श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र

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Rajendra_Yadavआदरणीय श्री राजेंद्र यादव जी,

परनाम

साहित्य के इस तथाकथित असार संसार में ‘हंस’ को पढ़ने/देखने के, ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के अंदाज में अनेक अंदाज हैं। कोई साहित्यिक संत इसकी कहानियों के प्रति आकार्षित हो संत भाव से भर जाता है, कोई ‘हमारा छपयो है का’ के अंदाज में इसका अवलोकन करता है, कोई ‘डॉक्टर’ चीर-फाड़ के इरादे से अपने हथियार भांजता हुआ संलग्न होता है, कोई नवयोद्धा,रंगरूट शब्द साहित्यिक नहीं है, सेना में भरती होने के लिए इस धर्मग्रंथ का वाचन करता है , कोई पहलवान इसे अखाड़ा मान डब्ल्यू डब्ल्यू एफ मार्का कुश्तियों का हिस्सा बनने को लालायित दंड-बैठक लगाता है और कोई विवाद-शिशु के जन्म की जानकारी के लिए तालियां बाजाता हुआ बधाईयां गाता है, आदि आदि अनादि। मैं आदि आदि अनादि कारणों से ‘हंस’ को पढ़ता हूं। ‘हंस’ एक ऐसी पत्रिका बन गई है जिसका एडिक्शन आपको चैन नहीं लेने देता है। इसके पाठकों/ अवलोकनकर्ताओं में भांति-भांति के जीव हैं जैसे हमारे देश की संसद में होते हैं। इसमें लिखने वालों की तो एक कैटेगरी हो सकती है पर पढ़ने/देखने / सूंघने वालों की कोई कैटेगरी नहीं है। इस दृष्टि से ‘हंस’ आज के समय का ‘धर्मयुग’ है।

वैसे तो आपकी, ‘मेरी-तेरी उसकी बात’ अधिकांशतः तेरी तो… करने वाली होती है और इस अर्थ में ‘प्रेरणादायक’ भी होती है कि बालक मैदाने जंग में कूद ही जाए पर सिंतंबर का आपका संपादकीय कुछ अत्यधिक ही ‘प्रेरणादायक’ है। बहुत दिनों से मैं इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश में हूं जो मुझे बता सके कि साहित्य का हाई-कमांड कौन है और साहित्य-सेवा को ‘धर्म’ मानकर चलने वालों के ‘खलीफा’ कौन हैं जो साहित्यिक फतवे जारी करने का एकमात्र अधिकार रखते है। साहित्य की उस अदालत के न्यायमूर्ति को मैं जानना चाहता हूं जो यह तय करने की ताकत रखता है कि गुनहगार बेकसूर है और बेकसूर गुनहगार है। साहित्य की मुख्यधारा में ले जाने और इस गंगा में पवित्र-स्नान करने का ठेका किस पंडे के पास है। मुझे आपकी बात पढ़कर लगा कि आप इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर सकते हैं। आपने अशोक-चक्रधर प्रसंग में लिखा है- निश्चय ही अशोक के पक्ष में उन साहित्यकारों के बयान आए हैं जो या तो दक्षिणपंथी हैं या ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधाजनक हैं।’ अशोक के पक्ष में मैंनें भी समर्थन दिया था और मेरे लिए अपने खिलाफ जारी किया गया यह फतवा कोई मायने नहीं रखता क्योंकि मैं आपसे अपने को बेहतर जानता हूं एवं मुझे खलीफाओं के प्रमाणपत्र प्राप्त कर उन्हें फे्रम में मंडवाकर दीवारों पर टांगने का शौक नहीं। पर हुजूर आपने क्या यह बयान अपने पूरे होशो हवास में दिया है? अशोक चक्रध्र का समर्थन करने वालों में नामवर सिंह और निर्मला जैन भी थें। इन्हें आप दक्षिणपंथी मानते हैं या फिर ‘ऐसे ढुलमुल कि हर सरकार के लिए सुविधजनक हैं।’ कृपया मुझ अबोध की एक और शंका का समाधन करें- ये जो ‘हंस’ के सितंबर अंक के अंतिम कवर पर मध्य प्रदेश जनसंपर्क द्वारा जारी विज्ञापन प्रकाशित हुआ है, वो किसी पंथ की सरकार का है ? प्रभु आपके इस अतिरिक्त स्नेह के कारण भक्तजन कहीं फुसफसा कर ये न फुसफसाएं कि राजेंद्र जी पर उम्र अपना असर दिखाने लगी है। आप तो चिर युवा हैं और आपकी जिंदादिली के मेरे समेत अनेक प्रशंसक हैं।आपको तो अनन्य ‘नारी विमर्शो’ की चर्चा करनी है। नागार्जुन कहा करते थे कि उम्र के इस दौर में अक्सर उनकी ‘ठेपी’ खुल जाती है, कहीं आपकी भी… हे गुरुवर, इस एकलव्य को ये ज्ञान भी दें कि नामवर लोगों को आप अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अपनी किस सदाशयता का परिचय देते हैं। कार्यक्रम में यदि नामवर जी मीठा मीठा बोल गए तो वाह! वाह! अन्यथा ‘कौन है ये नामवर के भेस में’। मुझे लगता है इस ‘दुर्घटना’ के बाद ‘शुक्रवार’ में प्रकाशित डॉ. कैलाश नारद के ‘असली नामवर’ को पढ़कर आपकी बांछे खिल गई होंगी जो बकौल श्रीलाल शुक्ल चाहे वे शरीर के किस हिस्से में हैं, मालूम न हों। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि नामवर जी ने जिस तरह से लौंडे शब्द का प्रयोग किया वो उनकी अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं है। अजय नावरिया ने जिस मेहनत और लगन से ‘हंस’ के दोनों अंकों का संपादन किया है और एक मील के पत्थर को स्थापित करने का श्रम किया है वो उसकी विलक्षण प्रतिभा को प्रमाणित करता है। अजय नावरिया की इस मेहनत के सामने नामवर सिंह के शब्द झूठे हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर नामवर सिंह को आरंभ से खारिज करने जैसा आक्रोश पैदा किए जाने की आवश्यकता थी। कैलाश नारद या आपकी ‘मेरी बात’ जैसी सोच का ही परिणाम है कि हिंदी के साहित्य में रचना की अपेक्षा व्यक्ति अधिक केंद्र में रहा है। इसी का परिणाम है कि एक समय हरिशंकर परसाई को और बाद में श्रीलाल शुक्ल को नाली में गिरे-पड़े किसी शराबी के रूप में चित्रित कर, सशक्त रचनाएं न लिख पाने की अपनी कुंठा का विरेचन किया जाता रहा है।

आपका विरोध जायज है, जायज ही नहीं स्वाभाविक है। ये मानवीय प्रकृति है- जहां किसी अपने को बैठना चाहिए वहां कोई दूसरा बैठा हो तो विरोध जागता ही है। आप तो जानते ही हैं कि ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं। ये तो सत्ता के गलियारों की गलियां हैं जिन्हें आप भलि-भांति जानते हैं। ये वो गलियां हैं जिनमें अपनी पहियां घिस जाने की चिंता में कुंभनदास ने जाने से मना कर दिया था। विरोध-प्रदर्शन या दबाव-प्रदर्शन के लिए इस्तीफे दिए जाते हैं और इस्तीफों के चक्कर में सौदे भी तय होते हैं। पर इस घसीटमघसीटी में फतवे जारी करना किस जायज-नाजायज संतान का पालन-पोषण है? अजय नावरिया ने अशोक-चक्रधर प्रसंग को बहुत समझदारी से देखा -परखा है। उन्होंने इस नियुक्ति में न तो व्यक्तिगत आक्षेप लगाए हैं और न ही व्यक्तिगत कारण संूघने का प्रयत्न किया है। मुझे लगता है हमारी युवा पीढ़ी बेबाक होते हुए अधिक संतुलित और ईमानदार है।

सादर

आपका

प्रेम जनमेजय

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प्रेम जनमेजय
प्रेम जनमेजय व्यंग्य-लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में विश्वास नहीं करते हैं। व्यंग्य को एक गंभीर कर्म तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विध मानने वाले प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं । जन्म 18 मार्च, 1949 , इलाहाबाद, उ.प्र., भारत। प्रकाशित कृतियां: व्यंग्य संकलन- राजधानी में गंवार, बेर्शममेव जयते, पुलिस! पुलिस!, मैं नहीं माखन खायो, आत्मा महाठगिनी, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं, शर्म मुझको मगर क्‍यों आती! डूबते सूरज का इश्क, कौन कुटिल खल कामी । संपादन: प्रसिद्ध व्यंग्यपत्रिका 'व्यंग्य यात्रा' के संपादक बींसवीं शताब्दी उत्कृष्ट साहित्य: व्यंग्य रचनाएं। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन ' श्रीलाल शुक्ल के साथ सहयोगी संपादक। बाल साहित्य -शहद की चोरी , अगर ऐसा होता, नल्लुराम। नव-साक्षरों के लिए खुदा का घडा, हुड़क, मोबाईल देवता। पुरस्कारः 'व्यंग्यश्री सम्मान' -2009 कमला गोइनका व्यंग्यभूषण सम्मान2009 संपादक रत्न सम्मान- 2006 ;हिंदी हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान -1997 अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर 'इंडो रशियन लिट्रेरी क्लब 'सम्मान -1998

38 COMMENTS

  1. काया बात हे, मुjheनहीं पता था की हमारे यहाँ एक aisa वर्ग भी हे जिसने कभी हंस न देखा हे न पढ़ा हे.बिना देखे पढ़े गाली गलोज की भाषा में अपनी बात कह सकते हे.देश में आज हिंदी में हंस से जयादा सार्थक कहानी की पत्रिका नहीं हे.जो लोग हंस के खिलाफ अभियान चला रहे हे उन्हें पांचजन्य ही समझ में आता हे.राजेंद्र yadau जैसे लोग तो देश धरोहर हे ,उनपर ऐसे बकवास अभियान का कोई न असर पड़ता हे और न उनके पढने वाले पर.शुक्र हे की हंस के लाखो पाठक ये सब नहीं पढ़ते.शीबा जी इसे पढ़ती हे तो ये बहस बहार आएगी ही. लाखन जे सिंह ambikapur

  2. आज न प्रेम जनमेजय को डर है और न ही, मनोज कुमार को.. कि इनकी रचनाएं नहीं चिरकुटानंद के अश्लीलापुराण में नहीं छपेगी. गूगलबाबा ने हमलोगों के लिए दिव्यदृष्टि दे दिया है. चिरकुटानंद खुश रहें अपनी दुनिया में.

  3. rajendraji ko istarah badnam karana janmejaiji ko shobha nahi deta.mai to sirf pathak ke nate unhe janta hu,lekin kripaya yah batane ka kasht karege ki aur kuon si sahityic patrka hai jo hans ke kareeb bhi pahuchati ho. rajendraji jaisa likhte hai unake prashnshko ki jamat hai jo bahat badi tadat me hai aur unke meri teri uski bat ke liye hafto pratikcha karati hai.jo hindi ke liye kuch nahi kar sakate wahi is tarah ki chandukhane ki gapp likh sakate hai.rajendraji ke virodhio ki puri jamat hai jo unhe neecha dikhana chahti hai.lekin hathi chala jata hai aur kutte bhukte rahte hai.janmejaiji ka nam janta hu to inhe pathabhi hoga,lekin ye itane hi prabhawshali hote to dimag par jor dalne par rachana bhi yad ati,mere khyal se unhone suraj par thukane ki kosis ki hai.

  4. काला चश्मा, काले काम,
    हिन्दी हुई इससे बदनाम.
    फिर भी कहलाए ‘हंस’
    खुद को समझे महान!!

  5. प्रेम जी आपने बहुत सटीक लिखा है. लेकिन शक है की आँख के अंधे ‘कौवे’ इसे पढ़ पाएं या नहीं!! भारतीय और हिन्दी साहित्य का कबाड़ा करने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है. इसके बाद नंबर आता है नामवर सिंह का. इन लोगों ने हिन्दी साहित्य की जो दुर्दशा की है और गुटबाजी की नेतागिरी की है वह किसी से छिपा नहीं है.

  6. ajeeb bhale lage magar….Aaj yah tay karnaa hoga ki hmaari shikaayat shree rajendr yadav ji se hai ya phir unki lekhni se……kiuki ye do alag alag baate hai……ise behas ka mudda banana to uchit hai magr bhadaas ka nahi……anoop aakash verma……

  7. राजेन्द्र यादव आत्म मुग्ध धूर्त का नाम है ,जिसकी बस ठेपी ही खुली है . दिमाग स्वार्थ दंभ और असंस्कार से भरा . सठियाया हुआ खुद ही नहीं जानता क्या बोलता लिखता है .अक्सर स्वयं में अंतर्विरोधी . प्रेम जन्मेजय जी आपने इस चिरकुट को अनावश्यक महत्त्व दिया . इसको जानना कूड़ेदान खंगालना है .कौवा की औकात नहीं की ‘ हंस ‘ बन सके . हंसी का पात्र भर है यह .

  8. अफ़सोस की राजेंद्र यादव साहिब इन्टरनेट और हिंदी ब्लॉग जगत से अनभिज्ञ रहते हैं, ऐसे में उन तक यह बात कैसे पहुंचे?

  9. बहुत सही लिखा है आपने.. राजेंद्र यादव ने हंस को कौवा बना दिया है. वे अपने आपको “फरिश्तों से भी आगे समझने लगे हैं. आपने अच्छा लिखा है पर इसका उन पर कोई असर होगा; ऐसा लगता नहीं है…..
    आनंदकृष्ण, जबलपुर

  10. कॊई तॊ है जॊ हवाऒ कॆ पर कतरता है.बढिया खबर ली है आपने. बधाई.

  11. हे प्रेम, नाहक राजेंद्र यादव पर लिखकर अपनी हिट्स मत बढ़ाएँ…

  12. बहस के आधार ही अर्थ हीन हो गए हों तो फिर बहस पर बहस खास मायने नहीं रखती है.विराम अच्छा है धन्यवाद.

  13. रजॆन्द्र यदव् कॊ सहि और् सतेक् सब्दॊ मॆ आप्नॆ सछॆत् कर्नॆ कि कॊशिश् कि है. आप् कि बॆबकि और् सपात् बयनि लॆख् मॆ और् भि अकर्शन् पैद कर्तॆ हैऩ्

  14. यादव जी के बारे में वैसे तो मुझे ज्यादा कुछ मालुम हीं नही था मगर हंस का वेव संस्करण जरुर पढता था।
    प्रकाशित रचनाओं पर मैने कुछ प्रतिक्रियायें लिखी थी और कुछ व्यक्तिगत मेल भी लिखा था जिसका कोई प्रति उत्तर नही मिलने पर मैने उनमें अहम् का अनुमान लगाया था और हंस के वेव संस्करण से मेरा मोह भंग हो गया था। आज“श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र”पढ कर मुझे लगता है कि संभवतः मेरा अनुमान सही हीं था।

  15. राजेन्द्र यादव अपनी लेखनी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेकर जिस प्रकार से सम्पूर्ण भारतवर्ष मेँ अपना वैचारिक आतंक जमाना चाहते हैँ,उससे लगभग प्रत्येक सुधी पाठक परिचित है।चिट्‌ठी के माध्यम से तथाकथित सम्पादक महोदय की साहित्यिक धुलाई करने के लिए कोटिशः धन्यवाद

  16. प्रसंग ज्ञात नहीं सो एक आलेख सा ही पढ़ा इस पत्र को….बिना कुछ जाने सुने कुछ कहना उपयुक्त नहीं लग रहा…

    हाँ , पर बड़ा ही रोचक लगा….

  17. रोचक है आलेख्। पर प्रसंग का लिन्क दिया होता तो हमारॆ साथ भी न्याय हॊता और् राजॆन्द्र यादव जी कॆ साथ भी.

  18. Bandhuvar,

    Pehli baar aap ke liye kutch likh raha hun, Aap ki tippani satik hai, sunder hai, shudh saatvik hai aur meethi hai lekin nashtar kaa kaam karti hai. Rajendra Yadave to neerih prani hain, bechare sab ko jhel rahe hain, aap ko bi jhel gaye lekin daad dijiye ke aap ko ek manch, ek swar, ek avsar yaani ek patrika, de rahe hain. Lekin aapne dekha ki Ashok Chakardhar bhi to aakhir is umar mein kya kar baithe, lagtaa yehi hai ki unhe bhi sarkari kurshi kaa aakrashan maar gayaa varna bhari sabhaa mein Mahatma Gandhi ke Hind Swaraj par apne naam manvaa liya aur voh bhi ek mukhya mantri ke mukharvind se, aur jahan ek varishtha, bebaak, bekhauf aur teekhe tevar vala Prabhash Joshi jaisa Patrakaar ki upasthiti mein.

    Bahut bahut badhaye e

  19. mr satish ji, vaise aapk sawal me hi aapka apekshit jawab hai. fir bhi jaroori ho to shri namwar ji se hi poochh len. kyoki aapk sawal ka behatar jawab to shri namwar ji hi de sakte hain jaisa ki unhone may 2006 me mujhe diya tha aur poora sahity samaj use padha bhi tha hindustan me. sawal kuchh yu tha ‘namwar ji aapne bees sall me kuchh nahi likha. lagata hai kalam aap se chhoot gai h. sirf bolkar aap hindi sahity ko kitana samriddh kar rahe hain?’ unka jawab tha-‘vachik parampara hi bharat ki asal parampar h…………………. (kareeb 1000 shad ).

  20. Prem ji aapne rajendra Yadav jaise Sahitya ke dalaalon ki achchhi sudh lee hai, jo apne sivay kisi ko sahitya mein jagah dena hi nahin chaahte.

  21. Mr. Rohit Pandey,
    Kya aap jaantein hain ki Aaj ka sabse bada sthapit sahityakaar kaun hai. Kyon nahin, Aap Naamwar singh ko kaise bhool saktein hain. Kripya batayein ki Naamwar Singh Ne Pichhle pandrah bees saalon se kitna rachnatmak sahitya likha hai siwa taang khinchai ke.
    Satish Mudgal

  22. आपके पक्ष से पूरा इत्तफ़ाक़ रखता हूँ प्रेम जी..दुःखद यह तथ्य है कि हिंदी साहित्य का तेजी से बॉल्कनाइजेशन हो रहा है..और हर कोई अपने कबीले का अकेला सरदार बन बैठा है जहाँ अपने अपने विपक्ष मे बोलने वाले को सजा सुनाता बैठा है..कुछ दशक पहले क्या हाल था यह तो नही पता..मगर आज निश्चय यह साहित्य का भला तो नही करने वाला है.

  23. प्रेम भाई, यादव जी ने स्वयं नहीं सोचा होगा कि उनकी चन्द लाइनें आप जैसे किसी व्यंग्यकार को इतना तिलमिला देंगी। वो दरअसल उस मुकाम पर हैं जहां बदनामी भी नाम ही देती है। आपके इस खुले पत्र को भी वे मंड़वाकर न रख लें। तब आप क्या करेंगे।

  24. ashok chakradhar kay naam par itna hungama kyuon hai?kya unkay
    samarthan may utha har haath dakhinpanthi hi ho sakta hai?tathakathit
    pragatisheelon ka yah fatva yahi ahsas karata hai kihindi sahtiya may bhi talibaniuon ka bolbala ho gaya hai.
    ashok chakradhar aik samarth rachnakar hain aur manana hoga ki vah
    vyagya vidha kay sikhar purush honay kay prabal davaidar yaa huqdaar
    bhi hain.ashok chakradhar nay janpaksh kay huq may chalay gaye anaik
    abhiyano mai poster chipkanay jaisay karya karkay sakriya bhagidaari
    bhi samay par durz karai hai.unki janpkshadharita unki rahnaon may spasht ankit hai.
    ashok janmajay nay khari-khari kahi hai.unki saphgoi ko hindi kay aik adna pathak ka salaam.

    निर्मल गुप्त्,208 छिपि तालाब ,meerut-250001 mob 09818891718

  25. बहुतॆ अछा लिखॆ है. राजॆन्द्र् जि कॊ शाब्दिक लतियान चाहिऐ. सॊ पुरा हॊ गया.

  26. हंस को लेकर ..बस इतना ही की हमे तो रचनाओं से मतलब होता है ….पूर्वाग्रह तो नहीं होना चाहिए ….ज्यादा जानकारी भी नहीं ..लेकिन समय-समय पर विवादों में घिरे रहने वाले श्री यादव जी को पढ़ती रहती हूँ ….आपके लेख में रोचकता है

  27. prem ji,aap ne yadav ji k bare me apna mat dekar pusht karna chahte h ki vah khalnayak hain. aap jis vidha k mahir hain usme auro ki tang khichai kark hi apane panv jamaye ja sakte hain.lage raho bhaiya, hans wale rajendra kabhi to meri-teri…me kabhi aapki..? bhi kar de.

  28. Badhai sanjeev, achha lekh hai, Kuch bhi ho ap Dono Hindi ko Samridh karne ke achhe prayas kar rahe hain.
    Keep it UP,
    VIPUL, Lagos, West Central Africa.

  29. पूरे प्रसंग की जानकारी नहीं है मगर आपकी बातें सही लगी साहित्यकारों को हर तरह के भेद भाव से तट्सथ भाव से साहित्य रचना चाहिये एक दूसरे का विरोध और वैम्नस्य सब के लिये विनाशकारी है । आपका आलेख एक सच्चाई लिये हुये है आभार्

  30. हिंदी के यशस्‍वी उपन्‍यासकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा पल्‍लवित ‘हंस’ पत्रिका का श्री राजेंद्र यादव ने दुरूपयोग किया है। ‘दलित विमर्श’ के आधार पर साहित्‍य को बांटने वाले श्री राजेंद्र यादव अब जाति संस्‍था की महिमा गा रहे हैं। ऐसे दोहरे आचरण वाले साहित्‍यकार से सावधान रहना होगा। सत्ता प्रतिष्‍ठानों से विज्ञापन लेकर पत्रिका चलाने वाले श्री यादव किस तरह के समाज का निर्माण चा‍हते हैं।

  31. सही खुलासा किया है आपने, यूँ ही कुछ बी लिख डालने का आपका यह विरोध प्रशंसनीय है

  32. चूँकि प्रसंग ज्ञात नहीं सो एक आलेख सा ही पढ़ा इस पत्र को….बिना कुछ जाने सुने कुछ कहना उपयुक्त नहीं लग रहा…

    हाँ , पर बड़ा ही रोचक लगा….

  33. अच्‍छा लिखा, खत का जवाब तो वही देगा जिसको लिखा गया है, आपकी इस बात पर मेरा भी एतबार है कि ”ये सरकारें, ये राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं। अपने शासन के एक काल में यदि एक को लाभान्वित करते हैं तो दूसरे काल में किसी अन्य को कर देते हैं”

  34. श्री राजेंद्र यादव जी को इससे अच्छा जवाब क्या लिखा जा सकता है. बढिया खबर ली है आपने. बधाई.

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