-गोपाल बघेल ‘मधु’-
(मधुगीति १५०६२१)
रहते हुए भी हो कहाँ, तुम जहान में दिखते कहाँ;
देही यहाँ बातें यहाँ, पर सूक्ष्म मन रहते वहाँ ।
आधार इस संसार के, उद्धार करना जानते;
बस यों ही आ के टहलते, जीवों से नाता जोड़ते ।
सब मुस्करा कर चल रहे, स्मित-मना चित तक रहे;
जाने कहाँ तुम को रहे, तव तरंगों में बह रहे ।
आते हो तुम जाते हो तुम, बिन प्रयोजन लगते मगन;
लगते सभी तुमरे सुजन, साजन बने रहते नयन ।
आत्मा सभी हैं तुम्हारी, आत्मीय तुम प्रिय प्रभारी;
जाएँ कहाँ छोड़ें कहाँ, यह जगत बिन तुमरे कहाँ ।
मण्डलाकार हिण्डोल को
गतिमान क्यों कर, कर रहे।
क्यों सितारों चाँद में,
जगमगाहट भी भर रहे?
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रहते हुए भी हो कहाँ, तुम जहान में दिखते कहाँ;
देही यहाँ बातें यहाँ, पर सूक्ष्म मन रहते वहाँ ।
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गोपाल जी सुन्दर कविता कहीं अंतरिक्ष में उछाल देती है।
मधुसूदन