आह रे आखर मार!

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अशोक गौतम

अब भार्इ साहब! आप से छुपाना क्या! जबसे सोचने समझने लायक हुए हैं , हर काम नंबर दो का शान से कालर खड़े कर करते आ रहे हैं। खुल कर करते आ रहे हैं । ये छुपन छुपार्इ का खेल हमें शुरू से ही कतर्इ पसंद नहीं! आप तो जानते ही हैं कि आज के वक्त में बरकत है तो बस नंबर दो धंधे में ! नंबर एक की कमार्इ से परिवार का तो परिवार का, अकेला पेट पालने आज अगर भगवान भी अपने देस में उतरे तो दूसरे दिन अपना बोरिया बिस्तर उठा हवा न हो ले तो मेरा नाम बदल कर रख

पिछली सांझ धंधे से हट कुछ सोचने का मौका मिला तो सोचा कि मानुस देह बार बार मिलने से तो रही, तो क्यों न इस जन्म में ही अगले सात जन्मों की मस्ती से जीने की भड़ास लगे हाथ निकाल ली जाए। अगले जन्म में तय है कि मेरी कारगुजारियों से भगवान किसी भी सूरत में मुझे मानुस तो मानुस, गधा बनाने से भी परहेज शर्तिया करेंगे। आपको विश्वास नहीं तो लगो लो शर्त!

आप तो जानते ही हैं कि इस नंबर दो के धंधे में टिके रहने के लिए क्या क्या नहीं करना पड़ता? किस किसको खुश नहीं रखना पड़ता? दफतरों के साहब तो साहब, वहां के चपरासी तक खुश रखने पड़ते हैं। भूख आज किसको नहीं! संसद से लेकर सड़क तक भूखे जमातें लगाए, हाथ फैलाए बैठे हैं। अपने धंधे में जमे रहने के लिए पुलिस वाले से लेकर अखबार वाले तक बाहरी मन से ही सही, दोस्त बनाने पड़ते हैं। हांलाकि पुरानी कहावत है कि पुलिस वाले और अखबारे वाले किसी के दोस्त नहीं हुए। इनसे दोस्ती भी बुरी तो दुश्मनी भी। पर क्या करें साहब, करनी पड़ती है। न जाने किस मोड़़ पर इनकी जरूरत पड़ जाए। काजल की कोठरी के बोनाफाइड बाशिंदे होने के चलते न जाने कब खबर रूकवानी पड़ जाए! इस देश में रहकर आप मगर से बैर कर लें तो चलेगा, पर अखबार वालों से बैर, न बाबा न!

अपने शहर के अपने एक खास दोस्त अखबार वाले हैं ही इसीलिए। न जाने कब खबर रूकवाने की जरूरत पड़ जाए! इसीलिए कभार अगर उन्हें खींच खांच कर चाय पिला दी जाए तो बाहर जा गले तक दोनों हाथों की उंगलियां डाल उलिटयां पर उलिटयां करने लग जाते हैं ! पर करते हैं तो करते रहें, मेरी बला से। हमने अपना फर्ज पूरा करना होता है सो बस कर देते हैं!

कल दोपहर उनके पास जनप्रतिनिधि होने की फिराक में गया था यह छपवाने कि अपने मुहल्ले की सड़क जो फटे टैंक तक जाती है, इस कदर टूटी है कि कर्इ बार तो मुझे लगा कि जब मैं उस पर से गुजरता हूं तो वह शरम के मारे ज्यों मुझसे भी अपना मुंह छिपा रही हो। अरे! जब मैं ही अपने से अपना मुंह नहीं छिपता तो तुम्हें कैसी शरम? पर बाद में उसने मुझे बताया कि वह मुझ जैसों से नहीं, अपने से अपना मुंह छिपा रही है। ठेकेदार द्वारा सीमेंट से गडढों को भरने के रेट दे मिटटी से अपने गडढों को भरने पर कराह रही है। तो मैंने सगर्व अपने चेहरे की कालिख पोंछ उसे सांत्वना देते कहा,’ डाट वरी! कल पत्रकारों से मिलकर तेरे बारे में आवाज उठाता हूं , तो उसने सिसकते हुए मेरे पांव छुए और अपने रास्ते हो ली।

पत्रकार मित्र उस समय फटाफट खबरें टाइप करने में जुटे थे। भूख, प्यास इन पत्रकारों को पता नहीं क्यों नहीं होती! इधर कम्बखत, भूख प्यास के अलावा अपने जैसों के पास और कुछ है ही नहीं। वे की बोर्ड पर यों डटे थे कि मानो अगले रोज के बाद अखबार छपना ही न हो! मैंने राम राम की, पर उनके पास सिर उठाने का भी वक्त नहींं ! वैसे ही टाइप करते रहे तो मैंने पुन: राम राम करने के बाद पूूछा,’ और क्या हाल हैं? क्या कर रहे हो ? क्या शहर का आखिरी र्इमानदार भी गोलोकवासी हो गया! तो वे मेरी ओर देखे बिना वैसे ही टाइप करते करते बोले,’ पेट भर रहा हूं।

‘ किसका??

‘ अखबार का! पांच बजे से पहले सारी खबरें भेजनी हैं। और इधर पेज का चौथार्इ पेट भी नहीं भरा, कह वे फिर डट गए। टक टका टक ! तो मैंने पुन: पूछा,’ चलो! रेस्तरां में जा अपना पेट भी भर लेते हैं। अखबार का पेट तो रोज ही भरता है, भरता रहेगा!

पर बंदा कि बोर्ड के पास से नहीं हटा तो नहीं हटा। अब पता चला, इन आखरमारों के पेट पिचके क्यों होते हैं! हे अखबार का पेट भरने वालो! अपना पेट भी भरना सीखो। याद रखो! यहां बड़े पेट वालों को पूजा जाता है। पेट भरने वालों को नहीं! इसलिए यार! बिक भी जाया करो कभी कभी! देस में बिकने के लिए हर नंगे से नंगा तैयार खड़ा है, चाहे उससे बास ही क्यों न आ रही हो! जो तुम खाते नहीं, बिकते नहीं, तभी तो देवता तक तुमसे नफरत करते हैं। देखता हूं, एक स्तंभ के सहारे कब तक मचान को खड़ा रखोगे? कभी काम छोड़ खा पी भी लिया करो पत्रकार! सारी उम्र कागज ही तो काले करने हैं। देस के साथ चलो।

पर मेरी ये लोग माने तब न!

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