुस्लिमों ने यहां के दूर-दराज के क्षेत्रों में कितने लोगों को मौत की नींद सुला दिया होगा? यह भी ज्ञात नही। पूरे देश की स्थिति ही ऐसी रही थी। सचमुच अतीत का हमारा सफर बड़ी ही बीहड़ घाटियों से होकर गुजरा है। हमारे पूर्वज निश्चय ही बहादुर थे। जिन्होंने अति विषमताओं के मध्य रहकर भी अपनी अस्मिता की रक्षा की। मैं उनके लिए बार-बार नमन कर रहा था।

हमने लगभग 2.30 बजे आगरा के लालकिले में प्रवेश किया। महाभारत काल से भी पूर्व से मधुरा नामक नगरी और उसका यह क्षेत्र विख्यात रहा है। बाद में मधुरा मथुरा के नाम से विख्यात हो गया। महाभारत काल में मथुरा के चारों ओर दूर दूर तक 12 वन थे। इनमें से वृंदावन, महावन तो आज भी नामशेष हैं, लेकिन शेष पर समय की स्याहरेत ने अपनी गर्द चढ़ा दी है। हजारों वर्ष के इतिहास का साक्षी बना पड़ा यह आगरा का लालकिला आज भी अपनी गौरवमयी कहानी कह रहा है। लेकिन अपने दुर्भाग्य पर रो भी रहा है। क्योंकि इसके लंबे इतिहास को मुगलों के इतिहास से जोड़कर देखने का वैसा ही प्रयास किया जाता है, जैसा कि अन्य भारतीय किलों, भवनों या ऐतिहासिक स्थलों के साथ किया गया है।

जबकि वास्तव में इस किले का इतिहास अलग है। प्राचीन काल में इस किले को बादलगढ़ के नाम से जाना जाता था। तब आगरा अग्र नाम से प्रसिद्घ था। अग्र को इंग्लिश में आज भी Agra ही लिखा जाएगा। अनुसंधानात्मक शैली में लिखने के लिए प्रसिद्घ पी.एन. ओक ने बादलगढ़ को अशोक कालीन और कनिष्क कालीन मानने की मान्यता पर बल दिया है। यह मान्यता उचित ही प्रतीत होती है। क्योंकि ये दोनों शासक महाभारत काल से बाद में हुए हैं। अब यदि मथुरा का महाभारत में विशेष राजनीति प्रभाव था तो कालांतर में क्यों नही रहा होगा? बाद में राजनीतिक सत्ता का केन्द्र निश्चय ही अग्र रहा होगा। विशेषत: तब जबकि मथुरा को कृष्ण की जन्मभूमि होने के कारण धार्मिक महत्व अधिक मिल गया था।

महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश के अनुसार आगरा का प्राचीन नाम यमप्रस्थ था। महाभारत काल में जिन 12 वनों का हमने संकेत किया है, उनमें से एक लोहितजंघवण भी था। बहुत संभव है कि वह लोहितजंघवण यहां ही रहा हो और उसी से इस किले का नाम लालकिला रूढ़ हो गया हो। जब बाबर यहां 1526 में आया तो वह भी बादलगढ़ में ही रूका था। भारत सरकार ने भी अब यह स्पष्ट कर दिया है कि परंपरा घोषित करती है कि बादलगढ़ का पुराना किला जो संभवत: प्राचीन तोमर या चौहानों का प्रबल केन्द्र था अकबर द्वारा रूप परिवर्तन किया गया था। जहांगीर ने कहा है कि उसके पिता ने यमुना के तट पर बने एक किले को भूमिसात किया था और उसके स्थान पर एक नया किला बनवाया था। वास्तव में अकबर ने सारा किला भूमिसात नही किया होगा। उसके उन भागों को, जो हिंदू धर्म से संबद्घ होंगे या हिंदू शैली में बने होंगे, ही भूमिसात किया होगा, या ऐसे भवनों को गिरा दिया होगा जो जीर्ण शीर्ण हो गये होंगे। फिर भी एक बात तो जहांगीर के कथन से भी स्पष्टï हो जाती है कि आगरा का बादलगढ़ नामक किला इब्राहिम लोदी से बाबर को, बाबर से हुमायूं को और हुमायूं से अकबर को मिला। बाद में उसका रूप परिवर्तन करने का थोड़ा बहुत प्रयास यदि किया भी गया तो वह प्राचीन से अर्वाचीन तो नही हो गया था। जैसे कभी वायसरीगल हाउस (दिल्ली) आज का राष्ट्रपति भवन कहलाता है। यदि आप इसका इतिहास पढ़ेंगे तो आपको लिखना पड़ेगा कि कभी अंग्रेजों ने इस भवन की नींव वायसरीगल हाउस के रूप में रखी थी।

सरकार का मानना है कि आगरा फोर्ट स्टेशन से दक्षिण दिशा में यमुना नदी के दांयें तट पर ताज से ऊपर की ओर लगभग एक मील पर आगरा का किला बना हुआ है। यही स्थान बादलगढ़ के पुराने राजमहल का स्थान था। मुगलों से पूर्व आगरे में एक किला विद्यमान होने का तथा लोदी बादशाहों से बहुत पहले गजनी के महमूद के प्रपौत्र मसूद 1099-1114 की प्रशंसा में सलमान विरचित स्तुति से प्रत्यक्ष हो जाता है।

इतिहासकार हुसैन का कथन है कि बादलगढ़ के राजमहल को सिकंदर शाह के शान काल में सन 1505 के भूकंप में भारी क्षति हुई थी। वर्तमान किला बादशाह अकबर द्वारा लगभग आठ वर्षों में (1565 से 1573) में बनवाया गया था। लेकिन श्री हुसैन का कहना है कि अकबर ने इसकी दीवारों और फाटकों को ठीक कराया था तथा अकबरी महल बनवाया था। शेष कुछ चीजें बाद के मुगल सम्राटों ने अपनी आवश्यकतानुसार जोड़ी थीं।

कीन ने आगरे के किले का इतिहास ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से माना है। उस समय अशोक का शासन था। उसी ने हमको सलमान की इस साक्षी पर यह भी बताया कि उसी किले पर हिंदू राजा जयपाल ने भी शासन किया था। जब सन 1015 के लगभग महमूद गजनी ने आगरे पर आक्रमण किया था, उसी किले में सन 1450 और 1488 के बीच किसी समय बहलोल लोधी का अधिकार था और सन 1565 तक अकबर भी उसी किले पर कब्जा किये रहा। बाद में उसने शायद किले में कुछ परिवर्तन किये हों।

कीन के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि आगरे के किले का अस्तित्व अब से लगभग 2200 वर्ष पूर्व से है। कीन ने कहा है कि सिकंदर लोधी की राजगद्दी पर बैठने वाला उसका सबसे बड़ा बेटा इब्राहीम अपने दरबार को आगरे में रखता था। उसका कहना है कि बाबर ने (1526 में पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम लोधी को हराकर) वियजोपरांत तुरंत अपने बेटे हुमायूं के नेतृत्व में एक टुकड़ी बादलगढ़ का खजाना लूटने के लिए भेजी। थोड़ी देर की मुठभेड़ के बाद किला हुमायू को मिल गया। 1530 के दिसंबर में बाबर की मृत्यु हो गयी थी । उसकी मृत्यु के तीन दिन बाद बादलगढ़ के राजमहल में हुमायूँ की ताजपोशी की गयी थी।

इस प्रकार यहां तक भी आगरे का लालकिला बादलगढ़ के नाम से प्रसिद्घ हुआ। बाद में शेरशाह सूरी के बेटे के शासन काल (1545 से 1555) में भी इस किले का नाम बादलगढ़ ही उल्लेख किया गया है।

कीन का कहना है कि 1555 में इस क्षेत्र में एक भयंकर अकाल पड़ा और यह किला बारूदाखाने में हुए विस्फोट से क्षतिग्रस्त हो गया। बाद में हो सकता है इसी विस्फोट से क्षतिग्रस्त हुए किले को अकबर ने ठीक कराया हो। वह पहली बार 1558 में इस किले में आया था। 1565 से उसने हो सकता है कुछ निर्माण किया हो।

इस प्रकार स्पष्ट है कि यह लालकिला कभी बादलगढ़ के नाम से विख्यात था। हमारा यात्री दल अपने अतीत के झरोखों से आती सुखद वायु के झोकों का आनंद ले रहा था। अपने अतीत पर जश्न मना रहा था और वर्तमान की उस पंगु सोच पर दुख व्यक्त कर रहा था जिसे धर्मनिरपेक्षता नाम की बीमारी ने हमें दिया है। अपने बारे में ही सही आंकलन, निरूपण और इतिहास के तथ्यों की समीक्षा करने तक हमें पसीने आते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या देंगे? या क्या दे रहे -यह यक्ष प्रश्न मेरे जेहन में किले के भीतर भी था और आज तक भी है।

इस किले का कभी बड़ा महत्व था। सदियों तक इस किले में विदेशी मेहमान, राष्ट्राध्यक्ष राजे महाराजे आते रहे। बीरबल और अकबर के चुटकुलों ने भी यहां अपनी रोशनी बिखेरी है तो वीर शिवाजी ने भी अपनी चतुराई से औरंगजेब जैसे बादशाह की आंखों में धूल झोंककर अपनी प्राण रक्षा की थी और बाद में अपने साम्राज्य की नींव रखी थी। यही वो किला है जहां भाईचारे के लिए विख्यात इस्लाम के शासक औरंगजेब ने अपने पिता को जेल में कैद रखा था और उसे कई प्रकार की यातनाएं दी थीं। यहीं पर उसने अपने कई भाईयों के कत्ल के बाद अपनी जीत का जश्न मनाकर इस्लाम के भाईचारे को दुनिया में फैलाने की सौगंध उठायी थी। अच्छे अनुभवों के साथ हम सभी ने किले को लगभग 4.15 बजे छोड़ दिया था।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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  1. लेख और अच्छा हो सकता था यदि आपने सायद, हो सकता है की जगह निश्चित ही हुआ है का उपयोग किया होता…. क्योंकि आपने जो बातें यहाँ बताई हैं वो 100% सच हैं……

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