आनंद मंत्रालय बांटेगा उल्लास !

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संदर्भः- मध्य-प्रदेश सरकार ने लिया आनंद मंत्रालय खोलने का फैसला –
आनंद मंत्रालय बांटेगा उल्लास !
प्रमोद भार्गव
आज पूरे देश में आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। हर वर्ग, जाति, उम्र और धर्म का व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है। इसके कारणों में पढ़ाई, होड़, भविष्य निर्माण, एकाकीपन, ईश्र्या व विद्वेश माने जा रहे हैं। व्यक्ति स्वयं आत्महंता न बने,इस दृष्टि से मध्य-प्रदेश सरकार ने एक अनूठा फैसला लेते हुए ‘आनंद मंत्रालय‘ खोलने की पहल की है। मुखमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि ‘वे व्यक्ति का जीवन उल्लास व आनंदमयी हो, इस हेतु यह मंत्रालय खोल रहे हैं।‘ जीवन-यापन की कठिन होती जा रही आपाधापी में बड़ी संख्या में लोग अवसाद और मनोरोगों की गिरफ्त में आ रहे हैं। नतीजतन व्यक्ति में विकार मुखर हो रहे हैं। इन पर नियंत्रण के लिए यदि कोई संस्थागत ढांचा अस्तित्व में आता है तो निश्चय ही यह स्वागत योग्य पहल है। लेकिन लोक कल्याण से जुड़ी संस्थाएं जिस तरह से नौकरशाही द्वारा बरते जा रहे निरकुंश भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं,उसी तर्ज पर यदि मंत्रालय चल पड़ा तो इसके ख़ुशी बांटने का पुनीत कार्य दुख का सबब भी बन सकते हैं ? इसलिए ख़ुशी मंत्रालय की कार्य-संस्कृति को नौकरशाही की जकड़बंदी से मुक्त रखते हुए इसमें व्यापक तरलता की जरूरत सुनिश्चित करनी होगी।
आनंद मंत्रालय या हैप्पीनेस मिनिस्ट्री अब वैश्विक-पटल पर अनूठी चीज नहीं है। दुनिया के पांच देश यूएई, बेनेजुएला, इक्वाडोर, स्काॅटलैंड और भूटान में पहले से ही ख़ुशी मंत्रालय हैं। यूएई में इसके जिम्मेदारी महिलाओं के पास हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2012 से विष्व ख़ुशी रिपोर्ट जारी करने की परंपरा भी डाल दी है। इसमें प्रति व्यक्ति की सकल घरेलू आय, सामाजिक समर्थन, स्वस्थ जीवन, स्वतंत्रता, उदारता और शासन-प्रशासन पर व्यक्ति का भरोसा जैसे छह बिंदुओं पर 156 देशों में सर्वेक्षण कराया जाता है। बाद में इस सर्वे के अध्ययन के बाद रिपोर्ट जारी की जाती है। ख़ुशी का स्तर मापने के इस सर्वे में भारत का स्थान 118 वें क्रमांक पर है। पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत से कहीं ज्यादा खुशहाल देश हैं। डेनमार्क और भूटान में ख़ुशी मंत्रालय नहीं है,बावजूद वह खुशहाल देशों के पहले व दूसरे पायदानों पर हैं। इसलिए यह कोई गारंटी नहीं है कि मध्यप्रदेश में आनंद मंत्रालय खुल जाएगा तो वह उल्लास से सरोबार हो ही जाएगा ? हालांकि दुनिया में बढ़ते तनाव और अवसाद के चलते ही संयुक्त राष्ट्र ने 20 मार्च को ‘ख़ुशी-दिवस‘ घोषित किया हुआ है।
हमारे पड़ोसी देश भूटान वैश्विक प्रसन्नता के मामले में विलक्षण देश है। आकार और भौतिक संसाधनों के रूप में सीमित होने के बावजूद सकल राष्ट्रिय आनंद के पैमाने पर खरा देश है। यहां आनंद की पहल 1972 में भूटान के चौथे राजा जेष्मे सिंग्ये वांगचुक ने की थी। इस आवधारणा के चलते भूटान की संस्कृति में शताब्दियों से सकल घरेलू उत्पाद वाले भौतिक विकास की बजाय जीवन की गहरी समझ पर आधारित संतोष को अहमियत दी गई। संतोष की इस सांस्कृति अर्थव्यवस्था को वर्तमान में भी सरंक्षित रखा गया है। भविष्य की इसी दूरदृष्टि का परिणाम है कि आज हिमालय की गोद में बैठा यह राष्ट्र मानसिक रूप से खुशहाल देशों के शिखर पर हैं।
आज गरीब हो या अमीर कोई भी खुश नहीं है। कोई बेहिसाब धन-दौलत व भौतिक सुख-सुविधाएं होने के बावजूद दुखी है, तो कोई ऊंचा पद व प्रतिश्ठा हासिल करने के बाद भी दुखी है। कोई छात्र पीएमटी या पीईटी में चयन न होने की वजह से दुखी है तो कोई क्रिकेट में भारत की पराजय देखने से दुखी है। बहरहाल दुख के कारणों का कोई अंत नहीं है। कैरियर बनाने की होड़ और वैभव बटोरने की जिद् ने इसे सघन व जटिल बना दिया है। अपेक्षाकृत कम ज्ञानी व उत्साही व्यक्ति में भी विज्ञापनों के जरिए ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाई जा रही हैं,जिन्हें पाना उसके वश की बात नहीं है ? फिर सरकारी नौकरी हो या निजी कंपनियों की नौकरी, उनमें रिक्त पदों की एक सीमा सुनिश्चित होती है,उससे ज्यादा भर्ती संभव नहीं होती। ऐसे में एक-दो नबंर से चयन प्रक्रिया बाहर हुआ अभ्यर्थी भी अपने को अयोग्य व हतभागी समझने की भूल कर बैठता है और कुंठा व अवसाद की गिरफ्त में आकर मौत को गले लगाने के उपाय ढूंढने लग जाता है। ऐसे में परिवार से दूरी और एकाकीपन व्यक्ति को मौत के मुंह में धकेलने का काम आसानी से कर डालते हैं। यानी बेहतर जिंदगी मसलन रोटी,कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में फंसे हर षख्स को प्रसन्नचित्त बनाए रखने की जरूरत है। क्योंकि इस दौर में वह यदि हताशा और अवसाद के मनोविकार की गिरफ्त में आ गया तो फिर उसकी खंडित हो रही चेतना का उबार पाना कठिन है ? इस लिहाज से ख़ुशी मंत्रालय की प्रासंगिता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस मंत्रालय के गठन की प्रक्रिया को अमल में लाते हुए कहा कि, ध्यान,योग,प्राणायम और चिंतन से निराश जीवन को खुशहाली में ढालने के प्रयास होंगे ? भारतीय सनातन सांस्कृतिक चेतना में अध्यात्म और चिंतन सनातन मूल्य व भाव रहे हैं। इसलिए प्राचीन भारतीय साहित्य में उम्रदराज होने पर मोक्ष के लिए समाधि के उपाय तो हैं,लेकिन किसी व्यक्ति ने निराश होकर आत्महत्या की हो,यह पढ़ने में नहीं आता है। विखंडित हो रहे चित्त को शांत और एकाग्र करने के इन उपायों से ही ‘मन चंगा,तो कठौती में गंगा‘ जैसी मन में उल्लास भर देने वाली लोकोक्तियां उपजी हैं।
दरअसल हमारे ऋषि-मुनियों ने अपनी ज्ञान-परंपरा के अनुभव से हजारों साल पहले ही जान लिया था कि आवश्यकताएं सीमित हैं,जबकि इच्छाएं अनंत हैं। लोग तृश्णाओं की डोर पकड़कर अनंत में छलांग मारते रहते हैं,किंतु हसरत है कि तृप्त नहीं होती। इसीलिए हमारे ऋषियों ने ‘संतोष‘ को व्यक्ति का सबसे बड़ा ‘धन‘ माना है। यही संतोष अचेतन में घुमड़ रहे असंतोष का परिष्कार व शमन करने का प्रमुख माध्यम है। दरअसल विश्व ग्राम के इस भयावह दौर में बहुराष्ट्रिय कंपनियों ने अपने उत्पादों को खपाने के लिए उपभोक्तावाद को जिस तरह से बढ़ावा दिया है,उसमें धर्म,दर्शन और विज्ञान के अर्थ संकीर्ण बना दिए गए हैं। दर्शन पर बौद्विक विमर्श तो होते हैं,किंतु इनकी व्यावहारिक उपयोगिता के उपाय सामने नहीं आ पा रहे हैं। धर्म में रूढ़ि और आडंबर को प्रचारित किया जा रहा है। जबकि खासतौर से सनातन धर्म आध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत समन्वय है,जिसे आधुनिक वैज्ञानिक संदर्भों में कम ही परिभाषित किया जा रहा है। मानव-शरीर सरंचना के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान की पहुंच केवल अस्थि-मज्जा के जोड़ और जैविक रसायनों के घोल तक सीमित है। जबकि मानव शरीर महज जैविक रसायनों का संगठन भर नहीं है,बल्कि उसकी अपनी मनोवैज्ञानिक एवं उससे भी इतर आध्यात्मिक सत्ता भी है,जो मानसिक स्तर पर मानवीय चेतना एवं व्यक्तित्व विकास का प्रमुख आधार तत्व है। सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बनने की प्रक्रिया के गुण व अवसर इसी अंतर्चेतना में निहित हैं। जो सिद्धार्थ मृत्यु के शोक,बुढ़ापे के दंश और रोग की पीड़ा को देखकर गहन दुख को प्राप्त हो गए थे,वही सिद्धार्थ त्याग और आत्म-चिंतन से ऐसे बुद्ध में परिवर्तित हो गए,जिनका बाद में पूरा जीवन दुखियों के कश्टहरण में बीता। दूखियों के अंतर्मन में ऊर्जा का नव-संचार भरने में बीता।
हमारे मनीषियों ने जीवन को आनंदमयी बनाए रखने के लिए उत्सवधर्मिता से जोड़ा था। इसलिए हमारी भारतीय जीवन-शैली में उत्सव हर जगह मौजूद था। हमारे कार्य में, हमारे यश में हमारी आस्था में, हमारी उपलब्धि में और हमारी पल-प्रतिपल धड़कती जिंदगी में। यहां तक कि जन्म एवं मृत्यु में भी। पारंपरिक उत्सव जहां व्यक्ति को समूह से जोड़ते थे,वहीं जीवन में उत्साह भरने का काम भी करते थे। किंतु आज पाश्चात्य जीवन शैली के प्रभाव ने हमारे भीतर की उत्सवधार्मिता को कमोबेष कमजोर कर दिया है। नतीजतन उत्सव की सामाजिक बहुलता का क्षरण हुआ है। इसके प्रमुख कारणों में एक समाज में सामुदायिक उपलब्धि की बजाय,व्यक्तिगत उपलब्धि को महत्व देना रहा है। इस कारण उत्सवों के समय व्यक्तियों को परस्पर घुल-मिलकर एकाकार होने के जो अवसर मिलते थे,वे लगभग समाप्त हो गए हैं। ऐसे में उत्सव जीवन को लीलामयी बनाने का काम करते थे, किंतु आज एकाकीपन के चलते, मनुश्य समाज से कटता जा रहा है। यह विचार षून्यता व्यक्ति को भीतर से कमजोर बनाने का काम कर रही है। इसीलिए आज व्यक्ति में आंतरिक ऊर्जा की कमी होती जा रही है। ऊर्जा की इस कमी के चलते व्यक्ति जब असफल होने का अनुभव करता है, तो आत्मघाती कदम उठाने को विवष हो जाता है। गोया, कालांतर में ख़ुशी आनंद मंत्रालय व्यक्ति में भीतरी ऊर्जा जाग्रत करने में सार्थक होता है तो हताष व्यक्तियों के जीवन के लिए यह ऊर्जा की किरण संजीवनी सिद्ध होगी। बस यहां ख्याल यह रखना होगा कि व्यक्ति में बैठे अंधेरे को उजाले में बदलने की यह विचित्र पहल, महज सरकार की लोक-कल्याणकारी कागजी योजना बनकर न रह जाए ?

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