अधर में लटके अमर

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समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का अमरत्व लगभग खत्म हो गया है। हां, अभी पूरा अध्याय खत्म नहीं हुआ है, क्‍योंकि अमर सिंह द्वारा सभी पदों से दिया इस्तीफा मुलायम सिंह यादव ने स्वीकार कर लिया है। लेकिन अभी अमर सिंह ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है। और ना ही राज्यसभा से इसलिए तकनीकी रूप से अमर सिंह पार्टी के सदस्य जरूर है। अमर सिंह मंझे हुए राजनीतिज्ञ है, अमर सिंह समाजवादी पार्टी से अपनी बोरिया-बिस्तर समेंटने से पहले अपने लिए एक सुरक्षित घर की तलाश पूरी करना चाहते है लेकिन अमर सिंह की सबसे बडी दिक्कत उनकी छवि है। फिलहाल कोई भी पार्टी उनके जैसी छवि के व्यक्ति को अपनी पार्टी में आसानी से हजम नहीं कर सकती है। अमर सिंह भी इस बात को समझते है कि जो स्वतंत्रता और बोलने की आजादी उन्हें समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह ने दी थी वह किसी भी अन्य पार्टी में नसीब नहीं होगी। और अमर सिंह जैसे बाडबोले नेता बिना बोले रह नहीं सकते है।

अमर सिंह की उल्टी गिनती दरअसल कल्याण सिंह को समजावादी के साथ जोडने के साथ ही शुरू हो गई थी। मुलायम-कल्याण गठजोड न तो पार्टी के आम नेताओ को रास आया और ना ही मुलायम के परिवार को। इस गठजोड का पुरजोर विरोध मुलायम के बेटे अखिलेश और भाई रामप्रसाद यादव ने जमकर किया था। परन्तु अमर के साथ मुलायम के होने के कारण घर का विरोध घर में ही दबा दिया गया। उसके बाद आजम खां द्वारा खुला विरोध करने पर भी मुलायम ने जिस तरफ आजम खा को नजरअंदाज कर अमर सिंह का साथ् दिया वह भी मुलायम के पुत्र एवं भाईयों को नागवार गुजरा। अखिलेश खुद जयाप्रदा की रामपूर से उम्मीदवारी वापस लेकर आजम खां को संतुष्ट करना चाहते थे। परंतु अमर के प्रभाव के चलते मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को दरकिनार कर दिया। आजम खां के विद्रोह और कल्याण के साथ के चलते समाजवादी पार्टी का एक भी मुसलमान प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका इस स्थिति ने अमर के खिलाफ पार्टी में माहौल गर्माने लगा। इसके बाद अमर सिंह की सबसे बडी गल्ली यू.पी.ए. सरकार को बाहर से समर्थन देने के फैसले में है। दरअसल, मुलायम भी बाहर से समर्थन देने से ज्यादा सत्ता में आकर महत्वपूर्ण मंत्रालय लेने के विचार में थे। मुलायम सिंह अपने पुत्र अखिलेश को महत्वपूर्ण मंत्रालय में मंत्री देखना चाहते थे और अखिलेश भी केंद्र में मंत्री बनने को आतुर थे। मुलायम का पूरा परिवार यू.पी.ए. सरकार में सत्ता की भागीदारी चाह रहा था। परंतु अमर सिंह ने यहा भी अपना पेच फसाया और मुलायम को ऐसा गणित समझाया कि पूरा परिवार विपक्ष में बैठने को मजबूर हो गया। उसके बाद डिम्पल यादव की हार ने मुलायम के परिवार का सब्र का बांध तोड दिया। हालात इतने विस्फोटक हो गए थे कि अखिलेश ने स्पष्ट मुलायम सिंह से कह दिया था कि वे अमर और अखिलेश में से किसी एक का चुनाव कर ले। अखिलेश के साथ उनके चाचा रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव का पूरा समर्थन था। अखिलेश की तरफ से मोर्चा राम गोपाल यादव ने सम्भाला था और अंत में मुलायम ने अपने परिवार का साथ देते हुए अमर सिंह से कह दिया कि ‘अब पार्टी के नितिगत फैसले अखिलेश यादव एवं रामगोपाल यादव मिलकर लेंगे। बेहतर हो आगे से आप किसी भी विषय पर पहले अखिलेश का विचार जान ले और उसके बाद ही मीडिया में कोई बयान दे। पार्टी में अब अखिलेश का निर्णय ही अंतिम माना जाएगा।’

मुलायम के मुख से यह सुनते ही अमर सिंह समझ गए कि अब उनका वनवास निश्चित है और उन्हें अपनी प्रासंगिता बनाए रखने के लिए और दलों को खटखटना होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर इलाज कराने के लिए रवाना होने से पहले अमर सिंह ने सोनिया गांधी से मिलने का तीन बार समय मागा परंतु अपनी व्यस्तता का हवाला देकर सोनिया ने मिलने में असमर्थता जताई। अमर सिंह समझ गए कि कांग्रेस के दरवाजे उनके लिए खुलना आसान नहीं है। दरअसल अमर सिंह के लिए कांग्रेस की राह में सबसे बडा रोडा उनका बच्चन परिवार का अत्यत करीबी होना है। सोनिया गांधी कभी नहीं चाहेगी कि गांधी परिवार और बच्चन परिवार में दुरिया बढाने वाला शख्स कांग्रेस में आए। कांग्रेस में उनकी वापसी का दूसरा बडा रोडा पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवडा है, मुरली देवडा मुकेश अम्बानी के करीबी है। जबकि अमर सिंह अनिल के करीबी है। ऐसी स्थिती में भी अमर कांग्रेस का सहारा नहीं पा सकते है। इसके बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस में भी अमर का आना संभव नहीं है कारण राष्ट्रवादी में नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल है और प्रफुल्ल पटेल मुकेश अंबानी के उतने ही करीबी है जितने अमर सिंह अनिल अंबानी के। अमर सिंह लाख कोशिश कर ले प्रफुल्ल पटेल के रहते अमर सिंह राष्ट्रवादी में आ नहीं सकते है। अमर सिंह उसी स्थिति में राष्ट्रवादी में आ सकते है जब वे अनिल से सम्बध विच्छेद कर ले और मुकेश अंबानी से माफी मांग ले। जो फिलहाल संभव नहीं है। भाजपा में संघ के संस्कार और नितीन गडकरी के प्रभाव के चलते भाजपा के दरवाजे बंद है।

दरअसल अमर सिंह की परेशानी यह है कि वह जमीनी नेता नहीं है कभी चुनाव लडे नहीं। राज्यसभा को सुशोभित करते रहे है। अमर सिंह जैसे नेता जमीन पर महल बना सकते है। लेकिन खुद के लिए जमीन नहीं बना सकते क्योंकि जमीन बनाने के लिए जमीन से जुडा नेता होना पहली प्राथमिकता है। जो अमर सिंह के पास नहीं है। अमर सिंह ने अपना महल मुलायम सिंह की जमीन पर खडा किया है अब वह जमीन उनके पैरों के नीचे से खसक चुकी है। और कोई जमीनी नेता भी उनके साथ नहीं है। जयाप्रदा ने तो अमर सिंह से पूछ ही लिया कि ”समाजवादी पार्टी नहीं तो फिर कौन?”

अब अमर सिंह कह रहे है कि अभी तक मुलायमवादी था अब समाजवादी बनूंगा। समाजवाद के सच्चे पैरोकारो में आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, राज नारायण का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब अमर सिंह किस समाजवाद की बात कर रहे है यह वही बता सकते है। निश्चित रूप से अमर सिंह का समाजवाद इस समाजवादिया से भिन्न होगा। अब अमर सिंह नया समाजवाद स्थापित करना चाहते है। राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण के समाजवाद का स्थान अब अमरसिंह, अनिल अंबानी, जया बच्चन, जयाप्रदा एवं संजय दत्त जैसे पूंजीपतियों ने ले लिया है। ये समजावाद के कलयुगी अवतार है। डॉ. लोहिया की सप्त क्रांति के सपनों को अमरसिंह जैसे कलयुगी समाजवादियों ने सात तालों में बंद कर दिया है और उसकी चाबी पूंजीपतियों के हवाले कर दी है। समाजवाद के यह मौखिक पैरोकार खूद ही पूंजीपतियों के गोद में बैठ गए है।

बरहहाल अब अमरसिंह क्या करेंगे? अब अमरसिंह समजावादी पार्टी में रहकर ही पार्टी को तोडने काम करेंगे। दल बादल कानून के तहत एक तिहाई सदस्यों द्वारा विद्रोह करने पर उन्हे अलग गुट के रूप में मान्यता मिल सकती है। अमरसिंह अभी पार्टी के दस सांसदो को तोडकर अपना अलग गुट बनाने की रणनिती पर काम कर रहे है। इसके बाद वे अपना दल बनाकर छोटे छोटे दलो को अपने ग्लैमर और पैसो की ताकत पर एक छतरी के नीचे इकट्टा करेंगे। अमरसिंह ने जिन लोगो से मिलना और एक मंच पर लाने की कोशिश शुरू की है उसमें सांसद दिग्विजय सिंह, पूर्व कॉग्रेसी नटवर सिंह, पूर्व भाजपाई जसवंत सिंह है। इसके अलावा अमरसिंह, कल्याणसिंह को जोडकर पिछडे को अपनी तरफ मोडने का प्रयत्न करेंगे। पूर्वाचल राज्य का समर्थन करके एवं हरित राज्य का समर्थन करके अजीतसिंह को भी साधने की कोशिश करेंगे।

दरअसल अब अमरसिंह, समाजवाद की नहीं ठाकुरवाद की राजनीति पर जोर दे रहे है। अमरसिंह जिस योजना पर काम कर रहे है उसमें वह सबसे पहले सभी पार्टियों के सभी असंतुष्टों को खासकर ठाकुरों को साधने में लगे है।

मुलायम सिंह भी अमर सिंह की रग रग से वाकिफ है इस स्थिति को भापकर ही मुलायम सिंह ने डेमेंज कन्ट्रोल की कवायत शुरू कर दी है। मुलायम का पूरा कुनबा पार्टी के सांसदों एवं विधायकों को साधने में लग गया है। लखनऊ में मोर्चा अखिलेश यादव व उनके चाचा शिवपाल यादव ने सम्हाला है जबकि दिल्ली को बचाने का जिम्मा खुद मुलायम एव उनके भाई रामगोपाल यादव ने सम्भाला है। अमरसिंह जानते है कि मुलायम की पूरी जमा पूंजी ही उत्तर प्रदेश है। अमरसिंह इसी जमा पूंजी को लूटने का काम करेगे और खूद न लूट पाने की स्थिति में किसी और दल को लुटवाने में मदद करेंगे। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह जो उ.प्र. के प्रभारी है यह भी समाजवादी के कुछ सांसदों को सम्पर्क में है और जल्दी ही कुछ सांसद कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर सकते है। अमर के पूंजीपतियों मित्रों में सहारा के सुब्रोतो राय काफी पहले ही अमर से दूरी बना चुके है। अनिल अंबानी शुद्ध व्यवसायी है। हर रिश्ते को नफा-नुकसान के तराजू पर तोलते है। अभी अनिल अंबानी मौन है, इस बात की प्रबल सभावनाएँ है कि जल्दी ही अनिल अंबानी का रिलायन्स का नम्बर अमर सिंह से आऊट ऑफ रिच हो जाएगा।

अमरसिंह ग्लैमर की चकाचौध और अंबानी के पैसों के दम पर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहते है। लेकिन अमरसिंह भूल रहे है कि बच्चन परिचार का ग्लैमर और पैसो की ताकत पिछले विधानसभा चुनावों के काम न आ सकी थी।

देख लेना बच्चन परिवार का ग्लैमर और अंबानी का पैसा भी अमरसिंह को पार नहीं लगा जाएगा। या तो अमरसिंह वापस लौटकर मुलायमवादी हो जाएगे या भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएंगे। देखते है अमरसिंह क्या होना पसंद करते है।

-समीर चौगांवकर

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