शिवानंद मिश्रा
वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रस्ताव पारित किया था कि सभी जज अपनी संपत्ति का खुलासा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करेंगे।
इसके बाद 2005 में भारत में आरटीआई कानून लागू हुआ जिसके तहत कोई भी भारतीय नागरिक सरकार से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
इसलिए 2007 में सुभाष चंद्र अग्रवाल नामक एक कार्यकर्ता ने आरटीआई दायर की कि सुप्रीम कोर्ट में जजों की संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए।
जब सुप्रीम कोर्ट ने जानकारी देने से इनकार कर दिया तो कार्यकर्ता सीआईसी के पास गए और सीआईसी ने फैसला किया कि हां, सुप्रीम कोर्ट को यह जानकारी देनी ही होगी।
उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीआईसी के इस फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल की कि सीआईसी को आदेश दिया जाए कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक न की जाए लेकिन हाई कोर्ट की सिंगल जज बेंच ने सुप्रीम कोर्ट की अर्जी खारिज कर दी।
सुप्रीम कोर्ट यहीं नहीं रुका, उसने दिल्ली हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच के सामने अर्जी दाखिल की और कमाल देखिए, हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने भी सुप्रीम कोर्ट की अर्जी खारिज कर दी और आदेश दिया कि सुप्रीम कोर्ट को जजों की संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करनी होगी।
उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भारत के इतिहास का सबसे अहम कदम उठाते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की और सालों की सुनवाई के बाद 2019 में फैसला हुआ कि जिन जजों ने अपनी संपत्ति की जानकारी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को दी है, उन्हें इसे सार्वजनिक करना होगा लेकिन किसी भी जज को जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
मतलब अगर किसी जज ने ईमानदारी दिखाई है और अपनी संपत्ति का ब्यौरा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को दिया है, तो ही उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए। अगर किसी बेईमान व्यक्ति ने ब्यौरा नहीं दिया है, तो उससे यह नहीं कह सकते कि वह ब्यौरा चीफ जस्टिस को दे।
मतलब सुप्रीम कोर्ट में केस हार-जीत हो गया और सुप्रीम कोर्ट ने आज तक इस फैसले का पालन नहीं किया क्योंकि उसने आज तक किसी भी जज की संपत्ति सार्वजनिक नहीं की है।
इतनी बेहतरीन न्यायपालिका होने के बाद अगर किसी के घर में नोटों के बंडल जले हुए मिलें तो इसमें हैरान होने या परेशान होने जैसी कोई बात नहीं है।
अगर थोड़ी सी रिश्वत ली गई है तो हंगामा क्यों हो रहा है।
शिवानंद मिश्रा