‘अम्मा‘ के रूप में पूजी जाने वाली राजनेत्री

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प्रमोद भार्गव
ऐसे बहुत कम सौभाग्यशाली होते हैं, जिन्हें एक पूरा राज्य और देश की बड़ी आबादी ‘अम्मा‘ कहकर पुकारे या ‘मां‘ मानकर पूजे। किंतु यह गंगा, सरस्वती या दुर्गा की तरह देवीतुल्य मान ली गईं मिथकों की पूजा नहीं है, बल्कि वर्तमान का यथार्थ है कि सिनेमा के पर्दे से संघर्श की शुरूआत करने वाली नायिका कैसे राजनीति के माध्यम से जन-सरोकरों से जुड़कर ‘अम्मा‘ कहलाने लग गईं। अम्मा या मां ऐसा संबोधन शब्द है, जो सबसे ज्यादा आदर के भाव से अभिसिंचित है। इसीलिए भारत में अमृतमयी जल देने वाली गंगा को मां कहा गया है। जन्मदात्री मां को तो मां कहते ही हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में राजनेत्री तो बहुत हुई हैं। इस दृष्टि से इंदिरा गांधी बेमिसाल हैं। 1971 में पाकिस्तान से युद्ध जीतने और बांग्लादेश को नए देश के रूप में अस्तित्व में लाने के महत्व को स्वीकार करते हुए, अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा‘ कहा था। इस दुर्गा संबोधन को शौर्य का प्रतीक तो माना गया, लेकिन मां का प्रतीक नहीं माना गया। ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज जैसी कई राजनेत्रियां हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी पूरे राज्य में तो क्या अपने संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में भी मां कहकर नहीं पुकारा जाता। हेमामलिनी, जयाप्रदा और जया भादुड़ी ने भी फिल्मों से लेकर राजनीति में सफलता पाई, लेकिन जयलललिता सा सम्मान प्राप्त नहीं कर पाईं। दरअसल इनमें से ममता को छोड़ दें तो संघर्ष की वह जिजीविषा किसी महिला में नहीं है, जो जयललिता में थी। इसी संघर्श के आदर्श ने उनके निष्ठावान अनुयायिओं की वह फौज खड़ी की जो उनमें मातृत्व-छाया की अनुभूति करते हैं।
जे जयजललिता अनुपातहीन संपत्ति रखने के मामले में दोषी पाई गईं जेल भी गई और फिर उन्हें चार साल की सजा भी हुई। बावजूद न केवल उनकी लोकप्रियता बरकरार है, बल्कि 2016 के विधानसभा चुनाव में इस मिथक को भी तोड़ा कि लगातार तमिलनाडू में कोई पार्टी दो बार चुनाव नहीं जीत सकती। दरअसल 1991 से लेकर 2011 तक यही सिलसिला चलता रहा है। यहां एम करुणानिधी का डीएमके और जयललिता की एमआईएडीएमके ऐसा प्रमुख दल है, जो एक-दूसरे के खिलाफ चुनावी-संग्राम में आमने-सामने रहते हैं। हालांकि एक समय एआईएडीएमके के जनक और फिल्म अभिनेता एमजी रामचंद्रन डीएमके का ही हिस्सा हुआ करते थे। लेकिन जैसे-जैसे उनकी राजनीति के कैनवास पर लोकप्रियता बढ़ी, वैसे-वैसे उनके करुणानिधी से संबंध तल्ख होते चले गए। अंत में रामचंद्रन डीएमके से अलग होकर अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक का गठन कर लिया। फिल्मों से जुड़ी रहने के कारण खूबसूरत और प्रतिभाशाली जयललिता रामचंद्रन के बेहद करीब थीं। रामचंद्रन के कहने पर ही वे राजनीति में आईं। 24 दिसंबर 1978 को जब रामचंद्रन का आकस्मिक निधन हुआ तो पार्टी के निश्ठावान अनुयायिओं ने रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के हाथों में दल का नेतृत्व सौंपने की बजाय, जयललिता को अपना नेता स्वीकार लिया। इसके बाद जयललिता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जो सफलता उन्हें तमिल, कन्नड़ और हिंदी फिल्मों में मिली, वही षिखर उन्होंने राजनीति में छुआ। उन्होंने एक अंग्रेजी फिल्म में भी अभिनय किया है।
जयललिता 1991 में पहली बार करुणानिधि जैसे परिपक्व नेता को शिकस्त देकर तमिलनाडू की मुख्यमंत्री बनीं। जयललिता आयंगर ब्राह्मण थीं। फिल्मी हिरोइन होने के कारण उनकी जनता से एक निश्चित दूरी भी थी। अवाम के बीच उनका कम ही आना-जाना था। सामंतों जैसे उनका वैभवशाली जीवन था। जनता के समक्ष वे केवल अपने आलीशान महलनुमा आवास से यदा-कदा मुखातिब होती थीं। यहां यह भी सोचनीय पहलू है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक उस ब्राह्मण विरोधी पेरियार रामास्वामी नायकर के विचारों से प्रेरित रहे हैं, जिसमें जाति, वर्ण और भेद की वाहक धार्मिक मान्यताओं को कोई जगह नहीं थी। बावजूद जयललिता इतनी लोकप्रिय रही हैं कि उनकी हर जाति और धर्म के लोगों में गहरी पैठ रही है। जितने दिन वे स्वास्थ्य लाभ के लिए चैन्नई की अपोलो अस्पताल भर्ती रहीं, उतने दिन लगातार सभी धर्मावलंबी अपनी-अपनी पूजा-पद्धतियों के हिसाब से उनके स्वस्थ्य होने की कामना करते रहे।
एक समय जयललिता के करीबी रहे सुब्रमण्यम स्वामी ही जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला 1996 में मद्रास उच्च न्यायालय ले गए थे। स्वामी ने इस मामले का आधार उन दो शपथ-पत्रों को बनाया था, जो जयललिता ने 1991 और 1996 में विधानसभा चुनाव का नामांकन दाखिल करने के साथ नत्थी किए थे। जुलाई 1991 को प्रस्तुत हलफनामे में जयललिता ने अपनी चल-अचल संपत्ति 2.01 करोड़ रुपए घोषित की थी। किंतु पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद जब 1996 के चुनाव के दौरान उन्होंने जो शपथ-पत्र नामांकन पत्र के साथ प्रस्ुत किया, उसमें अपनी दौलत 66.65 करोड़ रुपए घोषित की। यानी खुद अनुपातहीन संपत्ति की उलझन में उलझ गईं। स्वामी ने तो इस विसंगति को पकड़कर केवल न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने का काम किया था। उच्च न्यायालय ने इसे गंभीरता से लिया और सीबीआई को जांच सौंप दी। सीबीआई ने जब उनके ठिकानों पर छापे डाले तो उनके पास से अकूत संपत्ति और सामंती वैभव जताने वाली वस्तुएं बड़ी मात्रा में मिलीं। चैन्नई में कई मकान, हैदराबाद में कृषि फार्म, नीलगिरी में चाय बगान, 28 किलो सोना, 800 किलो चांदी, 10,500 कीमती साड़ियां, हीरे-मोती जड़ी बेशकीमती घड़ियां और 750 जोड़ी जूतियां व चप्पलें मिलीं। जयललिता के ठिकानों के साथ, ये छापे उनकी करीबी मित्र शशि कला नटराजन उनकी भतीजी इलावरासी, भतीजे और जयललिता के दत्तक पुत्र सुधाकरण के यहां भी डाले गए थे। इसमें जयलालिता के साथ इन सभी को बेनामी संपत्ति रखने के दोषी पाए जाने पर चार-चार साल की सजा और दस-दस करोड़ के अर्थदंड की सजा अदालत ने सुनाई थी। लिहाजा सितंबर 2014 में जयललिता और उनके निकटतमों को जेल भी जाना पड़ा था। सीबीआई द्वारा इस भ्रष्ट चार के उजागर होने के कारण ही जयललिता की अन्नाद्रमुक 1996 का चुनाव हार गई थीं। लेकिन 2001, 2011 और फिर 2016 का चुनाव जीतने में जयललिता कामयाब रहीं।
उनकी लोकप्रियता की वजहों में प्रमुख वजह रही, एक रुपए किलो गरीबों को चावल, पांच रुपए में अम्मा थाली और फिर सस्ती दरों में ‘अम्मा मिनरल वाटर‘ के नाम से बोतलबंद पानी। इस बोतलबंद पानी को उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने जल-माफियाओं से विरोध भी मोल लिया। दरअसल तमिलनाडू में अवैध तरीके से 92 कंपनियां बोतलबंद पानी बेच रही थीं। जयलललिता ने जब इन पर शिकंजा कसा तो प्रदेश भर की सभी 200 मिनरल वाटर कंपनिययों ने हड़ताल कर दी। लेकिन जयललिता ने कंपनी मालिकों के निहोरे करने की बजाय, उनसे होड़ लेने का संकल्प लिया और मिनरल वाटर के प्लांट लगवा दिए। इनसे उत्पादित बोतल 10 रुपए में उपभोक्ताओं को मिलने लग गई। सस्ते भोजन व पानी के इन्हीं उपायों के चलते जयललिता की लोकप्रियता कायम रही और उन्होंने 2016 विधानसभा चुनाव लगातार दूसरी बार स्पष्ट बहुमत से जीता।
जयललिता जब जेल गईं और बीमार रहते हुए अस्पताल में भर्ती रहीं, तब दोनों दफा उनका उत्तराधिकारी विधयक पनीर सेल्वम को बनाया गया। बावजूद प्रतीक रूप से मंत्री-मंडल की प्रत्येक बैठक में जयललिता का चित्र रखा जाता था और उसे ही मुख्यमंत्री का प्रतीक मानकर निर्णय लिया जाते रहे। अन्नाद्रमुक के सभी सांसद व विधायक उनके पैर छूते हैं, कई तो बाकायदा दण्डवत होते हैं। जयललिता के प्रति इसी दैवीय निष्ठा की वजह से उनकी मृत्यु के दो घंटे के बाद पनीर सेल्वम ने बिना किसी विवाद के 32 मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। जयललिता के जेल जाने के बाद वे दूसरी बार तमिलनाडू के मुख्यमंत्री बने हैं। पनीर सेल्वम के साथ अन्नाद्रमुक के सभी सांसद व विधायक जयललिता का छायाचित्र अपने जेब में रखते हैं। पनीर सेल्वम जब जयललिता जेल में थीं, तब तो एक तरह खड़ाऊं मुख्यमंत्री थे, लेकिन अब उनकी मृत्यु के बाद न केवल राज्य का संपूर्ण दायित्व उनके ऊपर है, बल्कि पार्टी के नेतृत्व की जिम्मेबारी भी है। जयललिता फिल्मों से आईं थीं और फिल्मी कलाकारों को दक्षिण भारत में लगभग देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता है। इस भक्ति-भाव में नेता के तमाम दोष छिप जाते हैं। पनीर सेल्वम को ध्यान रखना होगा कि उनका संबंध किसी अलौकिक चमत्कार से नहीं है। इसलिए उन्हें राज्य और गरीब के बुनियादी हितों का जयललिता से कहीं ज्यादा ध्यान रखना होगा। तभी वे लोकतंत्र की कसौटी पर मजबूत होंगे और एम करुणानिधि जैसे कद्दावर नेता व द्रमुक से लोहा ले सकेंगे।

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