अजनबीपन और मासूमियत


डा. राधे श्याम द्विवेदी
एक पाँच साल का मासूम सा बच्चा अपनी छोटी बहन को लेकर एक मंदिर में एक तरफ कोने में बैठा हाथ जोडकर भगवान से न जाने क्या मांग रहा था ।
उसके कपड़े में मैले से लग रहे थे मगर वह साफ जैसा दिख रहा था। उसके नन्हें- नन्हें से गाल आँसूओं से भीग चुके थे।
बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे, और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में ही लगा हुआ था।
जैसे ही वह उठा, एक अजनबी ने बढ़के उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और पूछा -क्या मांगा भगवान से ?
उसने कहा -मेरे पापा मर गए हैं, उनके लिए स्वर्ग। मेरी माँ रोती रहती है, उनके लिए सब्र। मेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है,उसके लिए पैसे मांगा हू भगवान से।
तुम स्कूल जाते हो ? अजनबी का सवाल स्वाभाविक सा सवाल था ।
हां जाता हूं, उसने कहा ।
किस क्लास में पढ़ते हो ? अजनबी ने पूछा
नहीं अंकल, पढ़ने नहीं जाता। मां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ । बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैं, हमारा यही काम धंधा है। इसी से मां घर का खर्चा चलाती है।
बच्चे का एक एक शब्द मेरी अन्तर्रात्मा को कचोट रहा था। तुम्हारा कोई रिश्तेदार है ? न चाहते हुए भी मैंने बच्चे से पूछ बैठा ।
पता नहीं, माँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता, उसने कहा।
माँ झूठ नहीं बोलती, वह मासूमियत से आगे कहा- पर अंकल, मुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है। जब हम खाना खाते है, वह हमें देखती रहती है । जब मैं कहता हूँ, माँ तुम भी खाओ, तो कहती है मैने खा लिया था, उस समय लगता है कि मां झूठ भी बोलती है ।
बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ? मैंने पूछा।
बिल्कुलु नही।
क्यों ?
पढ़ाई करने वाले, गरीबों से नफरत करते हैं अंकल। हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा। वे पास से गुजर जाते हैं। अजनबी हैरान भी था और शर्मिंदा भी ।
फिर उस मासूम ने कहा, हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ। कभी किसी ने नहीं पूछा – यहाँ सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे – मगर हमें कोई नहीं जानता ।
बच्चा जोर-जोर से रोने लगा था। सिसकते हुए उसने हमसे पूछा था- अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?
मेरे पास इसका कोई जवाब नही था। उसने मुझे निरुत्तर जो कर दिया था।
हमारे समाज में एसे कितने मासूम होंगे जो कुदरत की हसरतों से घायल हैं। वे अपनी परवरिश किन किन कठिनाइयों के तहत करते होंगे ? हमने सोचा कि हमें एक कोशिश जरुर अपने आसपास एसे जरूरतमंद यतीमों, बेसहाराओ को ढूंढना चाहिये और उनकी मदद करना चाहिए।
मंदिर मे सीमेंट या अन्न की बोरी देने से पहले अपने आस – पास किसी गरीब को देख लेना। शायद उसको देख लेना आटे की बोरी देने से ज्यादा जरुरी होता है। मन्दिर बैठे अपने इष्टदेव की पूजा से ज्यादा जरुरी समाज में जरुरतमन्दों की मदद करना होता है। कुछ समय के लिए एक गरीब बेसहारा की आँखों मे आँख डालकर देखे। हममे कुछ अलग ही अनुभूति होगी। स्वयं व समाज में बदलाव लाने का हर प्रयास जारी रखना चाहिए।

4 COMMENTS

  1. दुखों की खान में नक्कारखाना और तूती कहाँ से आ गए? घर के भाग ड्योढ़ी से ही मालूम हो जाते हैं और खुले आकाश के नीचे भारतवर्ष की ड्योढ़ी बहुत गंदी है। वर्षों से इस ड्योढ़ी को गंदा करते भारतीयों में यदि आज स्वच्छ भारत की सोच आ जाए तो ड्योढ़ी की सफाई करते घर के, मेरा अभिप्राय भारतवर्ष के भाग भी संवर जाएं!

  2. बहुत सुन्दर। गोयल जी की टिप्पणी ने ध्यान खींचा। मित्रों को कडी भेजता हूँ।

  3. आप के अन्य लेखों से हटकर है और अच्छा है – इसी क्षेत्र को पकडिये – शायद कहीं कुछ जाग्रति हो सके –

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