-विजय कुमार
सितम्बर हिन्दी के वार्षिक श्राद्ध का महीना है। हर संस्था और संस्थान इस महीने में हिन्दी दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा मनाते हैं और इसके लिए मिले बजट को खा पी डालते हैं। इस मौसम में कवियों, लेखकों व साहित्यकारों को मंच मिलते हैं और कुछ को लिफाफे भी। इसलिए सब इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं और अपने हिस्से का कर्मकांड पूरा कर फिर साल भर के लिए सो जाते हैं।
पर हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) के कर्मकांड के साथ ही कुछ विषयों पर चिंतन भी आवश्यक है। देश में प्राय: भाषा और बोली को लेकर बहस चलती रहती है। कुछ विद्वानों का मत है कि भोजपुरी, बुंदेलखंडी, मैथिली, बज्जिका, मगही, अंगिका, संथाली, अवधी, ब्रज, गढ़वाली, कुमाऊंनी, हिमाचली, डोगरी, हरियाणवी, उर्दू, मारवाड़ी, राजस्थानी, मेवाती, मालवी, छत्ताीसगढ़ी आदि हिन्दी से अलग भाषाएं हैं। इसलिए इन्हें भी भारतीय संविधान में स्थान मिलना चाहिए। इसके लिए वे तरह-तरह के तर्क और कुतर्क देते हैं।
भाषा का एक सीधा सा विज्ञान है। बिना अलग व्याकरण के किसी भाषा का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए ‘मैं जा रहा हूं’ का उपरिलिखित बोलियों में अनुवाद करें। एकदम ध्यान में आएगा कि उच्चारण भेद को यदि छोड़ दें, तो प्राय: इसका अनुवाद असंभव है। दूसरी ओर अंग्रेजी में इसका अनुवाद करें, तो I am going तुरन्त ध्यान में आता है। यही स्थिति मराठी, गुजराती, बंगला, कन्नड़ आदि की है। इसलिए अनुवाद की कसौटी पर किसी भी भाषा और बोली को आसानी से कसा जा सकता है।
लेकिन इसके बाद भी अनेक विद्वान बोलियों को भाषा बताने और बनाने पर तुले हैं। कृपया वे बताएं कि तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस और सूरदास की रचनाओं को को हिन्दी की मानेंगे या नहीं? यदि इन्हें हिन्दी की बजाय अवधी और ब्रज की मान लें, तो फिर हिन्दी में बचेगा क्या? ऐसे ही हजारों नये-पुराने भक्त कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाएं हैं। यह सब एक षडयंत्र के अन्तर्गत हो रहा है, जिसे समझना आवश्यक है।
यह षड्यंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा शुरू किया गया। इसे स्वतंत्रता के बाद कांग्रेसी सरकारों ने पुष्ट किया और अब समाचार एवं साहित्य जगत में जड़ जमाए वामपंथी इसे बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि भारत को पराधीन बनाये रखने के लिए यहां के हिन्दू समाज की आंतरिक एकता को बल प्रदान करने वाले हर प्रतीक को नष्ट करना होगा। अत: उन्होंने हिन्दू समाज में बाहर से दिखाई देने वाली भाषा, बोली, परम्परा, पूजा-पद्धति, रहन-सहन, खानपान आदि भिन्नताओं को उभारा। फिर इसके आधार पर उन्होंने हिन्दुओं को अनेक वर्गों में बांट दिया।
इस काम में उनकी चौथी सेना अर्थात चर्च ने भरपूर सहयोग दिया। उन्होंने सेवा कार्यों के नाम पर जो विद्यालय खोले, उसमें तथा अन्य अंग्रेजी विद्यालयों में ऐसे लोग निर्मित हुए, जो लार्ड मेकाले के शब्दों में ‘तन से हिन्दू पर मन से अंग्रेज’ थे। इन्होंने सर्वप्रथम भारत के हिन्दू और मुसलमानों को बांटा। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में दोनों ने मिलकर संघर्ष किया था। इसलिए इनके बीच गोहत्या से लेकर श्रीरामजन्मभूमि जैसे इतने विवाद उत्पन्न किये कि उसके कारण 1947 में देश का विभाजन हो गया। इस प्रकार उनका पहला षडयन्त्र (हिन्दुस्थान का बंटवारा) सफल हुआ।
1947 में अंग्रेज तो चले गये; पर वे नेहरू के रूप में अपनी औलाद यहां छोड़ गये। नेहरू स्वयं को गर्व से अंतिम ब्रिटिश शासक कहते भी थे। उन्होंने इस षडयन्त्र को आगे बढ़ाते हुए हिन्दुओं को ही बांट दिया। हिन्दुओं के हजारों मत, सम्प्रदाय, पंथ आदि को कहा गया कि यदि वे स्वयं को अलग घोषित करेंगे, तो उन्हें अल्पसंख्यक होने का लाभ मिलेगा। इस भ्रम में हिन्दू समाज की खड्ग भुजा कहलाने वाले खालसा सिख और फिर जैन और बौद्ध मत के लोग भी फंस गये। यह प्रक्रिया अंग्रेज ही शुरू कर गये थे। हिन्दू व सिखों को बांटने के लिए मि0 मैकालिफ सिंह और उत्तार-दक्षिण के बीच भेद पैदा करने में मि0 किलमैन और मि0 डेविडसन की भूमिका इतिहास में दर्ज है। ये तीनों आई.सी.एस अधिकारी थे।
इसके बाद उन्होंने वनवासियों को अलग किया। उन्हें समझाया कि तुम वायु, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, सांप, पेड़, नदी .. अर्थात प्रकृति को पूजते हो, जबकि हिन्दू मूर्तिपूजक है। इसलिए तुम्हारा धर्म हिन्दू नहीं है। भोले वनवासी इस चक्कर में आ गये। फिर हिन्दू समाज के उस वीर वर्ग को फुसलाया, जिसे पराजित होने तथा मुसलमान न बनने के कारण कुछ निकृष्ट काम करने को बाध्य किया गया था। या जो परम्परागत रूप से श्रम आधारित काम करते थे। उन्हें अनुसूचित जाति कहा गया। इसी प्रकार क्षत्रियों के एक बड़े वर्ग को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी) नाम दिया गया। इस प्रकार हिन्दू समाज कितने टुकड़ों में बंट सकता है, इस प्रयास में मेकाले से लेकर नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर वामपंथी बुद्धिजीवी तक लगे हैं।
हिन्दुस्थान और हिन्दुओं को बांटने के बाद अब उनकी दृष्टि हिन्दी पर है। व्यापक अर्थ में संस्कृत मां के गर्भ से जन्मी और भारत में कहीं भी विकसित हुई हर भाषा हिन्दी ही है। ऐसी हर भाषा राष्ट्रभाषा है, चाहे उसका नाम तमिल, तेलुगू, पंजाबी या मराठी कुछ भी हो। यद्यपि रूढ़ अर्थ में इसका अर्थ उत्तार भारत में बोली और पूरे देश में समझी जाने वाली भाषा है। इसलिए राष्ट्रभाषा के साथ ही यह सम्पर्क भाषा भी है। जैसे गरम रोटी को एक बार में ही खाना संभव नहीं है। इसलिए उसके कई टुकड़े किये जाते हैं, फिर उसे ठंडाकर धीरे-धीरे खाते हैं। इसी तरह अब बोलियों को भाषा घोषित कर हिन्दी को तोड़ने का षडयन्त्र चल रहा है।
अंग्रेजों के मानसपुत्रों और देशद्रोही वामपंथियों के उद्देश्य तो स्पष्ट हैं; पर दुर्भाग्य से हिन्दी के अनेक साहित्यकार भी इस षडयन्त्र के मोहरे बन रहे हैं। उनका लालच केवल इतना है कि यदि इन बोलियों को भाषा मान लिया गया, तो फिर इनके अलग संस्थान बनेंगे। इससे सत्ता के निकटस्थ कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को महत्वपूर्ण कुर्सियां, लालबत्ती वाली गाड़ी, वेतन, भत्ते आदि मिलेंगे। कुछ लेखकों को पुरस्कार और मान-सम्मान मिल जाएंगे, कुछ को अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए शासकीय सहायता; पर वे यह भूलते हैं कि आज तो उन्हें हिन्दी का साहित्यकार मान कर पूरे देश में सम्मान मिलता है; पर तब वे कुछ जिलों में बोली जाने वाली, निजी व्याकरण से रहित एक बोली (या भाषा) के साहित्यकार रह जाएंगे। साहित्य अकादमी और दिल्ली में जमे उसके पुरोधा भी इस विवाद को बढ़ाने में कम दोषी नहीं हैं।
भाषा और बोली के इस विवाद से अनेक राजनेता भी लाभ उठाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि भारत में अनेक राज्यों का निर्माण भाषाई आधार पर हुआ है। यदि आठ-दस जिलों में बोली जाने वाली हमारी बोली को भाषा मान लिया गया, तो इस आधार पर अलग राज्य की मांग और हिंसक आंदोलन होंगे। आजकल गठबंधन राजनीति और दुर्बल केन्द्रीय सरकारों का युग है। ऐसे में हो सकता है कभी केन्द्र सरकार ऐसे संकट में फंस जाए कि उसे अलग राज्य की मांग माननी पडे। यदि ऐसा हो गया, तो फिर अलग सरकार, मंत्री, लालबत्ती और न जाने क्या-क्या? एक बार मंत्री बने तो फिर सात पीढ़ियों का प्रबंध करने में कोई देर नहीं लगती।
बोलियों को भाषा बनाने के षडयन्त्र में कुछ लोग तात्कालिक स्वार्थ के लिए सक्रिय हैं, जबकि राष्ट्रविरोधी हिन्दुस्थान और हिन्दू के बाद अब हिन्दी को टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं, जिससे उसे ठंडा कर पूरी तरह खाया जा सके। विश्व की कोई समृद्ध भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें सैकड़ों उपभाषाएं, बोलियां या उपबोलियां न हों।
हिन्दी के साथ हो रहे इस षड्यन्त्र को देखकर अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों को खुलकर इसका विरोध करना चाहिए। यदि आज वे चुप रहे, तो हिन्दी की समाप्ति के बाद फिर उन्हीं की बारी है। देश में मुसलमान और अंग्रेजों के आने पर हमारे राजाओं ने यही तो किया था। जब उनके पड़ोसी राज्य को हड़पा गया, तो वे यह सोचकर चुप रहे कि इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है; पर जब उनकी गर्दन दबोची गयी, तो वे बस टुकुर-टुकुर ताकते ही रह गये।
हिन्दी संस्थानों के मुखियाओं को भी अपना हृदय विशाल करना होगा। इनके द्वारा प्रदत्ता पुरस्कारों की सूची देखकर एकदम ध्यान में आता है कि अधिकांश पुरस्कार राजधानी या दो चार बड़े शहरों के कुछ खास साहित्यकारों में बंट जाते हैं। जिस दल की प्रदेश में सत्ता हो, उससे सम्बन्धित साहित्यकार चयन समिति में होते हैं और वे अपने निकटस्थ लेखकों को सम्मानित कर देते हैं। इससे पुरस्कारों की गरिमा तो गिर ही रही है, साहित्य में राजनीति भी प्रवेश कर रही है। जो लेखक इस उठापटक से दूर रहते हैं, उनके मन में असंतोष का जन्म होता है, जो कभी-कभी बोलियों की अस्मिता के नाम पर भी प्रकट हो उठता है। इसलिए भाषा संस्थानों को राजनीति से पूरी तरह मुक्त रखकर प्रमुख बोलियों के साहित्य के लिए भी अच्छी राशि वाले निजी व शासकीय पुरस्कार स्थापित होने आवश्यक हैं।
भाषा और बोली में चोली-दामन का साथ है। भारत जैसे विविधता वाले देश में ‘तीन कोस पे पानी और चार कोस पे बानी’ बदलने की बात हमारे पूर्वजों ने ठीक ही कही है। जैसे जल से कमल और कमल से जल की शोभा होती है, इसी प्रकार हर बोली अपनी मूल भाषा के सौंदर्य में अभिवृद्धि ही करती है। बोली रूपी जड़ों से कटकर कोई भाषा जीवित नहीं रह सकती। दुर्भाग्य से हिन्दी को उसकी जड़ों से ही काटने का प्रयास हो रहा है। इस षड्यन्त्र को समझना और हर स्तर पर उसका विरोध आवश्यक है। बिल्लियों के झगड़े में बंदर द्वारा लाभ उठाने की कहानी प्रसिद्ध है। भाषा और बोली के इस विवाद में ऐसा ही लाभ अंग्रेजी उठा रही है।
chor se kahte ho choree karo or sahukar se kahte ho jaagte raho .dhany hai aap ki bhashai samjh or etihasik drushti .dhanya hai aapke pavitr vichar ….jai hindi -jai …-jai hindustan .jai -jai
सबको मलाई में हिस्सा चाहिए