‘सब सत्य विद्याओं का दाता व अपौरूषेय पदार्थों का रचयिता परमेश्वर है’

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जीवन में जानने योग्य कुछ प्रमुख सूत्रों की यदि चर्चा करें तो इनमें प्रथम ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उनका सब का आदि मूल परमेश्वर है’ सिद्धान्त को सम्मलित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त का संसार में जितना प्रचार अपेक्षित है, उतना नहीं हुआ। यह सूत्र महर्षि दयानन्द के गहन वेद ज्ञान की देन है। इस सूत्र पर अधिकारी विद्वान ग्रन्थ व शास्त्र लिख सकते हैं। हमारी तुच्छ बुद्धि में तो यह बात भी आती है ईश्वर की कृति ‘‘चार वेद” भी इस सिद्धान्त का ही व्याख्यान है और महर्षि दयानन्द की संसार को अनुपम देन ‘‘सत्यार्थ प्रकांश” भी इस नियम का ही प्रकाश व पालन है। यह समझ से पर है कि इतना महत्ववपूर्ण नियम होते हुए भी संसार ने इसे अपनाया क्यों नहीं? विचार करने पर हमें यह नियम आधुनिक विज्ञान का भी आधार प्रतीत होता है। आईये, विचार करें कि इस नियम में क्या कहा गया है और वह हमारे लिए क्यों व किस प्रकार से उपयोगी व जानने योग्य है?

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इस नियम में सब सत्य विद्याओं का उल्लेख किया गया है। इससे पता चलता है कि संसार में अनेक सत्य विद्यायें हैं। सत्य विद्यायें है तो इसके विपरीत जो ज्ञान व अज्ञान है वह असत्य विद्यायें निश्चित होती हैं। असत्य विद्यायें अज्ञान व भ्रान्ति का परिणाम होती हैं। सत्य विद्याओं की उत्पत्ति वा इनका आदि स्रोत इस संसार को बनाने वाली शक्ति परमेश्वर है। परमेश्वर सब सत्य विद्याओं का उद्गम व आदि स्रोत कैसे है? यह प्रश्न किया जा सकता है। इसका उत्तर है कि जीवात्मा तो अल्पज्ञ है। यह स्वयं कुछ कर नहीं सकता। यह जो कुछ करता व कर पाता है वह सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त मानव शरीर आदि शक्तियां है तथा सृष्टि की आदि में ईरूपी प्रदत्त वेद का ज्ञान है। यदि ईश्वर जीवात्मा को मानव शरीर प्रदान न करें तो यह स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। मानव शरीर दे दिये जाने के बाद भी इसे अपने जीवन को चलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। वह ज्ञान इसे सम्प्रति  माता-पिता-आचार्य आदि लोगों से प्राप्त होता है। माता-पिता व आचार्य जो ज्ञान देते हैं, वह ज्ञान उन्हें अपने माता-पिता व आचार्यों से प्राप्त होता आ रहा है। इस प्रकार चलते चलते हम सृष्टि के आरम्भ में पहुंच जाते हैं। सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में जो युवा अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा जी आदि मनुष्य उत्पन्न हुए थे उनको ज्ञान देने वाले उनके माता पिता व आचार्यगण नहीं थे। उनको कहीं से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता था। ज्ञान प्राप्त न होने पर वह अपना जीवन व्यतीत नहीं कर सकते थे। उस स्थिति में ईश्वर ने माता-पिता व आचार्य की भूमिका का निर्वाह कर उन्हें वेदों का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान ईश्वर के सर्वान्तर्यामी स्वरूप से चारों ऋषियों की जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया गया गया था। उन्होंने ब्रह्माजी को और इन सबने मिलकर शेष मनुष्यों को उस ज्ञान से शिक्षित किया। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। अतः ऋषि-मुनियों ने वेदाध्ययन कर वेद से सत्य विद्याओं की खोज व अनुसंधान आरम्भ किया और उपयोगी विद्याओं को प्राप्त कर उससे मानव हित के कार्य किये। यदि ईश्वर वेद ज्ञान न देता तो आज तक भी कोई मनुष्य, ज्ञान व ज्ञान से उत्पन्न होने वाली भाषा की उत्पत्ति कदापि नहीं कर सकता था। अतः सभी प्रकार के ज्ञान व भाषाओं का आधार ईश्वर, उससे प्रदत्त चार वेद और हमारे प्राचीन ऋषियों की ऊहापोह के साथ कालान्तर में विद्वानों के अध्ययन व अनुसंधान कार्य सिद्ध होते हैं। यहां यह भी बता दें कि ईश्वर ने अपनी सभी विद्याओं का प्रकाश वेद सहित इस सृष्टि की रचना कर किया है। सूर्य, नक्षत्र, चन्द्र व पृथिवी तथा लोक-लोकान्तर आदि सब ईश्वर की विद्या, विज्ञान, ज्ञान व शक्ति का परिचय दे रहे हैं। अभिमान से रहित श्रद्धावान व ज्ञानी  लोग ही उसको जान व समझ सकते हैं तथा मत-मतान्तरों के अभिमानी, स्वार्थी, हठी, पूर्वाग्रह युक्त व अज्ञानी लोग इसको यथावत् नहीं जान सकते।

 

उपर्युक्त वर्णित सूत्र, नियम व सिद्धान्त में दूसरी बात यह बताई गई है कि पदार्थों का ज्ञान विद्या से हुआ करता है। जो विद्याविहीन लोग होते हैं वह पदार्थों का सत्य व पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, उसे जान नहीं सकते। हमने कुछ विज्ञान पढ़ा है। रसायन व भौतिक विज्ञान में अध्ययन कराया जाता है कि प्रत्येक पदार्थ सूक्ष्म परमाणुओं से बनता है। वह परमाणु भी सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति अथवा प्रोटोन, इलेक्ट्रोन व न्यूट्रोन से मिलकर बनते हैं। परमाणुओं से अणु बनते हैं। एक ही व भिन्न प्रकार के परमाणुओं के परसपर संयोग से तत्व व भिन्न भिन्न पदार्थों के अणु अर्थात् द्रव्य बनते हैं। पदार्थों में जो गुण होते हैं, वह उसमें निहित भिन्न भिन्न तत्वों के परमाणुओं के भिन्न भिन्न अनुपात के कारण से होते हैं। इस प्रकार से हमें ज्ञात होता है कि जो पदार्थ हमें दिखाई देते हैं वह पूर्णतः व अधिकांशतः इस परमाणु-अणु सिद्धान्त के आधार पर ही जाने जा सकते हैं। यह तो बने बनाये पदार्थों को जानने की बात है परन्तु इन पदार्थों को बनाने वाली सत्ता, जिन्हें मनुष्य निर्मित नहीं कर सकता, वह ईश्वर होती है। वैदिक साहित्य के अनुसार जड़ जगत की रचना का आधार सत्व, रज व तम गुणों वाली अनादि प्रकृति है। वैशेषिक दर्शन के सूत्र 1/1/5 ‘पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।’ में बताया गया है कि पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य हैं। विज्ञान अभी तक आत्मा व मन को भली प्रकार से जान नहीं पाया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि ‘क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति  द्रव्यलक्षणम्।।’ अर्थात् जिस में क्रिया, गुण और केवल गुण भी रहें उस को द्रव्य कहते हैं। उनमें से पृथिवी, जल, तेज, वायु, मन, और आत्मा ये छः द्रव्य क्रिया और गुणवाले हैं तथा आकाश, काल और दिशा ये तीन क्रियारहित गुण वाले द्रव्य हैं। (समवायि) ‘समवेतुं शीलं यस्य तत् समवायि प्राग्वृत्तित्वं कारणं समवायि च तत्कारणं च समवायिकारणम्।’ ‘लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्’ जो मिलने अर्थात् संयोग के स्वभावयुक्त हो और जिस कार्य से उसका कारण पूर्वकालस्थ हो उसी को ‘द्रव्य’ कहते हैं। जिससे लक्ष्य जाना जाय जैसा आंख से रूप जाना जाता है उसको ‘लक्षण’ कहते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषत् का एक वचन ‘अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।।’ में कहा गया है कि प्रकृति जन्मरहित, अजन्मा, अनुत्पन्न वा अनादि तथा सत्व, रज, तमोगुणरूप है। यही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप (सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, लोकान्तर आदि) हो जाती है अर्थात् प्रकृति परिणामिनी वा संयोग-वियोग-सहित होने से अवस्थान्तर हो जाती है। पुरूष (ईश्वर) अपरिणामी होने से व अवस्थान्तर होकर दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त होता, सदा कूटस्थ निर्विकार रहता है और प्रकृति सृष्ट अवस्था में सविकार और प्रलय में निर्विकार रहती है। द्रव्यों के गुणों की चर्चा भी वैशेषिक दर्शनकार ने की है। उपयोगी होने से वह भी यहां प्रस्तुत करते हैं। ‘रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथकत्वं संयोगविभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नराश्यगुणाः।।’ अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द ये 24 गुण कहलाते हैं। ‘द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वाकारणामनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।’ में वैशेषिक दर्शनकार बताते हैं कि गुण उसको कहते हैं कि जो द्रव्य के आश्रय रहें, अन्य गुण का धारण न करे, संयोग और विभाग में कारण न हों, अनपेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न करें, उसका नाम गुण है। हम समझते हैं कि इस विवरण से पदार्थों, उनकी रचना, गुणों व लक्षणों आदि पर प्रकाश पड़ता है और यह जानने योग्य है।

 

विचारणीय सिद्धान्त में सभी सत्य विद्याओं व ज्ञान तथा पदार्थों में निहित व कार्यरत ज्ञान व उनको जनाने वाली विद्या का आदि मूल व उत्पत्तिकर्त्ता, रचयिता ईश्वर को बताया गया है। यह संसार का यथार्थ सत्य है जिससे हमारे वैज्ञानिक और सभी मत-मतान्तर अपरिचित व अनभिज्ञ हैं। इसको जानकर ईश्वर, जीव व जड़ प्रकृति सहित विकारयुक्त प्रकृति यथा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ पदार्थों के विषय में सत्य ज्ञान की उपलब्धि होती है। संसार के वैज्ञानिकों ने पृथिवी, समस्त भौतिक पदार्थों, खगोल व भूगोल को तो काफी कुछ जाना है परन्तु सृष्टि व मनुष्य जीवन के आदि कारण अपौरूषेय पदार्थों के रचयिता को वह अभी तक जान नहीं सके। उसको जानने का उपाय वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय और योगाभ्यास ही हो सकता है। हमारे देश के वैज्ञानिक ईश्वर तत्व में विश्वास रखते रहे हैं। आवश्यकता है कि यूरोप के वैज्ञानिक भी ईश्वर विषयक अपनी अनुसंधान प्रवृत्ति व प्रकृति को संशोधित कर वेद व उपनिषद आदि का अध्ययन व योगाभ्यास की शरण लें। वह ईश्वर को जानने का प्रयास करें और उसे जानकर तथा सृष्टि रचना से ईश्वर को जोड़कर संसार का व अपना उपकार करें।

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