एक आफिस ऐसा भी (भाग-2)

-रवि विनोद श्रीवास्तव-

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आप ने पहले भाग में पढ़ा था कि आफिस की तरक्की कैसे हुई?  कर्मचारी के साथ बॉस का हाव- भाव अलग था। हर तरफ गुट बन चुके थे। और आखिरी में सब खत्म हो गया था। कुछ लोग बचे थे। जो अपनी जीविका चला रहे थे। या कहो अपना मनोरंजन आफिस में कर रहे थे।

किस्मत कहां ले जाए क्या भरोसा?  तंग आ गया हूं यहां से ।  दूसरी जगह नौकरी करनी है। दिल में हर दिन ख्याल आता रहा। सोचता रहा क्या दिन थे इस आफिस के जब मैं आया था?  डरा हुआ सहमा सा। शायद ये सोचता था कि किससे बात करूं?  कहीं कोई डांट न दे? जूनियर हो वैसे ही रहो। चुप-चाप किसी कम्प्यूटर पर कोने में बैठा रहता था। अपने काम से मतलब था। यहां तक कि काम के लिए किसी और को कहना सर पर बोझ जैसा लगता था। कहीं मना न कर दे वो?

शुरू के वो दिन थे जब हर रोज मुझसे कोई गलती होती थी। उस समय मैं काम को समझ रहा था। पर डांट तो लाजमी थी। गलती से याद आया, इक गलती शुरू में राहुल नाम के बंदे ने की, और उसे बिना सोचे समझे मैने आगे बढ़ा दी, वो बढ़ती गई, एक के बाद एक ने की। मुझे आफिस ज्वाइन किए पांच से 6 दिन हुए थे। तब ये गलती हुई थी।

तभी अचानक बॉस दीपक के पास फोन आता है, उनके चेहरे के हाव-भाव से प्रकट हो रहा था कि कोई उनको डांट रहा हो। सबके सामने आकर पूछना कि काम किसने किया और मुझ पर चिल्लाना, काम नही करना तो घर में बैठ जाओ। ऐसे लोगों की जरूरत नही है।

एक तरफ बॉस के आंख में आंसू नजर आ रहे थे, तो दूसरी तरफ मैं भी उदास हो गया। मैंने सोचा नही करना काम चलो छोड़ देते हैं। फिर ख्याल आया कहां जाएगें हर जगह का यही हाल है। बॉस तो गलती पर डांटेगा।

खामोश रहना पड़ेगा गलती पर। सुननी पड़ेगी बॉस की। कैसे वो दिन कटा मेंरा, ऐसा लग रहा था कि जल्दी से मेंरी शिफ्ट खत्म हो। रूम पर जाऊं और दिमाग को ठण्डा करूं। उस रात मैं सो न सका। सोच रहा था मैं ही चेक कर लेता। किसी पर भरोसा क्या करना?

दूसरे दिन जब आफिस पहुंचा तो कल की बात की चर्चाऐं हर तरफ थी। सब मुझे देख रहे थे। और कह रहे थे कि इसमें तुम्हारी गलती से ज्यादा राहुल की है। मैने भी सोचा अब क्या जो हो गया उसके पीछे लगना।

अभी भी मैं लोगों से ज्यादा बोलता नही था। पता नही इसे डर कहे या हिचकिचाहट समझ नही आ रहा है।  दिन बीतने के साथ दोस्त तो बनने ही थे। अंकित शर्मा से दोस्ती हुई फिर सबके सामने खुलकर मेंरा रुप आया। सिगरेट और शराब दोस्ती तो जल्दी करा देती है।

सिगरेट की वजह से अब सारे स्मूकर्स हमारे दोस्त बन गए थे। महिलाओं के ग्रुप में चर्चा हो रही थी। आदित्य अब बहुत बदल सा गया है। आया था तो डरा सहमा सा और अब देखो तो। कुछ दिनों के बाद मेंरे कालेज से एक और लड़के ने आफिस ज्वाइन किया। मुलाकात हुई तो वो अरूण शुक्ला था। मेंरा जूनियर था।

कालेज हालांकि मैने उसे कम देखा था। पर आफिस मेंं देख कर खुश था। वो मुझे भैया कह कर पुकारता था। अब कालेज के जूनियर- सीनियर का फासला खत्म हो चुका था।

दोनों एक आफिस में और दोनों का रूम भी एक तरफ था। हम दोनों की शिफ्ट भी एक ही समय थी। अब क्या था दोनों साथ आ जा रहे थे। आफिस के अंदर भी और बाहर भी। कभी-कभी उसके रूम पर भी जाता था। उसके रूम पार्टनर भी सारे मेंरे जूनियर ही थे। अरूण शुक्ला नशा करने में अव्वल। सिगरेट पीकर आया हो कोई कह दे तो बस तुरंत चल देता था। काम जाए राम भरोसे। पहले सिगरेट फिर काम। चाहे कितनी भी पड़े डांट कोई फर्क नही पड़ता था। बाहर जाकर अपनी भड़ास गालियों से निकाल लेता था। अंकित शर्मा उसकी बातों को सुनकर हंसते, और अपना प्यारा पुराना डॉयलाग बोलते थे। अरे यार तू कलेश कराएगा कभी। बात भी सच थी। हर ऊंट को पहाड़ के नीचे कभी न कभी तो आना ही पड़ता है। और वो दिन अरूण शुक्ला के लिए काफी खराब दिन था।

एक ऐसा जिम्मेंदारी का काम शुक्ला को दिया गया। जिसे वो बाखूबी लापरवाही से निभाता आता था। और शर्मा जी की वाहवाही लूटता। अबे इतनी जल्दी कर दिया तूने ये काम। वाह मेंरे शेर। शर्मा जी की इक खास आदत जैसा कि मैने पहले भाग में बताया था। साकारात्मक सोच को लेकर, वो किसी भिखारी को कह सकते थे कि इस बार का चुनाव लड़ों और प्रधानमंत्री बन जाओगे। और भिखारी भीख मांग कर पेट पालने के बजाए चुनाव लड़ने की तैयारी में लग जाता हो। शुक्ला के इस काम की तारीफ़ सारे लोग करते थे। करे भी क्यों न ? अपने साथ दूसरों काम भी हल्का कर देता था। कभी-कभी दांव उल्टा भी पड़ जाता है।

शुक्ला के ग्रह में शनि की छाया उस दिन नज़र आ गई। जो काम जिम्मेदारी से दिया गया था। उसे बखूबी लापरवाही से निभा दिया। झट से काम खत्म और फुर्र। आफिस के बाहर। सिगरेट के धुएं का छल्ला बन रहा था। तभी बॉस दीपक ने उस काम में नज़र डाल दी। और कुछ महत्वपूर्ण हिस्से के बारे में पूछा। जवाब मिला शुक्ला ने किया है।

सबकी निगाहें शुक्ला को खोजने लगी। जैसे पुकारा जा रहा हो, मुजरिम शुक्ला हाज़िर हो। लेकिन इस लगी अदालत में शुक्ला तो थे नही। वो महराज तो बाहर सिगरेट से धुंआ-धुआं खेल रहे थे। शुक्ला को ऐसे खोजा जा रहा था, जैसे जेल तोड़कर भागा हो। शर्मा के साथ धुंए को नाक से छोड़ रहे शुक्ला काम से निश्चिंत थे। तभी संदेशा शुक्ला के पास पहुंचा कि साहब याद कर रहे हैं।

अब तो सिगरेट भी कह रही थी, मुझे माफ कर दो। सारा खत्म हो चुकी हूं। फेंक दो। शुक्ला ने जैसे कहा इक आखिरी कश। जोर से खींचा और सिगरेट नीचे फेंका, अपने चप्पल से रगड़ते हुए चल दिए। बेचारी सिगरेट जब तक दम था, तब तक मुंह से लगी थी। जैसे ही समाप्त हुई पैरों से बुरी तरह रौंद गई।

शुक्ला के ग्रह में शनि का वास हो गया था उस दिन। दीपक सर ने शुक्ला से पूछां आप ने जो काम किया है उसमें एक महत्वपूर्ण चीज छोड़ दी है। शुक्ला को विश्वास था अपने झूठ पर। झूठ तो झूठ होता है। सफाई दी  इसके अलावा कुछ नही था। दीपक सर को भरोसा नही हुआ और दोबारा से चेक कर लिया। शुक्ला अपने झूठ की वजह से पसीने से तर-बदर हो रहे थे। कभी इधर देखते कभी उधर डर बना था।

काम लापरवाही से किया था और झूठ विश्वास के साथ। ए सी की ठण्डक गर्मी का एहसास शुक्ला को दिला रही थी। मन में शुक्ला कह रहे थे कि हे भगवान वो न मिले। आज भगवान भी शुक्ला से रूठे हुए हो जैसे। दीपक सर बड़े ध्यान से उस हिस्से को ढूढ़ने की कोशिश मेंं लगे थे।

लड़कियों की शिफ्ट खत्म हो रही थी। सब अपना बैग तैयार कर रही थी घर जाने के लिए। बाकी सब अपना काम कर रहे थे। शांत वातावरण ऐसा की मक्खी के पंख की उड़ने की आवाज भी सुनाई पड़ जाए।

शुक्ला जी तो बतौनी थे, बाते छौंक रहे थे दूसरे से। लड़कियों ने बैग उठा लिया था। तभी शान्ति वातावरण में एक जोरदार आवाज़ आई। वो आवाज़ दीपक सर की थी। आंखों में गुस्सा और आवाज को सुनते लड़कियों ने भी अपना प्लान बदल दिया। बैग फिर से टेबल पर रख दिया।

दीपक सर- अरूण ये क्या है, मिल तो गया, तुमने तो कहा था कि नही है। काम सही से नही किया है। ऐसे काम मत किया करो। चलो यहां से उठो और घर जाओ आफिस आने की जरूरत नही है।

इतनी लापरवाही बर्दास्त नही है। आफिस है कोई लाला की दुकान नही है।

अब भला साहब को कौन बताए कि परचून की दुकान मेंं काम करना कितना मुश्किल होता है।

अरूण- माफ कर दो सर, अब ऐसी गलती दोबारा नही होगी। आंखों मेंं नमी लिए बस अपनी गलती स्वीकार कर रहा था।

दीपक सर- अजीब हाल है। ये इनका तकिया कलाम डॉयलाग था। काम कुछ भी हो पर हाल हमेंशा अजीब होता था। कैसे लोग यहां काम करने के लिए आते हैं।

शुक्ला के चेहरे की हवाइयां उड़ चुकी थी। आफिस के लोग एक टक देख रहे थे। कुछ लोगों को दिली सुकून मिला इस डांट से और कुछ फिर इस डांट का गम भुलाने के लिए निकल पड़े। वही पुरानी जगह जहां धुंए के छल्ले बनते हैं।

शुक्ला ने अपनी भड़ास वहां निकाल दी। शुरू मेंं काम करने मेंं काफी अच्छा था। लेकिन धीरे-धीरे उसमेंं परिवर्तन आ गया था।

सोचा कि इतनी डांट खाने के बाद हर कोई सुधर जाता है। शुक्ला की प्रवत्ति मेंं ऐसा नही था। एक दिन बस और फिर से वही लापरवाही चालू थी।

दोपहर में लंच टाइम आफिस वीराना नज़र आता था। एक साथ सभी खाने पर चले जाते थे। काम कौन करेगा। काम जाए भाड़ में। इसकी शिकायत दीपक सर से की गई। सब लोग चले जाते हैं और काम रूक जाता है।

दूसरे दिन फरमान जारी कर दिया गया। एक साथ सभी नही जाएगें खाने। एक या दो लोग जाएगें। फरमान तो जारी कर दिया गया। अब अमल करने की बारी थी। कुछ ने तो इसे पत्थर का लकीर मान लिया। और उसी राह पर चल दिए। लेकिन कहते हैं न कानून बनने से पहले तोड़ का प्लान बनता है।

ऐसा ही था कुछ। एक दो लंच करने बाहर जाए, तभी और भी लोग इधर-उधर देखें बॉस तो नही दिखाई पड़ रहा है। अगर नही दिखा तो वहां से चंपत हो जाते। फिर क्या साथ बैठकर खाते हैं बातें छौंकते। मेंरा मन हमेंशा विचलित रहता था। आफिस जाते ही कहीं डांट न पड़ जाए। फिर सब एक साथ खाने चले गए थे। खाने से ज्यादा ध्यान आफिस के लिए लगा रहता था। बॉस से शिकायत किसी ने कर दी होगी। पहुंचते ही सुनना पडेगा।

शुक्ला को कोई फर्क नही पड़ता था। शर्मा जी भी बातों के धनी तो थे। और दीपक के अच्छे मित्र भी। अपनी बातों में लोगों को लपेटते रहते थे। खाना खाने के बाद आफिस में इंट्री ऐसे होती थी जैसे चोर हो सारे। चुपके से कोई देख ते नही रहा है। कुछ महीने बीते थे कि तय हुआ अब आफिस में नाइट शिफ्ट शुरू होगी। रात में काम करने वालों को अलग किया गया। जिसमें मेंरा नम्बर नही था। शुक्ला का नाम तो था। अब क्या था। रातों में काम होना शुरू हुआ। कहते है, नया धोबी गधहा पर चढ़त है।

कुछ ऐसा था इस आफिस में। जब रात में काम शुरू हुआ तो कुछ दिन तो ऐसा लग रहा था कि सारी मेंहनत रात में इस आफिस में होती है। लेकिन ये जोश कुछ ही दिन चल पाया। अचानक बदलाव आ गया।

रातों की शिफ्ट सबसे मजेदार होने लगी थी। आराम से चैन की नींद लोग सो जाते थे। ज्यादा लोग न होने की वजह से आराम ही था।  कोई देख-रेख करने वाला भी नही रहता था। सब खुद के मालिक थे।

अब शुरू हुआ था आफिस में असली खेल। काम नही पहले रात को फिल्म कम्प्यूटर पर देखी जाती थी। जिसकी जो मर्जी हो वो मूवी देखे।

जिनके पास महिला मित्र थी, उनकों तो सोने पर सुहागा मिल गया था। मोबाइल का खर्च एकदम से कम हो गया था।

आफिस का फोन रात में बात का अच्छा जरिया बन गया था। पहले बात करनी है फिर काम जब दूसरी तरफ से कहा जाए कि अब सोना है फोन रखो।

सुबह के 4 बजे जो सो रहा है उसे उठाया जाए, फिल्में देखना बंद हो क्यों कि अब तो शिफ्ट भी खत्म होने वाली रहती थी। और काम भी तेजी से करना होता था। 4 कर्मचारी मिलकर 2 घण्टे काम करते थे। सुबह के 7 बजे गायब हो जाते थे। फिर दिन के उजाले में काम शुरू होता था।

ऐसा कुछ महीनों तक लगातार चलता रहा। फोन, फिल्म, सोना रात वालों की आदत बन गई थी। कुछ रातों के लिए कर्मठ कर्मचारी भी चुने गए थे। बॉस कभी –कभी तुलना भी करते थे। पर किसे फर्क पड़ता है। कर्मठ होने के बाद लोग उन्हें सुनाते थे। भाई आज कल बॉस के ख़ास बन रहे हो।

वो बेचारों के पास कोई जवाब नही रहता था।

हर कोई अपनी बात रखता था। ज्ञान के सुर सबके निकलने लगते थे। हालात ऐसे बनते जा रहे थे कि रातों में काम तो होता था लेकिन पहले जैसा कुछ ख़ास नहीं। होते करते सबसे पहले गाज रात में काम को लेकर गिरी।

जिसे बहुत ही प्लान के साथ चलाया गया था। वो शिफ्ट अब बंद होने जा रही है। कुछ लोगों के मन में खुशी थी, तो कुछ लोग काफी दुखी महसूस कर रहे थे। जैसे मानों उनसे किसी ने उनका कोई महत्वपूर्ण समान छीन लिया हो।

हो भी क्यों न अब आज़ादी छिन गई थी। फिल्म की फोन की और सोने की तो खैर रूम में मिल जाएगा। शर्मा जी ने नाव को डूबता देखा तो पहले तय कर लिया निकल लो यहां से अब यहां रूकना खतरे से खाली नही है।

शर्मा जी और दीपक की दोस्ती में थोड़ी दूरी हुई। ये वो दूरी नही थी जिसे कहासुनी से जोड़ते हैं। ये दूरी अलग –अलग आफिस होने से थी। शर्मा जी ने अफिस छोड़ दिया था।

अब क्या था, जैसे हमारा सब कुछ छीन गया हो। शर्मा जी के जाने के बाद हम सारे स्मूकर्स बेचैन से रहने लगे थे। हर बात पर सलाह जो लेते थे। और उनके ज्ञान के आगे तो नतमस्तक हो जाते थे।

कभी-कभी कह देता बाबा बन जाओ काफी फायदा होगा। ऐसे ज्ञान लोगों को देते रहो और पैसा कमाते रहो। क्यों कि आज कल बाबा बन कर आस्था के नाम पर पैसा आसानी से कमाया जाता है।

लोग पैसा दे भी देते है। जिनकी जेब से एक रुपया न निकलता हो आस्था के नाम पर दे दना दन निकलता है।

बाबा से याद आया। इस आफिस के सबसे बड़े सरदार आरिफ़ जी जिनके आफिस मेंं जितने लोग उतने नाम रख दे थे।

कोई दादू कहता तो कोई बाबा कहता, कोई डॉ. साहब कहता कोई बूढऊ कहता। ऐसा लगता है इस आफिस मेंं नाम करण करने का सौभाग्य हर किसी को प्राप्त है। जिसे देखो बिना किसी पण्डित से बिचारे नाम रख देता। और उसे प्रचलित करने मेंं लग जाता।

एक बात तो साफ थी। कोई यहां किसी की सुनना नही चाहता था। हर कोई अपने आप को राजा समझता था। राजा की जब बात आई तो राकेश राजा के बारे मेंं कुछ बता दे आप को। अनुभवी और ज्ञानी तो थे, साथ ही दिमाग का इस्तेमाल भी अच्छे से करना जानते थे।

कभी जब लेट आने को लेकर या काम को लेकर कुछ सवाल खड़े हो तो बॉस के सामने तो चुप हो जाए, जैसे ही बॉस उनके पास से अलग हटे तो देखों, हजार बातों को छौकना शुरू कर देते थे। साला हमसे ज्यादा बोलेगें तो ये कर देगें वो कर देगें। बस हम लोगों को सुनाते और कहते हमसे तो किसी की बहस करने की औकात नही है।

हम सभी को तो पता ही रहता की अब आज डांट पड़ी है इसलिए ऐसा बोल रहे हैं। हंसकर टाल देते हम सब उनकी बातों को। पता रहता था कि जो ये बोल रहे हैं सब फर्जी है। ये ऐसा कुछ नही करेंगे।

रात्रि की शिफ्ट बंद होने से पहले ही कुछ लोग आफिस छोड़कर चले गए थे। और कुछ को फोन गया कि आफिस आने की जरूरत नही है। कम्पनी को काफी नुकसान हो रहा है। अब ज्यादा लोग नही बचे थे।

कम्प्यूटर भी खराब हो गए थे। जिसे बनवाने के लिए कहा जा रहा था पर कोई नही सुन रहा था।

एक दिन तो हद ही हो गई थी। विनीत नाम के एक कर्मचारी आफिस आया और कुछ देर रूका रहा। कम्प्यूटर न खाली होने की वजह से वह कुछ ही घण्टों में वापस चला गया। बड़ा निडर था। मन नही है काम करने का कहकर चला गया।

आरिफ ने उसके बारे में जब पूंछा । फिर उसको फोन किया। उसने कह साफ तौर पर कह दिया सिस्टम नहीं था तो आफिस में रूककर क्या करता घर चला आया हूं। उसके जवाब को सुनकर सब हैरान थे।

आरिफ ने भी कहा क्या लड़का है। सिस्टम नही खाली तो घर चला गया। उसकी इस बात से उसके ऊपर गाज गिर गई।  जब आफिस मेंं छटनी का दौर शुरू हुआ तो विनीत को भी बाहर कर दिया गया। इक बात तो मैं बताना ही भूल गया। अखिलेश नाम का कर्मचारी उस वक्त छुट्टी लेकर घर चला गया था।

जब वह वापस आया तो उससे भी इस्तीफे की मांग कर ली गई। अखिलेश काफी गुस्से में था।

अखिलेश- आरिफ सर एच आर वाले तो कह रहे थे कि उन्होंने इस्तीफे के बारे में आप को बता दिया था। आप ने हमें क्यों नही बताया। हम और दिन घर पर बिता लेते।

सवाल तो काफी अच्छा था। बात भी सही कह रहा था। सब कर्मचारी भी दंग रह गए थे। आरिफ के ऐसे व्यवहार को लेकर सोच मेंं पड़ गए। तभी आरिफ ने अपनी सफाई पेश करते हुए कहा,

आरिफ- ये कोई अच्छी ख़बर थोड़ी थी जो आप को सूचना दिया जाए। आप जाकर एच आर से बात कर लो। बेचारा अखिलेश अपना हिसाब करवाया और आखिरी सैलेरी का चेक लेकर विदा हो गया।

जैसे तैसे कुछ लोगों में आफिस चल रहा था। कर्मचारियों का गेम खेलना बंद नही हुआ था। अब तो फोन भी करने में कोई परेशानी नहीं थी। पीसीओ बन गया था आफिस का फोन। लेकिन हम इसे पीसीओ नही कह सकते। उसमें तो फोन करने के बाद पैसे अदा करने पड़ते हैं। जिससे ज्यादा देर तक बात करने में लोगों को अकरास होता है। लेकिन आफिस का ये फोन तो इससे भी आगे था। न पैसा देना, न समय की कोई पाबंदी। जितनी देर मन हो फोन पर लगे रहो।

आते-जाते दूसरी कम्पनी के लोग देख कर आश्चर्य में पड़े रहते हैं। आखिर इनके पास कोई काम नही होता है। कोई फोन पर लगा रहता है तो कोई गेम खेलता है। सामने बैठे दूसरे विभाग के लोग बातें सुनकर मजे लेते थे। जब सुजीत, या मै कहता कि मछली बनाओ। जो सारा चॉकलेट खा लेगी।

लोग सोचते थे कि ये मछली की क्या रट लगे रहते हैं। आखिरकार एक बंदे ने आकर पूंछ लिया ये मछली क्या है और कैसे बनाते हो। जब उसे गेम में दिखाया गया तो वह भौचक्का रह गया। यार तुम लोग कितने सही हो गेम खेलने को मिलता है। हमारे विभाग मेंं सिर्फ काम ही काम है। दिन भर लगे रहे काम करते रहो, फिर भी डांट मिलती है।

अब मेंरी पूरी कम्पनी में 8 से 9 लोग बचे थे। और काम नाम मात्र का था। या फिर हम करना भी नहीं चाहते थे। इन बचे लोगों मेंं हर दिन किसी न किसी बात पर एक दूसरे से बहस हो जाती थी। कभी काम लेकर तो कभी समय पर आने को लेकर।

जब अब समय पर आने का जिक्र आ ही गया है, तो एक बाद हम कैसे भूल सकते हैं। जो कि अधिकारियों तक मशहूर थी। बात ही अधिकारी वर्ग की थी। हमारे कम्पनी की देख-रेख के लिए बचे आरिफ जी जो कभी-कभी आफिस ने लगे थे। महीने में 5-6 दिन तो बहुत कह रहा हूं। जब कभी अधिकारी वर्ग के लोग पूंछते की आरिफ जी आए हैं। तो पता चलता नही तो सवाल होता कितने दिनों से नही आए होगें। सब लोग हंस देते और चुप हो जाते थे। फिर आफिस से जब उनके पास फोन जाता तो उस दिन घर से चल देते थे। चलो आज आफिस का हाल देख ले कैसा चल रहा है। कैसा चलेगा ऐसा आफिस न कोई बॉस और न ही मैनेजमेंट ध्यान दे रहा था। आरिफ जी हमेंशा कहते थे कि जैसे चल रहा है चलने दो। ऊपर मैनेजमेंट में कोई बात करने को तैयार नही है।

मै भी सोचता या तो ये डरते हैं बात करने में, या अपनी नौकरी बचा रहे हैं। जो सच था वो अपनी नौकरी बचाने में लगे थे। आफिस बस नाम का बचा था। काम को तो कोई पूंछती नहीं था।

हम लोगों ने प्लान करके एक दिन आरिफ को घेर लिया। अरे भाई घेरा कोई मारने-पीटने को थोड़ी, बात करने को। जो काम हो रहा है अब हम वो भी नहीं करेंगे पहले ऊपर मैनेजमेंट में बात करो कि आफिस को चलाना है तो सैलेरी बढ़ाए।और फिर से लांच कर दे जो कि पिछले दो सालों से सुनाई दे रहा था , कि आफिस रिलांच किया जाएगा। पर अभी तक ये हुआ नही था। आरिफ जी भी काफी चालाक थे, कह दिया अगले महीने के लिए ऊपर से आदेश आया है। शायद हो जाए। आप लोग काम शुरू कर दे नही तो हो सकता है कि पहले जैसी प्रकिया न दोहरा दे मैनेजमेंट। बनी गठित टीम को अपने पांसे से तोड़ दिया और काम शुरू हो गया था।

 

काम ज्यादा न होने से आफिस में नींद भी आने लगती थी। आफिस में चैन से सोने का मज़ा तो हमारे बॉस आरिफ जी ने ही उठाया है।  इक तो कम आते थे। ऊपर से जिस दिन आते सो जरूर जाते थे। उनकी सोने की क्या खूब अदा थी। पैर पर पैर रख कर अपने हाथ से गाल के टेककर  चैन की नींद। ऐसा लगता था जैसे दो-तीन रातों से जगे होंगे। घर की नींद को आफिस में पूरा करना कोई आरिफ जी से सीखता। अगर हम उनकी तरफ नही देख रहे है तो कोई न कोई इशारे से बता देता देखो कैसे आराम फरमा रहे हैं।

और जब जग जाते तो कहते क्या हो रहा है। कुछ नया। हम सब के चेहरे पर मुस्कान आ जाती। जो दीन-दुनिया से दूर था कह रहा है कुछ नया।

आफिस जाने का मन भी कम होता था। मजबूरी थी की रूम पर कोई मनोरंजन सुविधा नही थी। तो मै अपने वीक आफ के दिन भी प्रस्थान कर लेता था। जाकर गेम खेलता और आदत के अनुसार कोई कविता या कहानी लिखता था।

4 बजने के बाद घर कब जाना है सब एक दूसरे से यही पूंछते थे। कोई 5  बजे कहता तो कोई 7 बजे फिर होते करते बीच का रास्ता निकलकर आता था। 6 बजे बंद कर दो कोई कभी भी आया हो इससे कोई मतलब नही। बस निकलने का समय फिक्स था। हमारे फील्ड के कर्मचारी सुभाष का इंतजार हम सबको रहता था। जब तक वो नही आता हम फोन पर और गेम खेलकर टाइम पास करते थे। आफिस पहुंचकर सुभाष भी गेम खेलने में मशहूल हो जाता था।

फिर तीन आवाजें एक साथ लेवल पार किया, लाइफ दो, अरे पगले मछली बन रही थी। मैं तो जब थक जाता तो सुजीत को देता कि मेंरा लेवल पार करो। नही तो मै नही खेलूंगा। सुजीत फिर मेंरा लेवल पार करने में लग जाता था।

अब क्या था एक लाइन मेंं 4 कम्प्यूटर मेंं गेम एक साथ चल रहा होता, और आने जाने वालों की निगाहें हम पर होती। शायद वो हम जैसी किस्मत पाना चाह रहे होगें। पर उन्हें क्या पता कि हम बदनसीब हैं इसलिए हमारे साथ ऐसा हो रहा है।

दादू ओह यानि आरिफ जी के सामने भी अब लाज शर्म खत्म हो चुकी थी। अब हम उनके सामने खेलना शुरू कर दिए थे। वो बैठकर एक अंपायर की तरह देखते थे। लेकिन निर्णय कोई नही देते थे। सिर्फ गेम का आनंद लेते थे।

एक दिन सुभाष से उन्होने पूछा ये क्या चला रहे हो। ऊपर से कुछ मकड़ियां गिर रही है इसमें। ये कैसा गेम है। तो सुभाष ने कहा ये हम मकड़ी पका रहे हैं। चलो ठीक है पकाओ, पकाओ कहते बाहर चले गए।

उम्मीद लगाए बैठे हम लोगों की आस अब थक भी रही थी। हम सबको पता चल रहा था कि अब कुछ नही होने वाला है। होते करते दादू ने दो नई नियुक्ति करा दी। तब थोड़ी हिम्मत जक गई की अब काम फिर से शुरू होगा।

आखिर गेम की एक सीमा होती है। हम हद से ज्यादा आगे निकल गए थे। खेलने का मन भी नहीं होता था। काम न होने की वजह से कैसे भी समय काटना था। दो नियुक्ति में एक तो तुरंत ही हमारे रंग में रंग गया।

गेम खेलना सीख गया। फिल्मों का काफी शौकीन था। गेम बंद तो फिल्में शुरू। फिल्मों  की बात आ गई तो ऐसा कोई फिल्म नही होती थी जो रिलीज होने के बाद हमारे आफिस में न मिले। यू कहे तो हम एक नया विजनेस कर सकते थे।

दूसरी कम्पनी के लोग हमसे फिल्मेंं मांगने आते थे। हर शुक्रवार यही कहते कि आज ये नई फिल्म आ रही है भाई डाउनलोड कर देना। कोई अपनी पुरानी फिल्मों की फरमाइश भी होती थी। हम सब तो माहिर थे इस बात में फिल्म तो सबको बांटना है। आखिर दान का काम जो ठहरा था। दान जितना भी करो कम होता है।

आफिस के अंदर सुबह 10 बजे से चहल-पहल शुरू हो जाती थी और शाम के 6 बजते ही खत्म हो जाती।

दादू भी अजीब थे। अब तो वो और कम आने लगे थे। बस कोई ख़ास बुलावे पर आकर दर्शन देकर चले जाते थे।

उनका आना और जाना कुछ पता नही चलता था। एक बात तो साफ थी उनके आते ही कुछ लोगों से काम की लगन ज्यादा बढ़ जाती थी। सिर्फ दिखाने के लिए की वो कितने कर्मठ हैं। और जाते ही बैग कंधे पर टंग जाता था। सारी कर्मठगीरी फिर धरी रह जाती थी।

हर दिन ऐसे ही कटता गया। एक एक दिन करके सालों बीत गए थे। और हालात ऐसे ही थे। सब हम पर हंसते थे। हम भी कुछ नही थे। अपनी घर की बुराई दूसरों से करने में नही चूकते थे। अरे भाई घर की बुराई से हमारा मतलब आफिस है। अब तो वो हमारे घर जैसा हो गया। कभी भी आओ और जाओ। कुछ भी करो, कितना भी आपस में लड़ो, कुछ देर बाद फिर एक साथ नज़र आते थे।

सुजीत जो बॉस का खास बन गया था। उसे देखकर दिल में गुस्सा आने लगा था। हमें भी आता था कभी-कभी और कुछ लोग तो मुंह मेंं राम बगल मेंं छुरी वाला भी काम करते थे। हमें जो कुछ कहना था फट से उसके सामने कह देते थे। मैने पहले बताया था कि नामकरण का शौक तो पूरे आफिस में सबको था। मै भी पीछे नहीं था इस बात मेंं। सुजीत का नाम मुनीम मैने रखा और वो मार्केट मेंं आग की तरह फैल गया। अब लोग उसे मुनीम कहने लगे थे। जिसे देखो इस नाम से उसे परिभाषित करता था। कुछ लोगों से तो इस बात को लेकर वो लड़ बैठा था। तभी आफिस में इक शहनाई बजने जा रही थी। वो शहनाई तृषणा नाम की लड़की की थी।

आखिर काफी दिनों बाद एक खुशी का मौसम आ रहा था।  सबको एक बार फिर से मिलने का मौका मिल रहा था। तृषणा की शापिंग भी जोरों पर चल रही थी। हर दिन आफिस मेंं आकर सिस्टम पर देखना की क्या खरीददारी करे। सबसे पूंछना की ये साड़ी कैसी लग रही है। हम सब भी काफी उत्साहित थे। शादी में जाना है।

अब तो आफिस में किसी की शादी हो रही थी। और हम फिर जुट गए थे अपने काम पर। वो काम कुछ और नही गिफ्ट के लिए पैसा इकठ्ठा करना था। दादू को बात पता चलते ही कड़ी कड़ी दो नोट 500 रूपए की बाहर आई। आखिर वो दिन आ गया था जिसका हम बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। शादी की दिन । तृषणा करीब 20 दिन की छुट्टियों पर चली गई थी। अब पूरे दफ्तर मेंं हम 6 लोग बच गए थे. दादू को हम गिनते नही थे। आखिकार वो हमारे बॉस थे।

शादी का गिफ्ट लेकर हम गए और खूब मजे किए। चलो अब थोड़ा आराम मिला था भले ही एक ही दिन के लिए था। दिमाग में चल रही हलचल से सुकून नाम का एक शब्द आ गया था। फिर से दूसरे दिन से वही पुराना काम चालू हो गया।

आफिस जाना बहसबाजी करना और गेम खेलना, फोन को पीसीओ बना देना। दो –तीन महीनों की छुट्टियों के बाद तृषणा  का आगमन आफिस में होता है। वह अपने साथ मिठाइयां लाती है। शादी की खुशी में पूरे आफिस के साथ दूसरे आफिस के लोगों में बांटती है। खुशियों की मिठाइयां खाकर अभी जुबान का ठीक से स्वाद नही बदला था। हम बचे 6 लोगों में फिर से दो छुट्टियों पर चले गए। ऐसा लगता था कि एक आए और दूसरा जाए की प्रक्रिया चल रही हो।

आफिस के इस सूखे में जो हम सब बारिश की आस लगाए बैठे थे। कि कब मालिक का रहम करम हमारे ऊपर आएगा। इसे दोबारा से पहले जैसा बना कर नई शुरूआत कब होगी। ये सोंच रहे थे।

एक दिन हम सब आफिस में बैठकर जो काम था कर रहे थे। दोपहर के बाद खाना खाकर दोबारा से काम चालू किया गया था कि तभी दादू आए। और क्या चल रहा है कहकर बैठ गए। थोड़ी देर के बाद वहां से चलते बने। हमें तो कुछ पता भी नहीं चला। हम तो सूखे मेंं बारिश की आस लगाए बैठे थे। पर उस दिन तो तूफान आ गया था। शाम को कुछ लोगों की शिफ्ट खत्म हो गई थी वो चले गए थे। हम 4 लोग बचें हुए थे। तभी एचआर का फोन आता है।

ऊपर आकर मिलो कुछ बात करनी है। मीटिंग है। हमें तो अंदेशा पहले से हो गया था। कुछ तो गड़बड़ है। यही बात मै अपने साथी कर्मचारियों से कह रहा था। ऊपर जैसे ही पहुंचा तो बस एक ही बात की रट लगाई जा रही थी। सभी लोग अब इस्तीफा दे दो। अगर अपनी सैलेरी चाहते हो तो। ये आप का चेक बन कर रखा है। इसके साथ एक महीने का वेतन और मिलेगा आप लोगों को जो कि अगले महीने दिया जाएगा। हम सब के आंख में आंसू थे। आखिर हम दोबारा से रिलांच का ख्वाब देख रहे थे। और हम सब को बाहर कर दिया गया। कसूर उनका भी नही कह सकते हमने ही इतनी सारी गलती की थी। जो कि एक आफिस की मर्यादा से कही आगे थी।

बस हमारे लिए सबसे दुख की बात थी कि दो-तीन साल से वेतन नही बढ़ा था। इसलिए हम लोग भी काम करने मेंं ज्यादा मन नही लगा रहे थे।

इस्तीफे से पहले दादू से बात की। उन्होंने कहा कि उनसे कहा गया था कि सबकों बोल दे उन्होने मना कर दिया। अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा कि तुम लोग बात कर लो।

फील्ड़ के कर्मचारी सुभाष का छुट्टियां पर जाना हमारे लिए हमेंशा वहां से हमेंशा की छुट्टी का रास्ता खोल दिया।

सुभाष के छुट्टी पर जाने के बाद दादू ने जो मेंल किया था सुभाष की जगह कुछ दिनों के लिए किसी और को फील्ड पर भेज दो। लेकिन क्या पता था कि दादू के इस मेंल का गलत परिणाम होगा और हम सबको वहां से घर भेज दिया जाएगा। अब क्या था हम बेरोजगार हो चुके थे। हमारे पास अब न आफिस बचा था न ही वो दोस्त जो नए आफिस में बने थे। जो हंसते थे कि क्या काम होता है तुम्हारे आफिस में।

हम सब एक दूसरे से बिछड़ गए थे। अब सिर्फ यादें रह गई थी। वो चाय की दुकान पर बैठकर चाय पीना वो सिगरेट के छल्ले बनाना। वो आफिस में आपस में झगड़ा करना। समय न पास हो तो गेम खेलना। गेम तो जैसे अब रह ही न गया हो। अब कोई जोश नही था लेवल पार करने का। हम अपने जिंदगी के लेवल मेंं फिर से उलझ गए थे। दूसरी जगह जॉब की तलाश में दर-बदर भटकने लगे थे। रूम पर बैठे-बैठे खाली समय में बस यही सोचते कुछ भी था पर एक आफिस ऐसा भी था जिसमें हम मनचाहा काम करते थे।

प्रयुक्त कार्टूनः साभार

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