डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यदि भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की भेंट हो जाए तो इसे आप अजूबा ही समझिए। हालांकि पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने कुछ कार्रवाई तो की है। बहाबलपुर के कुछ लोगों को पकड़ा भी है। फौज के सेनापति राहील शरीफ और अन्य अधिकारियों को भी भारत की शिकायत दूर करने के काम में लगाया है लेकिन जो संकेत अभी आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि भारत सरकार संतुष्ट होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दबाव बढ़ता जा रहा है। उनके रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जैसे के साथ तैसी कार्रवाई का जो बयान दिया है, उसे सारे भारत में सराहा जा रहा है, हालांकि भारत सरकार की असली नीति का प्रतिबिंब है-गृहमंत्री राजनाथसिंह का बयान, जिसमें उन्होंने कहा है कि पाकिस्तान पर इतनी जल्दी अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। पठानकोट हमले को हुए एक सप्ताह बीत गया, दोनों सुरक्षा सलाहकारों के बीच संवाद कायम है लेकिन अभी भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी है। इसका मतलब यही है कि नवाज़ शरीफ सरकार बेहद मजबूरी में है। यदि वह आतंक अड्डों पर सीधा प्रहार करेगी और आतंक के आकाओं को पकड़ लेगी तो हो सकता है कि पाकिस्तान की फौज और आईएसआई उनसे नाराज़ हो जाए। भारत पर हमला करनेवाले पाकिस्तानी आतंकी उसकी विदेश नीति के अविभाज्य अंग हैं। उन्हें पकड़ने का अर्थ है, पाकिस्तान की विदेश नीति को पूर्व से पश्चिम की तरफ मोड़ना! पाकिस्तान की बहुसंख्यक जनता यही चाहती है लेकिन मूल प्रश्न यही है कि प्रधानमंत्री अपनी जनता की सुनेंगे या फौज की सुनेंगे?
पाकिस्तान के एक बहुत वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ अशरफ काजी ने लेख लिखकर मांग की है कि पठानकोट हमले के मुजरिमों को पकड़कर पाकिस्तान को अपनी इज्जत बचानी चाहिए। इसी तरह अफगानिस्तान के मज़ारे-शरीफ स्थित भारतीय दूतावास पर हमला करनेवालों के बारे में अफगान पुलिस के मुखिया ने कहा है कि वे पाकिस्तानी आतंकवादी थे। वे फारसी या पश्तो नहीं बोल सकते थे। वे उर्दू-भाषी थे। अमेरिकी प्रशासन में भी पाकिस्तान-विरोधी हवा फैल गई है। तुर्की में भी कल ही आतंकी हमला हुआ है। पेरिस हमले ने यूरोप को भी भारत की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब अमेरिका और यूरोप को भी भारत का दर्द समझ में आने लगा है। यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तान की फौज अपने नेताओं की बजाय अपने असली मालिकों याने अमेरिकियों की बात ज्यादा ध्यान से सुनती है। यही तत्व आशा की एक मात्र किरण है। जैश—ए—मोहम्मद के मसूद अजहर और उसके साथियों की गिरफ्तारी शायद इसी का परिणाम है।
अमेरिका की एक निति है। कोर नेटो देशो में मित्रता एवं पारस्परिकता बढ़ाना, तथा शेष विश्व में द्वन्द बढ़ा कर हतियार बेचना और अपनी दादागिरी बढ़ाना। सामरिक और आर्थिक सवोच्चता बनाए रखना शेर की सवारी जैसा काम है। अमेरिका अगर अब शेर से उतरा तो शेर उसे खा जाएगा। मुहँ से अमेरिका जो भी बोले लेकिन उनकी बहुत बड़ा निवेश विश्व में योजनाबद्ध द्वन्द बढ़ाने में हो रहा है। अन्य स्केंदेवीयन देश भी उनको मदत करते है।