सभी धर्म किसी बड़े वृक्ष के फल व फूल है?

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हम संसार में अनेक धर्मों को देखते हैं। वस्तुतः यह सब धर्म न होकर मत, मतान्तर, पन्थ, सम्प्रदाय, रिलीजियन या मजहब हैं। यह सब धर्मं क्यों नहीं है तो इसका उत्तर है कि मनुष्यों के कर्तव्यों व शुभ कर्मों का नाम धर्म है। यह धर्म सार्वभौमिक व सभी मनुष्यों के लिए एक ही होता है। हम सभी मतों वा धर्मों में एक ही विषय पर भिन्न-2 मान्यतायें पातें हैं। ईश्वर व आत्मा की ही चर्चा करें तो सभी विज्ञ जन हमसे सहमत होंगे कि संसार में ईश्वर व जीवात्मा का स्वरूप अनेक न होकर एक है, अतः सर्वत्र वा सर्वथा एक समान ही होना चाहिये। क्या सभी मतों में ईश्वर व जीवात्मा का स्वरूप एक समान है? ऐसा क्योंकि नहीं है, इससे यह सिद्ध होता है कि भिन्न-2 मतों वा धर्मों में ईश्वर व जीवात्मा के जो स्वरूप हैं वह किसी एक सत्य स्वरूप से विकृत होकर अस्तित्व में आये हैं या फिर धर्म-संस्थापकों के अपने ज्ञान की स्थिति का प्रतिबिम्ब इनमें मिलता है। उनको यथार्थ का ज्ञान न होने के कारण उन्हें जैसा व जितना अनुमान से ज्ञान हुआ, वैसा ही उन्होंने स्वमत में उल्लेख व प्राविधान किया। अनुमान से जानने की कोशिश करें तो ज्ञात होता है कि वेदों में ईश्वर व जीववात्मा का जो स्वरूप है, विचार करने पर वह पूर्ण सत्य व तर्क संगत प्रतीत होता है। यह सारा ब्रह्माण्ड एक ईश्वर से बना है। अतः उसका सर्वव्यापाक, निराकार, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अनादि, अनुत्पन्न, अमर, अनन्त, अविनाशी इत्यादि गुणों से युक्त होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो इसके विपरीत गुणों व स्वरूप वाले ईश्वर से सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता। इसी प्रकार से जीवात्मा एकदेशी, अल्पज्ञ, ससीम, सूक्ष्म, नेत्रों से अगोचर, जन्म-मरण धर्मा, जन्म का आधार कर्म, भोग वा प्रारब्ध एवं दुःखों से मुक्त होने अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने के लिए ईश्वर के द्वारा मिलता है। यह तर्क संगत स्वरूप वेद व प्राचीन वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है परन्तु देश-देशान्तरों की सभी मतों की धर्म पुस्तकों में ईश्वर व जीवात्मा का ऐसा विशुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं होता। इसके कारणों पर जब विचार करते हैं तो यह अनुमान होता है कि महाभारत काल के बाद वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था।

 

यथार्थ ज्ञान के विलुप्त होने के कारण अपने-2 समय के धर्म प्रवर्तकों को प्रयास करने पर भी जितना जैसा ज्ञान सुलभ हुआ अथवा वह अपनी बुद्धि व विवेक से सोच कर जो निर्णय कर पाये, उसे उन्होंने वैसा ही प्रस्तुत किया। मुख्यतः जीवात्मा के स्वभाव “अल्पज्ञताआदि के कारण उस काल में ईश्वर, जीव व धर्म का पूर्ण सत्य व विशुद्ध स्वरूप जैसा वेदों में है, सुलभ न हो सका। उस काल में सत्य व तर्क आदि प्रमाणों के विपरीत कुछ मान्यतायें स्थिर हुई जिसे लोग मानते आ रहे हैं क्योंकि तब अन्य विकल्प नहीं थे। इस पूरे विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि सृष्टि की आदि में ईश्वर के द्वारा आदि व प्रथम पीढ़ी के पुरूषों की आत्माओं में चार वेदों का जो ज्ञान दिया गया था, जो कि स्वतः प्रमाण वा निभ्र्रान्त है, सम्पूर्ण मानव धर्म है, वही एक मात्र धर्म महाभारत काल तक सारे विश्व में प्रचलित रहा। अन्य सभी मतों की स्थापना व आविर्भाव महाभारत काल के बाद ही हुआ है। इसी कारण संसार में 5 सहस्र वर्ष से पुराना कोई मत वा धर्म ससार में नहीं है। सभी देशी व विदेशी मत व धर्म विगत 2 से 3 हजार वर्षों में ही अस्तित्व में आये हैं जिनका आधार प्राचीन वेद वा वैदिक धर्म रहा है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि संसार के सभी धर्म किसी बड़े वृक्ष के फलों के समान है अर्थात् संसार के सभी मतों का मुख्य आधार वेद रूपी वटवृक्ष है। हम यह अनुभव करते हैं कि इस आंकलन पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये।

 

इस क्रम में यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने सत्य धर्म की खोज का कार्य किया। इसकी प्रेरणा उन्हें 14 वर्ष की अवस्था, सन् 1839, में ईश्वर से शिवरात्रि के दिन प्राप्त हुई थी। अपने कठोर परिश्रम व लगन से उन्होंने योग सीखा, ईश्वर का साक्षात्कार किया, विभिन्न मतों के धार्मिक ग्रन्थों व मान्यताओं का अध्ययन किया तो उन्हें अनेक भ्रान्तियां हुईं। वह सच्चे गुरू की खोज में थे। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें मथुरा के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी गुरू विरजानन्द सरस्वती का पता चला। वह सन् 1860 में उनके चरणों में पहुंचे, ढाई से तीन वर्षों के बीच उन्होंने उनसे वैदिक व्याकरण अष्टाध्यायी-निरुक्त पद्धति का अध्ययन किया जिससे वह वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थ करने की योग्यता प्राप्त कर सके। इसके बाद उन्होंने वेदों की खोज की। ईश्वर की कृपा से चारों वेद उन्हें प्राप्त हो गये। संसार से अज्ञान, अन्धविश्वासों, मिथ्या सामाजिक मान्यताओं व कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने वेदों का प्रचार आरम्भ किया। सन् 1869 में उन्होंने काशी के पण्डितों से मूतिपूजा पर शास्त्रार्थ किया जिसमें मूर्ति पूजा वेदों के विरूद्ध सिद्ध हुई। स्वामी दयानन्द ने तर्क व प्रमाणों से मूर्ति पूजा को ईश्वर की पूजा के विपरीत सिद्ध किया और बताया कि योग व ध्यान आदि के द्वारा ईश्वर के सत्य गुणों को जानकर उससे स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने व अपना आचरण वेदानुसार बना कर ही ईश्वर को प्रसन्न किया जा सकता है। अन्य प्रकार से की गई ईश्वर की भक्ति से वह लाभ प्राप्त नहीं होता जो वैदिक विधि व रीति से करने से होता है। सन्ध्या, ध्यान व उपासना आदि का विस्तार से वर्णन महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक पंच-महायज्ञ विधि एवं संस्कार विधि आदि में किया है। ईश्वर, जीवात्मा व धर्म का सत्यानुसंधान हो जाने के बाद वेद सभी धर्मों का बड़ा, वृहत, महावृक्ष स्द्धि होता है और अन्य मत व लौकिक भाषा में धर्म के नाम से जाने जाने वाले मत-मतान्तर, पन्थ वा सम्प्रदाय आदि इस वेद रूपी महावृक्ष के फल व फूल सिद्ध होते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि संसार के सभी लोगों का मत व धर्म एक ही है और वह सत्य मान्यताओं व कर्तव्यों का आचरण करना है। इन सभी सत्य कर्तव्यों व आचरण का पूरा-पूरा व ठीक-ठीक ज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य से होता है। यहां सभी मतों व धर्मों के ग्रन्थों पर यह भी सिद्धान्त लागू होता है कि वेद सभी धार्मिक मान्यताओं के निर्धारण में स्वतः प्रमाण है और अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण है। इसका अर्थ है कि वह यदि वेद के अनुरूप व अनुकूल हैं तो स्वीकार्य हैं और यदि नहीं हैं तो वह तदानुकूल संशोधनीय हैं।

 

हम समझते हैं कि आज 27 जनवरी, 2015 को अमेरिका के माननीय राष्ट्रपति महोदय द्वारा भी इस आशय का जो बयान दिया गया है वह हमें पूरी तरह उचित लगता है। सभी मत व धर्म व सभी धर्म व मत किसी एक बड़े वृक्ष के फलों व फूलों के समान है। हमारा प्रयास यह होना चाहिये कि हम इन्हें समरस, तर्क पर आधारित, संसार के सभी मनुष्यों व प्राणियों के लिए लाभप्रद, सुखप्रद व कल्याण प्रद बनायें। संसार से हिंसा की समाप्ति हो, सबके मन प्रेम, सहयोग, सहानुभुति, सेवा, एक दूसरे का सम्मान व सत्कार से भर जायें। सत्य का ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सबकी प्रवृत्ति हो। सभी मिलकर अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करे। सभी लोग अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहे अपितु सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझे तथा इस वैदिक प्रार्थना को साकार सिद्ध करें जिसमें कहा गया है कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।। अर्थात्सबका भला करो भगवान, सब पर कृपा करो भगवान। सब पर दया करो भगवान सबका सब विधि हो कल्याण।

 

 

2 COMMENTS

  1. लेख पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद। सारे ब्रम्हांड का स्वामी एक, केवल एक, ईश्वर है जो अजन्मा है। ईश्वर का अवतार कभी नहीं होता। ईश्वर यदि चाहे भी तो अवतार वा जन्म नहीं ले सकता। भगवन राम और भगवन श्री कृष्ण महान आत्माए थी। वेदो में ‘मनुर्भव’ की जो शिक्षा है उससे मनुष्य स्वयं को उन्नत कर ईश्वर के अनेक गुणों में से कुछ को धारण कर आदर्श वा महान हो सकता है। वह आचार्य वा पूजनीय बन जाता है। इसी कारण हमारे माता-पिता वा आचार्य पूजनीय हैं। श्री राम व योगेश्वर श्री कृष्ण जी भी हमारे वा सारे संसार के पूर्वज थे अतः वह अपने आदर्शों एवं सद्कर्मो के कारण हमारे पूजनीय हैं। इनकी उपासना नहीं हो सकती। उपासना केवल सर्व्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर की ही हो सकती है। उसकी उपासना से ज्ञान, सात्विक भोग, शक्ति व आयु आदि धनो व पदार्थों की प्राप्ति होती है।

  2. निसंदेह ,जितने धर्म हैं वे वेदो के बाद के हैं. ”ईशा वास्यम इदं सर्वें /सर्वे भवन्तु सुखिनः /एकम ब्रह्मम द्वितीयो नास्ति/ये उपदेश सर्वप्रथम किस पुस्तक मैं उद्घाटित हुए ?इन सूत्रों से कौनसा धर्म या विचार भिन्नता रख सकता है?अशटांग मार्ग भी वैदिक धर्म की ही मान्यता है. दिक्कत यह है की हमारा धर्माचार्यों ने ब्रह्म के बारे मैं जो अनादि है,अनंत है. अजन्मा है, अविनाशी है के बारे मैं आम जनता को समझाया नही. निसंदेह श्रीराम एवं कृष्ण अतिमानव हैं,विशिष्ट मानव हैं किन्तु उन्हें परमात्मा नहीं कहा जा सकता. इन महापुरुषों का जन्म हुआ है. ये परमात्मा की अनुकम्पा से मानव हित के लिए अवतीर्ण हुए थे। इनकी मूर्तियां बनाकर पूजा करना स्मरण के लियेऽभ्यस के लिए एकदम उचित है. किन्तु मूर्तिपूजा लक्ष नही. स्वयं महात्मा राम ने लंका जाने हेतु समुद्र मैं जबरन रास्ता नहीं बनाया ,उन्होंने समुद्र से रास्ता बनाने की युक्ति पूछी। योगिराज कृष्ण को कभह पैर मैं तीर लग सकता है क्या?किन्तु कृष्ण ने जीवन की अनित्यतता का बोध हमें करवाया है. क्या कृष्ण कभी युद्ध से भाग सकते हैं ?किन्तु स्वयं ने अपने आप को ”रण छोड़ ”कहलवाया. वास्तव मैं इन महान आत्माओं ने हमें कहा वह तो हम पालन करने के लिए तैयार नही. किन्तु मूर्ति पूजा कर भक्त कहलवाना हमें स्वीकार है.

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