अमोढ़ा राज्य: इतिहास से वर्तमान तक का सफरनामा


डा.राधेश्याम द्विवेदी
प्रागैतिहासिक पौराणिक युगः-बस्ती एवं गोरखपुर का सरयूपारी क्षेत्र प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन काल से मगध,कोशल तथा कपिलवस्तु जैसे ऐतिहासिक एवं धार्मिक नगरों, मयार्दा पुरूषोत्तम भगवान राम तथा भगवान बुद्ध के जन्म व कर्म स्थलों, महर्षि श्रृंगी, वशिष्ठ, कपिल, कनक, तथा क्रकुन्छन्द जैसे महान सन्त गुरूओं के आश्रमों, हिमालय के ऊॅचे-नीचे वन सम्पदाओं को समेटे हुए, बंजर, चारागाह ,नदी-नालो, झीलों-तालाबों की विशिष्टता से युक्त एक आसामान्य स्थल रहा है। इसके अलावा यहाँ एक प्रसिद्ध रामरेखा मंदिर है। जो भगवान राम और सीता देवी के सबसे प्राचीन हिंदू मंदिर में से एक है। भगवान श्री राम बनवास के अपने 14 वर्षों के दौरान यहाँ विश्राम किये थे। छावनी के दक्षिण राज्य राजमार्ग 72 के पास से भगवान श्री राम व सीता लक्ष्मण के साथ राम जानकी मार्ग होकर बन की यात्रा किये थे।
बौद्ध-राजपूतकालः- बौद्धयुग के बाद बस्ती में अंधकार युग आ गया था यद्यपि छिटपुट रूप में यहां मौर्यों शुंगो कुषाणों तथा गुप्तकालों तथा कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों-राठौरों के अनेक प्रमाण प्राप्त होते रहे हैं। सामान्य अनुश्रूतियों के अनुसार यह ज्ञात होता है कि राजपूतों के आगमन के पूर्व यहां के प्राचीन राज्यों एवं बौद्ध विश्वास के खत्म होने तक यहां के हिन्दू राजा पूर्व शासक हुआ करते थे। कुछ आदिवासी जातियां जैसे- भर ,थार,डोम, डोमकटारों ब्राहमण सौनिकों द्वारा मूल हिन्दू राजा सत्ताच्युत हो गये थे। इन्होनें इस अंचल के जंगलों को साफ करके अपने संचित प्रंयासों से इसे कृषियोग्य किया और आगे विकसित किया था। इन हिन्दुओं में भूमिहार ,सरवरिया, ब्राह्मण एवं विसेन राजा थे। यह राज्य पश्चिम से राजपूतों के आगमन के पूर्व हिन्दू समाज से सम्बन्धित था। बाद के मुस्लिम आक्रमणकारियों के दबाव के कारण इन प्राचीन शासित वंश को अवध में तथा वाद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में मिला लिया गया। राजपूत का कोई वंश उस समय तक बस्ती में नहीं आया था। उनका आगमन इसी काल में हुआ था इनके आगमन की पहली सूचना 13वीं शताव्दी का मध्यकाल माना जाता है। प्रथम नवागत राजपूत सरनत थे। जिसे मूलतः सूर्यवंशी कहा गया है। ये सर्व प्रथम गोरखपुर एवं पूर्वी बस्ती में 1275 ई. के लगभग में आये थे। इसके बाद वे मुख्यतः मगहर में बसे। इस मंडल का प्रथम राजपूत वंश श्रीनेत या सरनत था। इसके प्रधान चन्द्रसेन ने गोरखपुर तथा पूर्वी बस्ती से डोमकटारों को निकाला था। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद उनका पुत्र जयसिंह उत्तराधिकारी बना। उनका राप्ती नदी के दक्षिण बांसी में राज्य था।
कायस्थ राजवंशः- परगना अमोढ़ा के मूल निवासी राजपूत नहीं थे। मूलतः वे कायस्थ वंश के थे। वे सत्तारूढ वंश के रूप में 14वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से ही काबिज हुए थे। इस वंश के संस्थापक राय जगत सिंह एक युद्धप्रिय लेखक थे। कहा जाता है कि वह पूर्व के दिनों में अवध के गवर्नर के यहां राज्यसेवा में थे। इनका मुख्यालय सुल्तानपुर हुआ करता था। एक दूसरी अनुश्रूति कहती है कि वह गोण्डा के डोमरिया डीह के डोम राजा के परवर्ती थे। वे ब्राहमण पुत्री से शादी करने के कारण अक्षम्य अपराध के क्षमा याचक भी रहे। 1376 ई. मे जगतसिंह ने डोमराजा को हराया था। उन्हें अमोढ़ा का राज पारितोषिक रूप में मिला था। कल्हण परिवार के अधिष्ठाता तथा सुल्तानपुर के अमेठी के बंधलगोती के आने तक उनके पास अमोढ़ा राज का स्वामित्व बना रहा। एक अन्य कहानी में डोम उग्रसेन को भी कल्हण कहा गया है। इस डोमहारों पर श्रीनेत्र का पारम्परिक विजय कहा जाता है। कुछ कथायंे कहती हैं कि प्रत्येक राजपूत वंश अवध से सम्बद्ध थी। इसी प्रकार महुली महसों की भांति अमोढ़ा के कायस्थ को एक दूसरे सूर्यवंशी द्वारा अलग निकाल दिया गया था। इनके मुखिया कान्हदेव थे जो उस क्षेत्र के कायस्थ जमींदार को भगाकर स्वयं को स्थापित किये थे। इसमें उन्हें आंशिक सफलता मिली थी। उनका पुत्र कंशनाराण पूर्वी आधा भूभाग कायस्थ राजा से प्राप्त कर लिया था। उनके उत्तराधिकारी ने बाकी बचे हुए भाग को जीतकर पूरा अमोढ़ा को अपने अधीन किया था। इस्लाम के आने पर कायस्थ राजकीय सहायक के रूप में आशावान हुए। मुगलकाल में वह पुनः स्थापित हुए। बस्ती मण्डल के शेष भाग में राजपूत वंश का ही बोलवाला थां अपवाद स्वरूप मगहरं मुस्लिम शासक के अधीन था। अमोढ़ा राज्य एक लम्बे समय तक अवध का अन्तर्भुक्त रहा है। गोरखपुर सरकार के अधीन यह बहुत बाद में आया था। इस कारण अंग्रेजों को यहां काफी मशक्कत उठानी पड़ी थी।
अमोढ़ाखास या अमोढ़ा रियासत:-यह जिला मुख्यालय से 41 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसका पुराना नाम अमोढ़ा है। यह पुराने दिनों में राजा जालिम सिंह का एक प्रांत (राज्य) था। इसके अलावा राजा जालिम सिंह के महल यहाँ हैं। महल की पुरानी दीवार अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किये गए गोली के निशान के साथ अभी भी वहाँ है। इसके अलावा एक प्रसिद्ध मंदिर (रामरेखा मंदिर) यहाँ है। 1707 ई. औरंगजेब की मृत्यु के बाद सम्राट बहादुरशाह ने चीन कुलिच खान को अवध का सूवेदार और गोरखपुर का फौजदार नियुक्त किया, जिस पद को उसने 6 सप्ताह के बाद त्यागपत्र दे दिया था। एक भद्र पुरूष मुनीम खान के संकेत पर चीन कुलिच खान ने अपना त्यागपत्र वापस ले लिया था। लगभग 1710 ई. में सम्राट द्वारा पक्ष न लेने से वह पुनः उस पद से त्यागपत्र दे दिया। कार्यमुक्त होकर उसने अपने जीवन का शेष समय दिल्ली में बिताया। उसके त्यागपत्र से स्थानीय राजाओं को अपने-अपने क्षेत्र में धाक जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। प्रत्येक राजा व्यवहारिक रूप से अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हो गया। वे जमीन देने के लिए स्वतंत्र हो गये तथा सामान जमा करने से तथा बड़ी सेना के भरण पोषण से मुक्त होकर सेना को अपनी इच्छानुसार अपने पड़ोसियों से युद्ध में लगा दिये। उनकी स्वतंत्र स्थिति वाइन के “सेटेलमेट रिपोटर्” में वड़ी प्रमुखता से प्रकाशित कराई गई। जिसके अनुसार वे जमीन को विचैलिये की तरह या प्रतिनिधि की तरह नहीं लिए थे, बल्कि मुख्य प्राधिकारी की तरह उपभोग कर रहे थे। उक्त परिस्थिति का लाभ उठाकर अमोढ़ा के सूर्यवंशी ने अपना विस्तार किया था। जब अवध के नबाब सआदत अली खां अंग्रेजों को कर अदायगी न कर पाये तो नबाबी कुशासन का अन्त नवम्बर 1801 ई. के बाद हुआ था। उस समय इस मंडल का बहुत बड़ा भाग अंग्रेजों के अधीन आया तथा लगानमाफी का आदेश पारित हो गया। नबाब ने सत्ता अंग्रेजों को सौंपकर अपने दायित्वों से मुक्त हो गया था। अभी तक अमोढ़ा को छोड़ बस्ती का सारा क्षेत्र गोरखपुर सरकार के नाम से नबाब के अधीन था ,परन्तु 1801 ई. में अमोढ़ा सहित पूरा बस्ती मण्डल गोरखपुर जिले के अन्तर्गत समाहित हो गया था। स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी सह अपराजिता के कारण रानी अमोढ़ा को उनकी गद्दी से बेदखल कर दिया गया तथा उन्हें अपनी सम्पत्ति गवानी पड़ी थी ।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास:-अमोढ़ा कस्बे का स्वतंत्रता संग्राम से पुराना रिश्ता है। यहां के अंतिम राजा जंगबहादुर सिंह की मृत्यु 1855 ई. में हुई थी। राजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्हें नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया तथा अंतिम सांस तक जंग जारी रखी। मजबूर हो अंग्रेज बैरंग वापस लौट गए थे, तभी से यह गांव स्टेट के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन तमाम जन प्रतिनिधि व प्रशासनिक अधिकारी राजा जालिम सिंह के कोट द्वार तक पहुंचे तथा उन्हें श्रद्धांजलि देकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री कर ली। जिसका नतीजा रहा है कि भारी-भरकम आबादी वाला यह गांव बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रह गया। छावनी कस्बे से राम जानकी मार्ग पर महज तीन किमी की दूरी पर स्थित यह कस्बा आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। यहां पर प्राथमिक शिक्षा को छोड़ दिया जाय तो न तो उच्च शिक्षा के साधन हैं और न ही चिकित्सा जैसी कोई मूलभूत सुविधा। जिसको देख कर लोग अपने मन को संतोष प्रदान कर सकें कि वे गांव या कस्बे में रहते हैं जिसका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
सूर्यराजवंश का इतिहासः-अमोढ़ा के राजपुरोहित परिवार के वंशज पंडित बंशीधर शास्त्री ने काफी खोजबीन कर अमोढ़ा के सूर्यवंशी राजाओ की 27 पीढ़ी का व्यौरा खोजा है जिसके मुताबिक इसकी 24 वी पीढ़ी में जालिम सिंह सबसे प्रतापी राजा थे। उन्होने 1732 -1786 तक राज किया । इसी वंश की छव्वीसवीं पीढ़ी में राजा जंगबहादुर सिंह ने 1852 तक राज किया । अंग्रेजों से कई बार मोरचा लिया। 71 साल की आयु में वह निसंतान दिवंगत हुए। उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा के करीब जौनपुर) के दुर्गवंशी राजा की कन्या तलाश कुवर के साथ हुआ। वहां राजकुमाँरियों को भी राजकुमारों की तरह शस्त्र शिक्षा दी जाती थी। इसी नाते रानी बचपन से ही युद्ध कला में प्रवीण थीं। वह आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। परिणाम स्वरुप अन्हें अपनी उपाधि व राज्य से हाथ धोना पड़ा था। यह राज्य बस्ती की रानी को मिला था। जगतकुवरि की निःसन्तान मृत्यु हुई थी। इसी प्रकार इस राज की वरिष्ठ शाखा भी अवसान को प्राप्त हुई थी। सूर्यवंशी अमोढ़ा में अभी भी अपनी सम्पत्ति बनाये रखे हैं। अनका बहुत वड़ी सम्पत्तियां जीतीपुर मे है ,जो सदा फूल फल रहे हैं। अमोढ़ा राज के खंडहर आज भी अपनी जगह खड़े हैं और रानी अमोढ़ा की बलिदानी गाथा का बयान करते हैं। वर्ष 915 ई के पहले अमोढ़ा में भरों का राज था, जिसे पराजित कर सूर्यवंशी राजा कंसनारायण सिंह ने शासन किया । उनके पांच पुत्र थे जिसमें सबसे बड़े कुवर सिंह ने अपना किला पखेरवा में स्थापित किया । आज भी यह उनके किले के नाम से ही मशहूर है। अमोढ़ा के किले और राजमहल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग होने की बात भी कही जाती है। उनके कुंवर कहे जाते हैं तथा अमोढ़ा के इर्द गिर्द के 42 गांव अपने आगे कुवर लगाते है। ये सभी काफी बागी गांव माने जाते रहे हैं। 1858 के बाद इन गांवों पर अंग्रेजों ने भीषण अत्याचार किया गया। इस वंश के राजस्व की मांग रू. 7, 161 है। कायस्थ राजा के प्रतिनिधियों ने बदली हुई परिस्थितियों में सिकन्दर और चैरी में अब भी निवास करते हैं।
सूर्यराजवंश के वंशज:-आज भी राजा जालिम सिंह के वंशज चैदह कोस की दूरी में फैले हुए हैं। कहीं न कहीं इनके मन में भी राजा जालिम के प्रति जन प्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों की अनदेखी साल रही थी। अमोढ़ा गांव राम जानकी मार्ग के दोनों तरफ फैला हुआ है जिसकी आबादी लगभग साढ़े छह हजार है लेकिन राजा जालिम सिंह का राजघराना होने के बाद भी आज तक उनकी याद में बना स्मृति द्वारा भी अधूरा पड़ा है। वहीं मनरेगा के तहत लाखों खर्च कर बनाया गया तालाब भी अपनी बदहाली बयां कर रहा । यह वही तालाब है जो कि राजमहल के भीतर स्थित था और जिसमें रानी तलाश कुंवरि जो स्टेट की महारानी थी, सखियों के साथ स्नान करती थी।
पुरातात्विक सर्वेक्षणः-यह क्षेत्र बौद्ध परिपथ से हटकर था। यद्यपि बस्ती गोरखपुर बौद्ध परिपथ पर रहे। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहयान ने जिले की यात्रायें की थी, परन्तु अमोढ़ा से सम्बन्धित उनके विवरण नहीं मिलते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रारम्भिक खोजकार कनिंघम और कार्लाइल का विवरण 1874-76 में भी यहां से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं मिलता है। हां अंग्रेज पुराविद फयूहरर के विवरण पृष्ट 217 पर में इस स्थान का नाम अवश्य मिलता है। 1891 ई. में उसने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया था। उसने यहां घुमावदारनहर का अवशेष पहचाना था। जो 8 मील और आगे रुपनगर तक गई थी। इस नहर की चैड़ाई 30 गज थी। इसमें अनेक पुरावस्तुएं प्राप्त हुई थीं। नहर के तल पर अनेक टीलों व प्राचीन ईंटों के अवशेष देखे गये थे। यहां पूरे आकार की बुद्ध की प्रतिमा भी मिली थी। इस स्थान के एतिहासिकता के परीक्षण के लिए आद में भी पुराविदों की टीमें यहां आती रही।
अमोढ़ा डीहः- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के डा.वीरेन्द्र प्रताप सिंह तथा रवीन्द्र कुमार ने इस क्षेत्र का अन्वेषण अध्ययन किया है। अमोढ़ा डीह का गांव प्रागधारा 4/पृष्ठ 7 में संदर्भित है। यह उत्तर दक्षिण में 250 मीटर तथा पूर्व पश्चिम में 400 मीटर आकार तथा 1.5 से 2 मीटर ऊंचाई का टीला है। इसे 1989-90 में अन्वेषित किया गया है। भूतल पर प्राप्त पात्रावशेषों के आधार पर यहां लाल पात्र तथा काले लेपित पात्र प्राप्त हुए हैं। प्रमुख कलाकृतियों में छोटीदार कलश, कूटनेवाली हाण्डी तथा अनेकों मों में आनेवाली कलश प्राप्त हुई है। अन्य वस्ततुओं में शीशे के कंगन, शीशे के कच्चे मैटीरियल तथा मिट्टी की पशु आकृतिया प्राप्त हुई हैं।
अमोढ़ाकिला:-एक अन्य अमोढ़ाकिला की साइट भी खोजी गयी है। जो इसी संन्दर्भ पर दर्शायी गयी है। यह उत्तर मुगलकालीन किले के शकल में है। इसके चारो ओ बुर्जियों के निशान तथा 40 गुणे 40 मी.वर्गाकार किले की दीवार के अवशेष 4.5 मीटर ऊंचाई में निर्मित मिले हैं। इस किले के पात्रावशेषों में उत्तर मध्य काल का लाल पात्र उद्वोग प्राप्त हुआ है। इनमें अलंकृत ठीकरे भी हैं। इनमें ठप्पेदार छावचाली पत्तियां , अंगूठे के छाप के खांचेदार तथा छेदवाले डिजाइन के बरतन के हत्थे व टोटिया , कूटनेवाली हाण्डी, सपाट आधार तथा वृत्ताकार के कटोरे, भंडारण के बरतन , मध्यम आकार के कलश, पट्टीदार गले वाले कलश, विना गले व ढ़क्कन के कूटकी पात्र, आदि प्रमुख कलाकृतियां हैं। अन्य कलाकृतियों में टाइलें तथा मिट्टी के छेद वाला डण्डा भी समलित है।
सांसद श्री हरीश द्विवेदी द्वारा गोद लिया गांव:-जब प्रधानमंत्री की पहल के बाद बस्ती के वर्तमान सांसद श्री हरीश द्विवेदी ने 2011 की जन गणना के अनुसार लगभग 6500 की आबादी वाले ग्राम पंचायत को गोद लेने की घोषणा की तो पूरे क्षेत्र में खुशी की लहर दौड़ गयी। यह खबर सुनते ही कस्बे में त्यौहार जैसा माहौल हो गया। हिंदू-मुस्लिम मिश्रित आवादी वाला यह कस्बा हमेशा ही अपने में एक इतिहास संजोकर रखा था और उसमें चार चांद तब लग गए जब उसके विकास के लिए पहली बार किसी जन प्रतिनिधि ने यह प्रयास किया। बस्ती जिले के विक्रमजोत विकास खंड के सर्वाधिक आबादी वाले इस गांव अमोढ़ा को गोद लेने की पहल सार्वजनिक हुआ तो चारों तरफ सांसद के इस प्रयास की सराहना हुई। हिंदू-मुस्लिम आबादी वाले इस गांव के लोगों के चेहरे की चमक देखने ही लायक थी। लोग सांसद के इस प्रयास को एक आस भरी नजरों से देख रहे हैं। छावनी कस्बे से राम जानकी मार्ग पर महज तीन किमी की दूरी पर स्थित यह कस्बा आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। यहां पर प्राथमिक शिक्षा को छोड़ दिया जाय तो न तो उच्च शिक्षा के साधन हैं और न ही चिकित्सा जैसी कोई मूलभूत सुविधा। जिसको देख कर लोग अपने मन को संतोष प्रदान कर सकें कि वे गांव या कस्बे में रहते हैं जिसका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
विकास के नाम पर एक अदद विद्यालय व अधूरा गेट:- कहने को तो अमोढ़ा गांव राम जानकी मार्ग के दोनों तरफ फैला हुआ है जिसकी आबादी लगभग साढ़े छह हजार है लेकिन राजा जालिम सिंह का राजघराना होने के बाद भी आज तक उनकी याद में बना स्मृति द्वारा भी अधूरा पड़ा है। वहीं मनरेगा के तहत लाखों खर्च कर बनाया गया तालाब भी अपनी बदहाली बयां कर रहा । यह वही तालाब है जो कि राजमहल के भीतर स्थित था और जिसमें रानी तलाश कुंवरि जो स्टेट की महारानी थी, सखियों के साथ स्नान करती थी। गांव में वाटर हेड टैंक भी बना है जहां से कस्बे में पानी की आपूर्ति की जाती है, लेकिन उचित रखरखाव न होने के चलते यह बदहाल हो चुका है।

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  1. आपने पूरी जानकारी नहीं दी है कृपया और जानकारी दे

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