प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और विश्वसनीय मगर विवादित व्यक्ति अमित शाह को भारतीय जनता पार्टी का नया अध्यक्ष बनाया जाना पार्टी के इस प्रमुख चुनाव रणनीतिकार के लिए एक असाधारण और तेज प्रगति है| अमित शाह की अध्यक्षता इस मायने में भी ख़ास है कि अब प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों ही गुजरात से हैं, जिसके मॉडल की सफलता ही राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी द्वारा भुनाई गई है| ५० वर्षीय शाह पार्टी के सबसे युवा अध्यक्ष भी हैं| गौरतलब है कि अब तक यह जिम्मेदारी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को ही दी जाती रही है किन्तु २०१४ के लोकसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में पार्टी को अप्रत्याशित सफलता दिलवाने वाले शाह का कद इतना बढ़ा कि उन्हें पार्टी के शीर्ष रणनीतिकारों में गिना जाने लगा और पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सत्ता में शामिल होते ही यह कयास लगाए जा रहे थे कि शाह ही इस पद को सुशोभित करेंगे| मोदी के सबसे करीबी और उनके हनुमान माने जाने वाले शाह ने गुजरात भाजपा के मजबूत नेता से राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का सुप्रीमो बनने तक में एक साल से भी कम समय लिया| पार्टी में अधिकतर नेता इस बात से सहमत हैं कि शुरुआती दिनों में आरएसएस से जुड़े रहे शाह ने सफलता का जो समुद्र बटोरा है उसका एक-एक कतरा उनकी अपनी मेहनत का नतीजा है| हालांकि मोदी की निकटता का भी उन्हें भरपूर सहारा मिला है किन्तु जिस रणनीति के तहत वे व्यूह रचना कर विरोधियों को चारों खाने चित कर देते हैं, वह अकल्पनीय है| नरेंद्र मोदी से अमित शाह की पहली मुलाकात अहमदाबाद में लगने वाली संघ की शाखाओं में हुई थी| दोनों बचपन से ही शाखाओं में जाया करते थे| मोदी जहां एक बेहद सामान्य परिवार से आते थे, वहीं शाह गुजरात के एक अमीर परिवार से ताल्लुक रखते थे| युवावस्था में अचानक सब कुछ छोड़कर सभी से संपर्क तोड़ते हुए मोदी कथित तौर पर ज्ञान की तलाश में हिमालय निकल गए, वहीं शाह संघ से जुड़े रहे और शेयर ट्रेडिंग तथा प्लास्टिक के पाइप बनाने के अपने पारिवारिक व्यापार से जुड़े रहे| अस्सी के दशक की शुरुआत में वापस आने के बाद मोदी फिर से संघ से जुड़ गए और बेहद सक्रियता से उसके लिए काम शुरू किया| धीरे-धीरे वे संघ की सीढ़ियां चढ़ते चले गए| इसी दौरान उनकी अमित शाह से फिर मुलाकात हुई| शाह उस समय संघ से तो जुड़े थे लेकिन मुख्य रूप से अपने पारिवारिक व्यवसाय में रचे-बसे थे| अमित शाह ने मोदी से भाजपा में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर की तो मोदी, शाह को लेकर गुजरात भाजपा के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शंकरसिंह वाघेला के पास गए और इस तरह से अमित शाह भाजपा में शामिल हो गए| पार्टी में शामिल होने से लेकर लंबे समय तक शाह की पहचान एक छुटभैये नेता की ही थी लेकिन वे धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के और भी करीब होते जा रहे थे|
नब्बे के दशक में अमित शाह के राजनीतिक जीवन में सबसे बड़ा मौका आया जब वर्ष १९९१ में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसद का चुनाव लड़ने के लिए गांधीनगर का रुख किया| उस समय शाह ने नरेंद्र मोदी के सामने लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने की इच्छा जाहिर की| शाह का दावा था कि वे अकेले बहुत अच्छे से पूरे चुनाव की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं| उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि यदि आडवाणी यहां अपना चुनाव प्रचार नहीं करते हैं तब भी वे इस सीट को आडवाणी के लिए जीत के दिखाएंगे| शाह के इस आत्मविश्वास से मोदी बड़े प्रभावित हुए और आडवाणी की उस सीट के चुनावी प्रबंधन की पूरी कमान उन्हें सौंप दी गई| आडवाणी उस चुनाव में भारी मतों से जीते और इस जीत का असली सेहरा बंधा मोदी और उनके बेहतरीन चुनावी प्रबंधन के माथे पर, लेकिन मोदी और आडवाणी भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमें अमित शाह की काबिलियत की बहुत बड़ी भूमिका थी| इस चुनाव के बाद शाह का कद गुजरात की राजनीति में बढ़ता चला गया| इसी तरह का मौका १९९६ में भी अमित शाह के पास आया जब पार्टी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधीनगर (गुजरात) से चुनाव लड़ने का तय किया| मोदी के कहने पर उस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी फिर से अमित शाह को ही सौंपी गई| उस समय अटल पूरे देश में पार्टी का प्रचार कर रहे थे| ऐसे में उन्होंने अपने क्षेत्र में न के बराबर समय दिया और पूरा दारोमदार पार्टी ने अमित शाह के कंधे पर दे दिया| मोदी को यकीन था कि जिस व्यक्ति को पार्टी ने गांधीनगर की जिम्मेदारी सौंपी है, वह इसमें जरूर सफल होगा और आखिरकार हुआ भी वैसा ही| अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव जीते ही नहीं बल्कि विरोधियों को भी मुंहतोड़ जवाब दे दिया| इन दोनों चुनावी सफलताओं ने शाह की राजनीति और उनके प्रबंधन को चमका दिया| उनकी खुद की छवि मजबूत प्रबंधनकार के रूप में होने लगी| फिर पार्टी के दो शीर्ष नेताओं के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने के बाद शाह का कद उनकी नजरों में भी बढ़ गया था| गुजरात की अपनी इन सफलताओं के चलते शाह मोदी के और भी करीबी हो गए| पॉलिटिकल स्ट्रैटजी तैयार करने और चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की मास्टरी रही है| शाह चुनावी व्यूह रचना करने और कैंडिडेट जिताने-हराने में महारत रखते हैं| अपनी इसी काबिलियत के दम पर वो मोदी पर प्रभाव डाल पाने में सफल रहे और आज अपनी इसी काबिलियत की दम पर शाह पार्टी अध्यक्ष के उस पद को सुशोभित कर रहे हैं जिसकी राजनीतिक विरासत काफी समृद्ध रही है| गुजरात में सहकारी संस्थाओं से कांग्रेस को उखाड़ फेंकना हो या गुजरात क्रिकेट संघ में भगवा परचम फहराना हो, केशुभाई पटेल को राजनीतिक वनवास देना हो या कांग्रेस का राज्य से सूपड़ा साफ़ करना हो, शाह और मोदी की जोड़ी ने हमेशा सफलता ही पाई है और इसमें सबसे बड़ा योगदान शाह के उस व्यापारिक दिमाग को जाता है जिसमें राजनीति कूट-कूट कर भरी हुई है|
हालांकि शाह की उपलब्धियों से अधिक चर्चा उनके ऐसे कारनामों को लेकर रही है जिसकी वजह से एक बार तो उनके राजनीतिक भविष्य पर भी प्रश्न-चिन्ह लग गया था| सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ के मामले में अमित शाह को २०१० में गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा था| उनपर आरोपों का सबसे बड़ा हमला खुद उनके बेहद खास रहे गुजरात पुलिस के निलंबित अधिकारी डीजी बंजारा ने किया था| इसके अलावा इशरत जहां फ़र्ज़ी मुठभेड़, तुलसी प्रजापति मुठभेड़, महिला जासूसी कांड जैसे कुछ और मामले भी शाह के राजनीतिक भविष्य की नैया को डांवाडोल करते रहे हैं| यह बात और है कि शाह कभी किस्मत तो कभी अपने कौशल के जरिए इन मुसीबतों से बाहर निकलते रहे हैं| चुनावी राजनीति में माहिर अमित शाह के नाम रिकॉर्ड है कि अपने जीवन में उन्होंने अभी तक कुल ४२ छोटे-बड़े चुनाव लड़े लेकिन उनमें से एक में उन्होंने हार का सामना नहीं किया| अब तक के राजनीतिक जीवन में शाह ने एक बेहद लो-प्रोफाइल रखने वाले व्यक्ति की छवि बनाई है| शाह को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की मोदी की राय पर मुहर लगाकर सत्ता के दो केंद्रों के संभावित टकराव को खत्म करने का प्रयास किया है| संघ के शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि मोदी को उनकी पसंद का अध्यक्ष देने से पार्टी और सरकार के बीच तालमेल बेहतर रहेगा| शाह न सिर्फ मोदी के विश्वस्त हैं, बल्कि गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री रहते वह गृहमंत्री के तौर पर उनके साथ काम भी कर चुके हैं| इसके अलावा यूपीए सरकार में सत्ता के दो केंद्रों के उभरने वाली गलती से बचने के लिए शाह के नाम पर संघ द्वारा समझौता किया गया| गौरतलब है कि यूपीए सरकार में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के रूप में सत्ता के दो केंद्र उभरने से कई बार सरकार की फजीहत हुई थी। संघ द्वारा राम माधव और वरिष्ठ क्षेत्र प्रचारक शिव जी को भाजपा में भेजना और शाह की टीम में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देना भी यह संकेत करता है कि संघ भाजपा पर अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहता है| फिर शाह को पार्टी अध्यक्ष बनाने की एक और वजह आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं| अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, हरियाणा समेत कुछ अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल बिहार में चुनाव होंगे| झारखंड और दिल्ली में तो कभी भी चुनाव की स्थिति है| पार्टी और संघ इन राज्यों में पैठ मजबूत करना चाहते हैं, इसलिए भी शाह को इस पद की जिम्मेदारी दी गई है| शाह के कद और उनकी पूर्व की राजनीतिक सफलताओं को देखते हुए पार्टी और संघ को विश्वास है कि शाह संगठन के साथ बेहतर तालमेल कर पार्टी को और अधिक ऊंचाइयों पर ले जाएंगे| अमित शाह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी निश्चित रूप से पार्टी और संगठन के लिहाज से सही साबित होगी|
पर नैतिकता और आदर्श का क्या होगा?