आनंदीसहाय शुक्ल: टूट गया सांसों का इकतारा

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गिरीश पंकज

पं.आनंदी सहाय शुक्ल हम सब को रोता बिलखता छोड़ कर चले गए। उनके निधन की खबर सुनते ही मुझे उनकी ही कविता याद आ गई, जिसमें वे कहते हैं

उधो सांसों का इकतारा

बजता रहे तार मत टूटे गाता मन बंजारा

बाणों की शैया पर लेटा, फिर भी मत्यु न चाहे

इस इच्छा इस आकर्षण को रोये या कि सराहे

क्रूर कल्पना  कितनी तट की बना रहे मंझधारा

उधो सांसो का इकतारा।

सांसों का इकतारा टूट गया। अब हम उनके मुख से कभी कविता नहीं सुन सकेंगे। 16 अगस्त, 2015 को उनका दिल्ली में निधन हो गया।  अंतिम संस्कार रायगढ़ (छत्तीसगढ़) में हुआ.  छत्तीसगढ़ का सौभाग्य था कि वे रायगढ़ में रह कर महान कविताएँ रच रहे थे। उस रायगढ़ में जहाँ कभी पं. मुकुटधर पांडेय जैसा छायावाद का प्रवर्तक महान कवि रहता था।

आधुनिक कविता के शिल्पी मुक्तिबोध भी इनकी कविताओ से प्रभावित थे. आनंदीसहाय जी की कविताएँ हमारे अंतरमन में विश्वास जगाती रहीं। वे कविताएँ जिनमें युग-परिवर्तन की क्षमता रही। वे कविताएँ जो अब कोई लिखने का साहस भी नहीं करता। हम सब चाहते थे कि शुक्लजी सौ साल तक जीएँ मगर विधि का कुछ और ही मंजूर था। वे अचानक चल बसे। वैसे उन्होंने भरपूर आयु पाई। नब्बे साल में उनका महाप्रयाण हुआ।  अब उनकी अनेक यादें शेष हैं और वे तमाम कविताएँ जो आने वाली पीढिय़ों का मार्गदर्शन करेंगी। साहित्य में उनका समुचित मूल्यांकन नहीं हो सका, यह पीड़ा हम सब की रही। उनको भी इस बात का अफसोस था। हिंदी आलोचना के अनेक स्याह चेहरों के कारण ऐसा हुआ मगर इस दिशा में शुक्ल जी ने कभी प्रयास भी नहीं किया। वे जोड़-तोड़ से काफी दूर हो कर साहित्य साधना में रत रहते थे। इसीलिए उनकी कविताओं में एक आग थी। वे ‘दिनकर’ जी की तरह अग्निधर्मा कवि थे। ऐसा कवि अब हिंदी को नहीं मिल सकेगा।

 

पं. आनंदी सहाय शुक्ल की कविताओं पर गत वर्ष ही मैंने एक लम्बा आलेख लिखा था। मेरे प्रति उनके मन में काफी स्नेह था। पिछले साल चक्रधर समारोह के कवि सम्मेलन के लिए उन्होंने मेरे नाम की अनुशंसा की थी । एक-दो लोग प्रयास कर रहे थे कि मेरा नाम कट जाए मगर ऐसा नहीं हो सका। यह बड़ी बात थी कि उन्होंने मेरे लिए प्रशासन से जिद की। जिद उनके स्वभाव में था। वे अन्याय बर्दाश्त नहीं करते थे इसलिए किसी से भी भिड़ जाते थे। वे छत्तीसगढ़  के ‘निराला’ थे। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं। उनकी अधिकांश रचनाएँ विद्रोह से लबरेज हैं। उन कविताओं में आग के दर्शन होते हैं। इसीलिए अगर दिनकर जी की तरह आनंदी सहाय शुक्ल को भी अग्निधर्मा कवि कहा जाए तो यह अतिरंजना नहीं होगी। मजदूर किसानों पर उनकी एक रचना है। उसका एक अंश देखें

aanandishay shuklaरामराज्य का सपना साथी धरती पर साकार करो

नर्ककुंड में फंसे मनुज का फिर से तुम उद्धार करो।

मानवता का पाठ पढ़ाने ओ सच्चे इंसान  चलो।

श्रमिक, मजूर, किसान चलो।

आनंदी सहाय जी उस युग के कवि थे, जिस युग की कविता ने आजादी की लड़ाई में भी भाग लिया और आजादी के बाद मोहभंग के दौर को भी कविता के माध्यम से स्वर दिया। सच्ची कविता निरंतर प्रतिकार करती रहती हैं। शुक्ल जी की कविताएँ भी यही काम करती रहीं। वे जीवन के अंतिम समय तक कविता को जीते रहे। उनके भीतर की आग कभी ठंडी नहीं हुई। उनसे मिलने वाला उस आग को, तपन को महसूस करता था। वे सत्ता, प्रशासन और समाज के किसी भी अन्याय को बर्दाश्त नहीं करते थे और सीधे-सीधे बोल देते थे। इसलिए उन्होंने अभिव्यक्ति के खतरे भी खूब उठाए। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वे अपनी शर्तों पर ही जीए। इसलिए उनको देख कर लगता था कि एक कवि को ऐसा ही होना चाहिए। गरीब और गरीब तथा अमीर हद से ज्यादा अमीर होता जा रहा है। यह पूँजीवाद की देन है।  इस पर उनकी कविता है-

वक्ष पर इस विश्व के नासूर पूँजीवाद है

बेरहम कातिल लुटेरा क्रूर पूंजीवाद है।

जहाँ इसकी नजर पड़ती वहाँ शमशान हँसता है

जहाँ इसकी नज़र पड़ती वहाँ शैतान हँसता है

इशारे से तनिक आबादियाँ वीरान होती हैं

खड़ी फसलें वहाँ पर सूख रेगिस्तान होती हैं।

इस कविता के परिपार्श्व में  जब हम देश और छत्तीसगढ़ को भी देखते हैं तो समझ में आ जाता है कि कितनी खरी बात कहते हैं आनंदीसहाय जी। आज उद्योगपति किस तरह सत्ता-प्रशासन की मदद से जमीनें हथिया रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं हैं। यह पूँजीवाद का घिनौना रूप है जिसे आनंदीसहाय अपनी लम्बी कविता पूँजीवाद में मुखरित करते हैं। पूँजीवाद के पोषक बन चुकी राजनीति को भी वे लताड़ा करते थे। राजनीति का जो चरित्र  हम देख रहे हैं, उससे हम निराश हैं। नेता जनसेवक नहीं, धनसेवक हो गए हैं इसीलिए कवि शुक्ल कहते हैं-

मैं नेता हूँ/ बालू में डोंगी खेता हूँ ।

मीठी बोली युगल अधर पर परमानेंट मुसकान

पाखंडों से धुली नम्रता यह मेरी पहचान

इन्हीं तेज हथियारों के बल अनुपम बना विजेता हूँ।

मैं नेता हूँ।

पं. शुक्ल ने बहुत कम लिखा। ‘जय लोकतंत्र’, ‘नथनी हाट बिकानी’, ‘गीत मेरे’, ‘उधो गीत’ आदि पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने अपना जो प्रदेय साहित्य को दिया है, उसका ही समुचित मूल्यांकन हो जाए, तो यह साहित्य पर कृपा  होगी। आज जो कविता की हालत है, उसे देखते हुए आनंदी सहाय जी का अवसान हमको अखरता है। उनके जैसा कवि इस समाज की, साहित्य की थाती है। ऐसी कविताएँ अब कितने लोग लिखते हैं, जिसमें वंचित वर्ग की पीड़ा को स्वर मिलता हो? अन्याय के विरुद्ध जो समाज को जाग्रत करती हो? अब तो ऐसी कविताएँ रची जा रही हैं, जिन्हें या तो लिखने वाला कवि समझता है (कई बार तो वो खुद नहीं समझ पाता) या फिर तथाकथित विद्वान आलोचक ही समझ पाता है। ऐसे समय में आनंदीसहाय जैसे कवियों की कविताएँ हमें दिशा देती हैं। कविता की दिशा कैसी हो, कविता कैसी होनी चाहिए, यह समझना हो तो शुक्ल जी की कविताओं को देखा जा सकता है। वे छंदबद्ध कविताएँ लिखते थे लेकिन आजकल छंदविहीनता का अराजक दौर हैं। शुक्लजी की छंद बद्ध रचनाओं का  बोध नवीन होता था। आधुनिक होता था। भोगविलास की संरचना उनकी कविताओं में नजर नहीं आती थीं। वे सच्चे गीतकार थे। अपने गीतों के बारे में वे कहते थे

गीत मेरे

सच्चे सखा जन्मजन्मांतर पुराने मीत मेरे।

हाथ में निज हाथ दो

कंठ में ललकार होगी।

मौत के जबड़े उछल कर चीर दूँगा

हाथ मेरे गीत की तलवार होगी।

जीवन भर अपने हाथों में गीत की तलवार ले कर वे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। कविता ही उनकी ताकत थी। कविता के बगैर उनका जीवन अधूरा था। वे कविता बोलते थे और कविता को  जीते भी थे। एक दौर था जब वे कवि सम्मेलनों के मंचों से दहाड़ा करते थे और उनको सुन कर लोगों को लगता था वे उनकी ही पीड़ा को स्वर दे रहे हैं। इसलिए वे कवि सम्मेलन के प्रिय कवियों में एक थे। उनको अपनी अनेक कविताएँ याद रहती थीं और उनके पाठ का अंदाज भी निराला होता था। ऊँचा-पूरा छरहरा बदन, बुलंद आवाज के धनी आनंदीसहाय मंच पर आते तो कवि सम्मेलन सार्थक हो जाता था। ये भी है कि कई बार आयोजक भी घबराते थे कि पता नहीं, वे क्या पढ़ देंगे, किसका पानी उतार देंगे।  शुक्ल जी को जो पढऩा होता था, वहीं पढ़ते थे। वे कभी दबे नहीं। कविता को बेचा नहीं। मंचों पर आजकल चुटकुले चलते हैं । फूहड़ कविताएँ लोकप्रिय हो रही हैं। मंचो की गरिमा  कम हुई है। क्योंकि शुक्ल जैसे तेजस्वी कवि गायब होते जा रहे हैं। मंच के पतन से शुक्लजी दुखी रहते थे। मगर वे बेबस थे। बस इतना था कि उन्होंने मंच की पतित होती जा रही धारा में खुद को बहाया नहीं। वे मजबूती के साथ खड़े रहे और श्रेष्ठ कविताओं की रचना करते रहे। उनके व्यक्तित्व  को समझने के लिए उनकी इस कविता को भी पढ़ा जा सकता है

दिल पाया आशिक का बन्दे मिला मिजाज़ फकीर का

जिस्मों के जंगल दलदल में लेता नाम जमीर का।

तो उनके पास जमीर था, और सच्ची कविता थी। जिसके साथ वे अंतिम सांस तक जीए। उनके उधो सीरीज के गीत भी बड़े लोकप्रिय हुए । उनमें एक गीत है

उधो इस युग में क्या गाएँ?

औरंगजेब, अयातुल्ला ये गाता कंठ दबाएँ।

छंदगीत के हत्यारे अब रचनाकार कहाएँ

राजनीति के तलुए चाटें कीर्ति किरीट लगाएँ

चारों ओर ठगों के डेरे इनसे गाँठ  बचाएँ।

आनंदीसहाय जी की एक-एक कविता पर लम्बा-विमर्श हो सकता है। आने वाले समय में उनकी कविताओं पर शोध हों ताकि नई पीढ़ी उनके समग्र अवदान से परिचित  हो सके। वर्तमान साहित्यिक पीढ़ी कुछ कृतघ्न -सी है। वह अपनी पुरानी पीढ़ी को न तो पढ़ती है, न उनका सम्मान ही करना चाहती है। फिर भी कुछ लोग बचे हुए हैं जो पुराने शिकरों को नमन करते रहते हैं। आनंदीसहाय जी चले गए। नई पीढ़ी के कितने लोग उन्हें जानते थे? जीते जी उनकी कविताएँ कोर्स में नहीं लग सकीं, मगर उनके जाने के बाद तो हमारी सरकार इस दिशा में सोचे और छत्तीसगढ़ के महाविद्यालयीन छात्रों  को  उनकी कविताओं से परिचित कराया जाए। शुक्ल जी स्थानीय स्तर के कवि नहीं थे। उनमें वैश्विकबोध था। वे पूरी मानवता के कवि थे। उनकी रचनाओं में युगीन पीड़ा रूपायित होती हैं। यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब उनकी रचनाओं से गुजरेंगे। शुक्ल जी की मत्यु पर उन्हीं के एक गीत से अपनी यह श्रद्धांजलि लेख खत्म करता हूँ कि

दूर क्षितिज की पगडंडी पर जाते चार कहार रे

डोली रोको रामदुहाई उसमें मेरा यार रे।

चांद-सितारे जिसके सदके वह तो धूलि समान है

तिलतिल काटी साथ उमरिया थोड़ी दूर मसान है।

फूट-फूट कर रोयेगी यह सूनी मौन मजार रे।

दूर क्षितिज की पगडंडी पर जाते चार कहार रे ।

हिंदी कविता के इस एक और महान अग्निधर्मा कवि को हम सबका विनम्र प्रणाम।

 

 

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