वैदिक कालीन हमारे प्राचीन सभी ऋषि-मुनि-आचार्य वैज्ञानिक थे

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Archimedes

भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी की हमारी इस पृथिवी की आयु व इस पर प्राणी जीवन है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार पृथिवी का निर्माण होकर इस पर आज से 1,96,08,53,115 वर्ष पहले मनुष्यों की उत्पत्ति वा उनका आविर्भाव हुआ था। सृष्टि की उत्पत्ति के पहले ही दिन ईश्वर ने बड़ी संख्या में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों में से चार सबसे अधिक पवित्रात्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। यह वेद ज्ञान सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। ईश्वर चेतन तत्व व सर्वव्यापक होने के कारण सृष्टि के समस्त ज्ञान व विद्याओं का आदि स्रोत है। उसने अपनी उसी ज्ञान, विद्या व सामर्थ्य से जड़ व कारण प्रकृति से इस संसार को बनाया है और चला भी रहा है। हमारे वैज्ञानिक उसके उस ज्ञान व नियमों की सृष्टि की रचना का अध्ययन कर खोज करते हैं। इस ज्ञान का उपयोग कर ही नाना प्रकार के जीवन रक्षा व सुविधा के यन्त्र, उपकरण व मशीनों आदि का निर्माण संसार में हुआ है। हमारा आज का यह ज्ञान विज्ञान कोई बहुत पुराना नहीं है। आज यदि चार व पांच शताब्दी पीछे देखें तो यूरोप में ज्ञान विज्ञान के बुनियादी नियमों की खोज भी नहीं हुई थी। इशाक न्यूटन, इंग्लैण्ड (25 दिसम्बर 1642 – 20 मार्च, 1726), आकर्मिडीज (Archimedes, Greek, 287-212 BC), गैलीलियो, इटली (15 फरवरी 1564-8 जनवरी 1642) जैसे वैज्ञानिक विगत 500 से लेकर 2300 वर्षों के अन्दर ही हुए हैं। इससे पूर्व यूरोप सहित सारे विश्व में विज्ञान से रहित मनुष्य जीवन का अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरी ओर महाभारत युद्ध के समय भारत की राजव्यवस्था पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि हमारा देश धन-धान्य, वैभव व वैज्ञानिक उन्नति से सुसमृद्ध था। महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ कर स्वयं को चक्रवर्ती राजा घोषित ही नहीं अपितु उसे अपने बल व पराक्रम से सिद्ध भी किया था। उन दिनों हमारे पास आधुनिक हथियार थे जिनके नाम ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र आदि थे। श्रीकृष्ण जी के पास एक अद्भूद अस्त्र सुदर्शन चक्र था जिसकी विशेषता थी कि इसे जिस व्यक्ति का वध करने के लिए छोड़ा जाता था, यह उसका वध करके पुनः श्रीकृष्ण जी के पास लौट आता था।

 

बाल्मिीकी रामायण अति प्राचीन ग्रन्थ है और इसका काल महाभारत काल से भी सहस्रों वर्ष पूर्व है। रामायण ग्रन्थ की रचना महर्षि बाल्मिीकी ने की थी। महर्षि शब्द का अर्थ ही यह है कि ऐसा मनुष्य जो चार वेदों व उनके मन्त्रों के अर्थों का यथार्थ ज्ञान रखता है। सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ होने के कारण महर्षि बाल्मिकी वेद में निहित यथार्थ ज्ञान व विज्ञान को भली भांति जानते थे। उन्होंने लिखा है कि श्री रामचन्द्र जी अकेले ही शताधिक शस्त्रधारी रावण सेना के सैनिकों से युद्ध कर उन्हें पराजित करते थे व उनका वध कर डालते थे। मुख्यतः रामचन्द्र जी के पास धनुष व बाण होते थे। यह धनुष आजकल के धनुष-बाण न होकर वैदिक ऋषियों की एक अद्भुत खोज का परिणाम थे जिनमें किसी उत्कृष्ट वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग हुआ था और वह शत्रुपक्ष के लिए गोपनीय व अज्ञ थी तथा प्रतिपक्षी सेना के पास उपलब्ध नहीं थी। राम व रावण युद्ध में श्री राम की विजय इस बात का सूचक है कि राम के पास अस्त्र व शस्त्र रावण सेना से उत्तम कोटि के थे, राम का शारीरिक बल, बौद्धिक बल व क्षमतायें भी रावण व उनके सहयोगियों से कहीं अधिक थी, तभी तो वह युद्ध जीते थे। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि अपनी प्रजा की रक्षा के लिए युद्ध व सैन्य सामग्री पर विशेष ध्यान देते थे और उन्होंने आज उपलब्ध शस्त्रास्त्रों से अधिक उपयोगी तकनीक विकसित की हुई थी।

 

प्राचीनकाल में हमारे देश में सुश्रुत व चरक आदि ऋषि हुए हैं जिन्होंने आयुर्वेद पर वैज्ञानिक अनुसंधानों पर आधारित प्रायः सभी रोगों की चिकित्सा, उनके उपचार व सहस्राधिक ओषधियों के नाम आदि से युक्त अपूर्व ग्रन्थ लिख हैं जो आज भी उपयोगी है एवं उनके कई योग तो एलोपैथी से भी कारगर हैं। इन ऋ़षियों को सभी प्रकार की वनस्पतियों व वनौषधियों के आयुर्वेदीय स्वास्थ्य व चिकित्सीय गुणों का ज्ञान था। गिलोय एक ऐसी ओषधि है जिसका उपयोग भोजन व शाक-सब्जी के रूप में नहीं होता। यह जंगलों व बाग बगीचों में बड़ी मात्रा में होती है। इसके सेवन से अनेक रोगों को दूर किया जा सकता है और स्वस्थ व्यक्ति द्वारा सेवन किए जाने से अनेक रोगों से बचाव होता है। हमारे ऋषि यदि वैज्ञानिक न होते तो वह इन ओषधियों के गुणों का ज्ञान किस प्रकार व कैसे प्राप्त कर पाते? यह तो केवल एक ओषधि की बात है, ऐसी शताधिक व सहस्रों ओषधियों हैं जिनके गुणों का पूरा-पूरा सत्य व यथार्थ ज्ञान उन्हें था और जिसका संग्रह उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। ओषधियों की पहचान व उनके गुणों का पूरा-पूरा ज्ञान स्वयं में सहस्रों वैज्ञानिक आवष्किारों के तुल्य है। इसी प्रकार से हमारे देश में अनेक प्रकार के मसालों का प्रयोग भोजन में किया जाता है। इनमें भी अनेक ओषधिय गुण होते हैं और यह हमारे स्वास्थ्य को ठीक रखते हैं। इनका ज्ञान भी विज्ञान की प्रक्रिया को अपनाकर ही हमारे पूवजों ने प्राप्त किया होगा। आज भी मसालों आदि का प्रयोग विदेशों में बहुत कम होता है और जितना हो रहा है उसका अनुमान है कि वह ज्ञान भारत से ही वहां गया है। इससे यह अनुमान लगता है कि हमारे ऋषि-मुनि वेदाध्यययन, वेदाधारित वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति के साधनों यथा सन्ध्योपासना व यज्ञ-अग्निहोत्र- सत्याचार-परोपकार-सेवा आदि के साथ अपने आश्रम व गुरूकुलों आदि में अपने शिष्यों के साथ ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि व ऐसे अनेकानेक विषयों के अनुसंधान व प्रयोग आदि का कार्य करते थे। इस कार्य में उन्हें वेद ज्ञान, योगाभ्यास आदि जीवन शैली से भी विशेष लाभ प्राप्त होता था। हम यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि वैशेषिक दर्शन आध्यात्म का कम अपितु भौतिक विज्ञान का ग्रन्थ अधिक है जिसे पढ़कर आज के वैज्ञानिक व विज्ञानकर्मी लाभ उठा सकते हैं और ऋषियों की वैज्ञानिक प्रतिभा से परिचित हो सकते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और सत्यार्थ प्रकाश लिखकर विज्ञान के अनेक सिद्धान्तों की चर्चा की है। उन्होंने उन वैज्ञानिक विषयों का भी उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है जिनका आविष्कार उनके समय में नही हुआ था। इसके लिए उनके द्वारा लिखित समुद्रीय-यान व विमान विद्या, तार-विद्या, सृष्टिविद्या, पृथिव्यादिलोकभ्रमण विषय, आकर्षणानुकर्षण विषय, प्रकाश्यप्रकाशक  विषय तथा गणित विद्या विषय का अध्ययन करना उचित होगा। विमान की तकनीकी के विकास व निर्माण का तो उन्होंने एक प्रकार से वैज्ञानिक प्रोजेक्ट प्रपोजल ही प्रस्तुत किया हुआ है जबकि उन दिनों विमान का आविष्कार संसार के किसी देश में नहीं हुआ था।

 

यहां हम सन्ध्या व योगाभ्यास की चर्चा भी विज्ञान के अनुसंधान की दृष्टि से करना चाहते हैं। सन्ध्या में ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप तथा इनके गुण-कर्म-स्वभाव आदि का चिन्तन व ध्यान किया जाता है। इससे एक ओर मन को एकाग्र करने की क्षमता का विकास होता है वहीं सूक्ष्मतम् पदार्थ ईश्वर व जीवात्मा का प्रतिदिन प्रात वह सायं चिन्तन व ध्यान करने से इनके यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है। इससे संसार का रहस्य समझ में आता है और भौतिक पदार्थों के यथार्थ ज्ञान व उनसे अपनी आवश्यक के नये पदार्थों के निर्माण करने की क्षमता भी अन्य मनुष्यों की तुलना में अधिक होती है। अतः हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने प्रकृति व पर्यावरण के सन्तुलन को सर्वाधिक महत्व दिया व कोई ऐसी व्यक्तिगत सुविधाओं की खोज इसलिए नहीं की कि जिससे हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो, हमारा व दूसरों का स्वास्थ्य बिगड़े, रोगों की वृद्धि हो, शारीरिक कष्ट हों, आयु का नाश हो व धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में बाधा हो। यद्यपि वह वो सब कुछ कर सकते थे जो आज के वैज्ञानिक कर रहे हैं, इसकी पूरी क्षमता उनमें थी। आज होता क्या है कि विज्ञान के द्वारा सुख-सुविधाओं की वृद्धि तो की जा रही परन्तु रोगों की संख्या भी अनन्त है। सभी बच्चे-बड़े रोगों से ग्रसित हैं। छोटे छोटे बच्चे भी पीलिया, मधुमेह आदि नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। इसका कारण आज की आधुनिक जीवन शैली व जीवन में पुरुषार्थ की कमी है। हां, हमारे प्राचीन ऋषियों ने चिकित्सा, दुष्टों से देश की रक्षा व विद्या से जुड़े क्षेत्रों में आज से अधिक प्रगति की थी। आध्यात्मिक उन्नति तो इतनी की कि जिसकी आज भी संसार में कोई तुलना नहीं है। तभी तो महाभारत काल तक सारे विश्व में एक ही धर्म प्रचलित था। महाभारत काल व उससे पूर्व के 1.96 अरब वर्ष के काल में आज कल की तरह कोई मत-मतान्तर व धर्म, मजहब, सम्प्रदाय नहीं थे क्योंकि ज्ञान विज्ञान का प्रचार था और ऋषियों के होते हुए, आजकल की भांति, कोई अपने अविद्याजन्य मत के प्रचार की बात सोच ही नहीं सकता था। वैदिक धर्म के बैरियों व अज्ञानी मजहबी लोगों ने वैदिक साहित्य, जो तक्षशिला व नालन्दा आदि के देश के पुस्तकालयों में था, अग्नि को समर्पित कर नष्ट कर दिया। आज भी कोलकत्ता, अडियार व अन्यत्र बड़े-बड़े पुस्तकालयों में भारी संख्या में पाण्डुलिपियां विद्यमान हैं जिन्हें देखने, पढ़ने व समझने का किसी को विचार ही नहीं होता और सम्प्रति लोगों को संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने के कारण उनमें इसको ग्रहण करने व समझने की क्षमता ही है। अतः यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि महाभारत व उससे पूर्व के काल में आजकल के समान कभी वैज्ञानिक उन्नति हुई ही न हो।  हमें यह भी लगता है कि यदि हमारे प्राचीन वैज्ञानिक ऋषि आदि पूर्वजों ने आजकल की तरह प्रकृति के साधनों का दोहन किया होता तो आज की जेनरेशनपीढ़ी को उपभोग करने के लिए प्राकृतिक साधन बचे ही होते यहीं कारण है कि वैदिक धर्म संस्कृति का आधार भोगवाद नहीं अपितु त्यागवाद है। आजकल का भोगवाद मनुष्यों के जीवन के उद्देश्य की पूर्ति में बाधक होकर उन्हें रोगी अल्पायु बना रहा है तथा आने वाली नई पीढि़यों के उपभोग की वस्तुओं से उनको वंचित कर रहा है जो कि अन्यायपूर्ण अमानवीय है।

 

प्राचीन काल में हमारे देश में आचार्य आर्यभट्ट (476-550 CE) गणित और खगोल ज्योतिष के विश्व भर में महान विद्वान थे। उनके ग्रन्थ आर्य सिद्धान्त व आर्याभट्टीय आदि हैं जिनमें खगोल विज्ञान सहित बीजगणित व त्रिकोणमिति आदि भी हैं। वैदिक गणित की भी आजकल चर्चा है जो लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है। ज्योतिष विज्ञान के अन्य आचार्य वराहमिहिर (499-587) भी विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं जिन्होंने पंच सिद्धान्तिका ग्रन्थ संसार को दिया है जिसका विषय कृषि व ऋतु विज्ञान है। सूर्य सिद्धान्त ग्रन्थ भी विश्व प्रसिद्ध ज्योतिष विज्ञान का ग्रन्थ है। जिसका मूल 5,000 वर्षों से भी कहीं अधिक वर्ष पूर्व है। मयासुर आदि इसके प्रणेता, आचार्य व उपदेशक रहे हैं। इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्राचीन काल में भारत ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण व आत्म निर्भर था। हमारे पास विज्ञान के क्षेत्र में आज से कहीं अधिक उन्नत प्रतिभायें थी। हम यह भी अनुमान करते हैं कि विगत 1.96 अरब वर्षों में अनेक बार उत्थान व पतन हुए जिससे सारा विकास व उन्नति ध्वस्त हुए। पुनः नये सिरे से विकास हुआ और पुनः उत्थान व पतन होते रहे। आज की परिस्थितियों में प्राचीन काल में विज्ञान की उन्नति का सही अनुमान लगाना कठिन है परन्तु यह निश्चित है कि प्राचीन भारत में विज्ञान की उन्नति आवश्यकता के अनुरूप व कई क्षेत्रों में आज के समय से भी अधिक थी। यह भी ध्यातव्य है कि हमारे पूर्वज ऋषि व योगी मन्त्र द्रष्टा होते थे। वह इच्छित विषय का सूक्ष्म-गभीर-सत्य-यथार्थ-उपयोगी ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ थे और उन्होंने अपने-अपने समयों में इसका अनुसंधान, विकास व उन्नति भी की थी। अतः यह नहीं कहा जा सकता की वेद-कालीन प्राचीन भारत किसी प्रकार से भी कम उन्नत, विकसित व वैज्ञानिक दृष्टि से निम्नतर था। हम आशा करते हैं कि पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे क्योंकि यह तर्क व प्रमाण पर आधारित हैं।

 

 

15 COMMENTS

  1. मै सिंह साहब से सहमत हूँ।माना कि जडी बूटियों का ज्ञान आयुर्वद मे था। कुछ अनुसंधान भी हुए होंगे, अपने अप्रमाणित काल्पनिक अतीत को सोच सोच कर ख़ुश होने से फायदा नहीं, यहाँगणेष के धड़ पर head transplant किया गया या पुष्पक विमान बनाया गया। पौराणिककथाओं मे वास्तविकता नहीं होती क्कल्पना होती है।

    • बाल्मीकि रामायण कोई पौराणिक ग्रन्थ नहीं अपितु इतिहास की पुस्तक है। यह सत्य है कि इसमें प्रक्षेप किये गए हैं। विवेक बुद्धि से सत्यासत्य का निर्णय समीचीन है। कृपया श्री आर. सिंह जी की प्रतिक्रिया के उत्तर में मेरे वाक्यों को भी देखने की कृपा करें। सादर।

      • जी सही कहा आपने वाल्मीकि रामायण के छठठे कांड के अंतिम श्लोक को पढ़ लीजिये । सच्चाई खुद सामने आ जायेगी । क्योंकि इसी श्लोक पर वाल्मीकि ने रामायण महाकव्य का अंत कर दिया था । सातवा कांड पूरा का पूरा बाद में जोड़ा गया । इस छः कांड में भी काफी मात्रा में फेरबदल किया गया है । यदि संस्कृत के विद्वान है तो आओ सरलता से झूठे श्लोक को अलग कर सकते हो । महाभारत , रामयण , वेद , ब्राह्मण ग्रंथ आदि आदिग्रंथ कोरी कल्पना नही है ।ये समूचे ब्रह्मांड को समझने का संदर्भ है। हा , वेद को छोड़कर काफी ग्रंथो में फेरबदल अवश्य किये गए है । लेकिन जैसा कि कहा संस्कृत का कोई भी विद्वान इसे अलद कर सकता है ।
        धन्यवाद ।

  2. आज का युवा अपने गौरवशाली अतीत से अनभिज्ञ है | मैकाले की नीति पूर्णतय: सुफल है भारत में |

  3. कभी कभी मुझेआश्चर्य होता है कि मोहन आर्य जी जो ये सब झूठ का पुलिंदा पेश किये जा रहे हैं,उसका प्रतिवाद कोई क्यों नहीं करता?

    • श्री आर सिंह जी ने लेखों में कौन सी बाते झूठी पाई हैं, यह नहीं बताया। यदि वह स्पष्ट करें तो विचार किया जा सकता है। इससे यह भी विदित होता है कि वह वैदिक साहित्य व उसकी परंपरा से अनभिज्ञ हैं। यदि वह महर्षि दयानंद के ग्रन्थ व वेदभाष्य ही पढ़ ले तो उनकी समस्या स्वतः हल हो सकती है। पाश्चात्य विद्वान प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने उनके ग्रन्थ और वेदभाष्य को पढ़कर अपने विचार बदले थे। उनके लेक्चर्स का संग्रह “हम भारत से क्या सीखे” शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. इतना ही नहीं वह एक विदेशी विद्वान की पुस्तक “बाइबिल इन इंडिया” ही पढ़ लें तो भी उनको कुछ जानकारी हो सकती है। महर्षि दयानंद ने वर्ष १८७५ में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसका विस्तार से वर्णन वा स्पष्टीकरण उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में किया है। उनके समकालीन किसी ईसाई, मुस्लिम या पौराणिक विद्वान, जिन्होंने स्वामी दयानंद का विरोध किया और उनसे शास्त्रार्थ किये, यह शंका नहीं की यह घोषणा गलत है। आज तक भी किसी ने इसे चुनौती नहीं दी है। वेद कहते ही विद्या वा ज्ञान को हैं। सादर।

      • पृथ्वी की प्रमाणित आयु क्या है?अगर पृथ्वी की प्रमाणित आयु 1,96,08,53,115 वर्ष मान लिया जाये,तो भी यह कैसे संभव है कि पृथ्वी के अस्तित्व में आते हिं मनुष्य भी आ गया और वह तुरत सभ्यता के शिखर पर पहुँच गया?मैं मानता हूँ कि मैंने दयानंद सरस्वती का विशद अध्ययन नहीं किया है,पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि रामायण में वर्णित पुष्पक विमान सचमुच में था,इसी तरह की अन्य बहुत सी बाते हैं,जिनको मानने को तैयार नहीं हूँ. ज्ञान या विज्ञान का जो विकास हमने प्रमाणित पुस्तकों में देखा है,उससे इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि उन्नत विज्ञान पहले था हीं नहीं.कल्पना अवश्य की गयी होगी,क्योंकि आधुनिक युग में भी ऐसी बहुत सी कल्पनायें अठारहवीं या उनसे पहले के सदियों में की गयी थी,जिनको अब धीरे धीरे मूर्त रूप दिया जा रहा है

        • नमस्ते महोदय। वैदिक परंपरा के अनुसार सृष्टि बनने में ६ चतुर्युगी अर्थात २५९ लाख २० हजार वर्षों का समय लगता है। इस अवधि में सृष्टि बनकर तैयार हो जाती है. वनस्पति जगत एवं अन्य सभी प्राणियों की उत्पत्ति के बाद मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि होती है। अमैथुनी सृष्टि में सभी मनुष्य, स्त्री व पुरुष, युवा अवस्था में जन्म लेते हैं। इनको ईश्वर से चार वेदो का ज्ञान मिलता है। ईश्वर की प्रेरणा से यह काल गणना आरम्भ करते हैं। सृष्टि संवत्सर के वर्षों की यह गणना सृष्टि के आरम्भ से चली आई है। वैज्ञानिक अनुमान भी लगभग इसके अनुरूप हैं। सृष्टि के आरम्भ के कुछ वर्षों के बाद ही मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुँच गया था। इसका कारण उसके पास वेदों का ज्ञान व उसके सत्य अर्थों की उपलब्धि थी। यदि आज के सत्यासत्य मिश्रित मत मतान्तरों के ग्रंथों के बावजूद इतनी वैज्ञानिक उन्नति हो सकती है तो अति प्राचीन काल में वेद ज्ञान व उसकी सहायता से इच्छानुसार ज्ञान व विज्ञानं की उन्नति होने में कुछ सन्देश नहीं है। महर्षि बाल्मीकि जी आप्त पुरुष थे। वह असत्य वा मिथ्या नहीं लिख सकते थे। अतः पुष्पक विमान होने की बात सर्वथा सत्य है। रावण समुद्र पार कर हमारे वन प्रदेशों में आता था तो यह संभव है की वह वा उसकी सेना वा लोग वायुयान का ही प्रयोग करते होंगे। महर्षि दयानंद जी ने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर अपने प्रवचनों में कहा था कि सृष्टि उत्पन्न होने के कुछ वर्षों बाद आर्य लोग अपने विमानों में परिवार व इष्ट मित्रों के साथ देश देशान्तर में घुमा करते थे। उन्हें जो भाग अच्छा दिखाई देता था वह वहां उतर जाते और अपने लोगो को वहां बसा देते थे। इस प्रकार से सारी दुनिया में लोग बेस या फैले हैं। एक अन्य स्थान पर दयानंदजी ने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर यह भी कहा है क़ि प्राचीन काल में निर्धन से निर्धन व्यक्ति के यहाँ अपने निजी विमान होते थे। यह बात आज कल असंभव भले प्रतीत हो परन्तु हम देहरादून में ८ से १० फ़ीट चौड़ाई वाली गलियों में भी आजकल कारें घूमती हुई देखते हैं। ५५ साल पहले यहाँ के प्रमुख मार्ग पर भी हमें कई कई घंटे तक एक कार दिखाई नहीं देती थी। प्राचीन वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर यह बाते पुष्ट लगती हैं। महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित एक अत्यंत प्राचीन ग्रन्थ “वैदिक विमान शास्त्र” भी कुछ वर्षों पूर्व खोजा गया है जिसमे अनेक प्रकार के विमाओं का वर्णन है। यह ग्रन्थ आज भी आर्य समाजों के अनेक पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं। आप इसे देखकर स्वयं इसका मूल्याङ्कन कर सकते हैं। महर्षि दयानंद जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विमान विषयक वेद मन्त्रों का उल्लेख हिंदी व संस्कृत में भाष्य सहित किया है। हम प्रतिदिन, दिन में कई कई बार ईश्वर स्तुति प्रार्थना के मन्त्रों का पाठ करतें है जिसमे कहते हैं कि “जो ईश्वर आकाश में सब लोक – लोकान्तरों को विमानों की तरह अर्थात जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोको का निर्माण करता और भ्रमण करता है हम लोग उस ईश्वर की उपासना करते हैं। वेद में विमान शब्द का होना क्या बताता है, यह आप स्वयं विचार करने की कृपा करें। महोदय, आपकी प्रत्येक बात का उत्तर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर दिया जा सकता है, परन्तु विस्तार अधिक हो रहा है, अतः लेखनी को विराम दे रहा हूँ। इतना और लिख रहा हूँ कि हमारे अपने पौराणिक बन्धुवों ने वेदाध्ययन बंद कर और विदेशियों ने स्वार्थवश वैदिक ज्ञान और मत के साथ न्याय नहीं किया। सादर।

          • मैंनेअपनी टिप्पणी को पढ़ा,तो मुझे उसमे कुछ भूलें नजर आयीं इसका सुधारा हुआ रूप यह है,
            “एक प्रश्न ,वेद कब लिपिबद्ध हुआ,क्योंकि वेदों को श्रुति कहा गया है? इसका मतलब मेरे समझ में तो यही आता है कि ऋषियों ने इसे ईश्वर से सुना और पीढ़ी दर पीढ़ी यह केवल सुनकर याद किया जाता रहा. वेदों या शास्त्रों के अनुसार लिपि का विकास कब हुआ? अंत में एक सुझाव. आज जो कुछ सामने है,उसके बारे में यह कहना कि हमारे यहाँ यह पहले से मौजूद था आसान है ,पर हमारे वेदों या शास्त्रों में अभी भी बहुत कुछ ऐसा वर्णित है,जो नहीं उपलब्ध है.हो सकता है कि विदेशों में उसपर भी कुछ काम हो रहा हो,क्यों न हमारे वेदों और शास्त्रों के विद्वान वर्तमान सरकार पर दबाव डालें और उनपर इसी देश में अनुसंधान करके यह सिद्ध करे कि यह संभव है.उसमे एक है किसी व्यक्ति में ऐसी शक्ति का विकास कि वह स्वतः ही उड़ने लगे’जैसा कि हनुमान जी करते थे वे तो इससे भी बहुत आगे थे .पहाड़ लेकर उड़ सकते थे.अभी तक संस्कृत का कोई विद्वान या संस्कृत पढ़ाने वाली किसी संस्था ने इस दिशा में कोई कदम क्यों नहीं उठाया?मंदिरों के पास अपार सम्पदा है.उससे इस शोध को आगे बढ़ाया जा सकता है.आप भी जानते हैं कि अगर धर्म को विज्ञान से जोड़ दिया जाये,तो मानवता का कितना कल्याण हो जाएगा.

          • मान्यवर माफ़ी चाहता हूँ बीच मे बोलने के लिई, किन्तु एक बात हमेशा मेरे जहन मे आती हैं की क्या सभी मुनि, भगवान का जन्म भारत देश मे हुआ, किसी अन्य देश मे नही दूसरे देशों से इश प्रकार की बातें सुनने क्यूँ नही मिलती ?

      • यहाँ व्यर्थ के वाद-विवाद की नीरसता को मिटाने हेतु एक चुटकुला याद हो आया| एक गाँव के बीच से जाते आगंतुक विद्वान ने रमश सिंह जी से पूछा कि क्या यह सड़क शहर की ओर जाती है? रमश सिंह जी बोले, मैंने सत्तर वर्षों से ऊपर इस गाँव में रहते सड़क को यहीं देखा है| यह कहीं नहीं जाती!

        • नमस्ते महोदय। प्रसंग प्रेरक एवं सराहनीय है। धन्यवाद।

          • आदरणीय महोदय प्रणाम स्वीकार करे
            इस दिव्य संस्कृति आगे बढ़ाने में हम भी उत्सुक है लेकिन इस विद्या अभ्यास को निरंतर अपने स्तर पर कैसे जारी रखे कृपया मार्गदर्शन करे ।

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