अक्षरा सिंह : कब बदलेगा भोजपुरी सिनेमा

अक्षरा सिंह उन हीरोइनों में शामिल हैं, जिसे ग्रामीण समाज में कहा जाता है कि रूपवती भी हैं और गुणवती भी। यानी सिनेमा की भाषा में कहें तो उनमें ग्लैमर और एक्टिंग समान भाव से मौजूद है। डेढ़ दर्जन से भी ज्यादा फिल्में कर चुकी अक्षरा के चेहरे पर संतोष का आह्लाद नहीं है, इसलिये कि उन्हें उनकी मर्जी की फिल्में नहीं मिली हैं जहां वह टैलेंट का प्रदर्शन कर सकें। इसलिये खुद को आजमाने के लिये हिंदी सीरियल करने लगी हैं और मानती हैं कि यहां से आगे का रास्ता देखना आसान लग रहा है। उनसे बातचीत-किसी भी एक्टर के लिये बीस फिल्में करना कामयाबी की बात मानी जाती है। इसके बावजूद आपके चेहरे पर असंतोष के भाव क्यों मौजूद हैं ?संतोष और असंतोष के बीच सिर्फ एक ‘‘अ’ का फर्क है लेकिन जीवन की कसौटी पर देखें तो यह फासला बहुत लंबा है। वैसे तो संतोष के लिये बड़े-बड़े लोगों को तरसते देखा है, लेकिन उसमें लोभ का संकेत ज्यादा होता है। हम जैसे लोगों के लिये संतोष का मतलब इतना ही है कि हम बेहतर जिंदगी का आनंद लें और बिना किसी दाग-धब्बे के आगे बढ़ते जायें। हमारे लिये कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं है लेकिन काम ऐसा हो कि हमें उस पर गर्व का अहसास हो और लोग उसकी सराहना करें। भोजपुरी सिनेमा में काम करने का फैसला मेरा है, इसके लिये किसी को दोषी ठहराना ठीक नहीं, लेकिन जो सोच कर आयी थी, वह नहीं मिल रहा है। आप अगर अपनी ही उम्मीदों को पूरा करने में पिछड़ रहे हों तो दुनिया की अपेक्षाओं पर कहां तक खरे उतर पायेंगे? लेकिन मैं खुद से नाउम्मीद भी नहीं हुई हूं। इसलिये हिंदी धारावाहिकों में अपना ठिकाना बनाना शुरू कर दिया है। ‘‘सर्विस वाली बहू’ में काम करने के बाद एक और धारावाहिक में आने वाली हूं जो जी टीवी पर प्रसारित होगा।धारावाहिक से तो बेहतर था कि आप हिंदी फिल्मों में काम ढूंढते, यह कहने को भी मिल जाता कि भोजपुरी की हीरोइन हिंदी फिल्म में हीरोइन बन गयी। वह इच्छा अभी भी जिंदा है। हर एक्टर जब मुंबई आता है तो उसकी पहली कोशिश यही होती है कि उसे हिंदी फिल्मों में रोल मिल जाये। जब वहां से निराश होता है तब सीरियल में अपने को आजमाने लगता है। भोजपुरी सिनेमा भी लक्ष्य में शामिल रहता है, लेकिन इसे लोग बाद में सोचते हैं क्योंकि इसके स्तर का सवाल तो सामने होता ही है, उससे ज्यादा पैसे का मामला होता है। भोजपुरी में काम कर आप घर चला सकते हैं, लेकिन सपने पूरा नहीं कर सकते। सबसे दुखद बात तो यह है कि हीरो अपनी पहली ही फिल्म से अपने को सुपरस्टार मानने लग जाता है और बिहेव भी वैसा ही करने लगता है। वह निर्माता-निर्देशक पर रौब भी गांठने लगता है लेकिन हीरोइनें, जो पूरी लगन और ईमानदारी से काम करती हैं, उनपर ध्यान नहीं दिया जाता। यह अलग बात है कि अब भोजपुरी में कई हीरोइनें ऐसी हैं जो अपने बल पर फिल्मों को हिट कराती हैं, उनके लिये स्क्रिप्ट भी लिखी जा रही हैं लेकिन यह दुर्भाग्य है कि उन्हें सुपरस्टार जैसा दर्जा नहीं दिया जाता। मिहनाताना में भी काफी अंतर रखा जाता है। इसलिये कभी-कभी मन निराश हो जाता है। फर्क हिंदी सिनेमा में भी है लेकिन वहां हीरोइनों को जो सम्मान मिलता है, वह अलग है। भोजपुरी में भी अगर वैसा हो जाये तो इस सिनेमा का भी इमेज बदल जायेगा।तो इसमें बाधा कहां है? बदलाव तो हमेशा अच्छे के लिये होता है, इस बदलाव के लिये कौन तैयार नहीं है? आप सब इसमें पहल क्यों नहीं करते ?बहुत सोचा और करने की कोशिश भी की। इससे आगे कुछ बताना ठीक नहीं। इसलिय अब चुप रहकर अपना काम करना ही बेहतर लगता है। पता नहीं, बाकी लोग क्यों नहीं सोच रहे हैं। मुझे लगता है कि भोजपुरी पर जब तक पुरु ष मानसिकता का बोलबाला रहेगा तबतक किसी बड़े परिवर्तन की कितनी उम्मीद करना बेकार है। अगर आप कुछ करना भी चाहें तो लोग समझेंगे कि टांग अड़ा रहे हैं। पता नहीं, कब बदलेगा भोजपुरी सिनेमा या ऐसे ही रह जायेगा। मुझे अब सिर्फ अपने काम से मतलब रह गया है। फिल्म ‘‘सत्यमेव जयते’ से लेकर ‘‘साथिया’ और ‘‘हीरो न.1’ तक पहुंच चुकी हूं। मुझसे शायद ही किसी को आजतक कोई शिकायत हुई हो! इस समय तीन फिल्में कतार में हैं। एक फिल्म खेसारी के साथ है और दो पवन सिंह के साथ। हिंदी से भी ऑफर आ रहे हैं लेकिन सोच-समझकर ही साइन करूंगी। आंखें बंद कर कोई फिल्म नहीं करूंगी। अपना अच्छा-बुरा सोचने के लायक हो गयी हूं। शुरुआत में एक पागलपन हर किसी में होता है लेकिन समय आपको सब कुछ सिखा देता है। मेरे माता-पिता (नीलिमा-विपिन सिंह) भी फिल्मों में ही हैं इसलिये जीवन और आसान हो गया है।

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