बलात्कारियों की सज़ा को लेकर छिड़ी बहस

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निर्मल रानी

 

विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत महान में इन दिनों बलात्कार की घटनाओं को लेकर राष्ट्रव्यापी चिंता बनी हुई है। आए दिन देश के किसी न किसी भाग से न केवल व्यस्क लडक़ी अपितु अव्यस्क, किशोरी यहां तक कि गोद में उठाई जाने वाली बच्चियों तक के साथ बलात्कार किए जाने की घटनाओं के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। यह भी देखा जा रहा है कि हमारे देश की अदालतें ऐसे जघन्य अपराधों के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा देने में भी नहीं हिचकिचा रही हैं। यहां तक कि बलात्कार तथा उसके बाद बलात्कार पीडि़ता की हत्या किए जाने के जुर्म में कोलकाता में धनंजय चटर्जी नामक एक व्यक्ति को फांसी के तख्ते पर भी लटका दिया गया। इसी प्रकार की सज़ा निचली अदालतों द्वारा दिए जाने के कुछ और मामले भी प्रकाश में आए हैं। परंतु पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में सरेशाम एक 23 वर्षीय मेडिकल छात्रा के साथ चलती हुई बस में 6 लोगों द्वारा किए गए गैंगरेप तथा बलात्कार के पश्चात लडक़ी को चलती हुई बस से बाहर फेंक दिए जाने की घटना ने एक बार फिर पूरे देश के सभ्य समाज को हिलाकर रख दिया है। क्या संसद,क्या भारतीय सिने जगत, क्या बुद्धिजीवी तो क्या समाजसेवी यहां तक कि छात्र व देश के आम नागरिक सभी इस घटना से स्तब्ध रह गए हैं। एक स्वर में पूरा देश इन बलात्कारी दरिंदों को यथाशीघ्र कड़ी से कड़ी सज़ा दिए जाने की मांग कर रहा है।

दिल्ली में हुए इस सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद जहां इन अपराधियों को फास्ट ट्रैक कोर्ट में मुकद्दमा चलाकर कुछ ही दिनों के भीतर स$ख्त से स$ख्त सज़ा दिए जाने की मांग की जा रही है वहीं इसी दौरान एक बहस इस बात को लेकर भी छिड़ गई है कि आखिर देश में बलात्कार की बढ़ती घटनाएं रोकने के लिए और क्या अतिरिक्त उपाय किए जाएं? ऐसे जघन्य अपराध के मुजरिमों को किस प्रकार की सज़ाएं दी जाएं? गौरतलब है कि अभी तक भारतीय दंड संहिता में रेयर ऑफ द रेयरेस्ट समझे जाने वाले अपराधों के लिए ही सज़ा-ए-मौत अथवा फांसी दिए जाने का प्रावधान है। ज़ाहिर है हत्या तथा वीभत्स तरीके से अंजाम दिए गए हत्या जैसे गंभीर आरोपों के लिए अभी तक देश में अदालतों द्वारा फांसी की सज़ा सुनाए जाने के मामले कभी-कभार सामने आते हैं। कोलकाता में धनंजय चटर्जी को भी अदालत ने केवल बलात्कार का दोषी होने के चलते फांसी की सज़ा दिए जाने का आदेश नहीं दिया था बल्कि उसके अपराध में यह भी शामिल था कि वह स्वयं एक अपार्टमेंट में सिक्योरिटी गार्ड था तथा उसके ऊपर उस अपार्टमेंट में रहने वालों की सुरक्षा का जि़म्मा था। परंतु उसने अपनी जि़म्मेदारी निभाने के बजाए स्वयं ही उस अपार्टमेंट में रहने वाली एक नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार किया तथा बाद में उसकी हत्या भी कर डाली। गोया रक्षक ही भक्षक बन बैठा। इसीलिए अदालत ने अपने फ़ैसले में इस बलात्कार व हत्या की घटना की तुलना इंदिरा गांधी का हत्या से करते हुए तथा धनंजय को रक्षक के रूप में भक्षक बताते हुए उसे फांसी की सज़ा सुनाई थी।

परंतु पिछले दिनों दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड के बाद चारों ओर से यह आवाज़ें सुनाई दे रही हैं कि बलात्कार की सज़ा भी मृत्यु दंड होना चाहिए। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत दिए जाने की मांग केवल सडक़ों पर प्रदर्शनकारियों द्वारा ही नहीं की जा रही बल्कि देश की संसद में भी यह मांग की गई है। कई सांसद खुलकर बलात्कारी को फांसी दिए जाने के पक्ष में अपनी राय ज़ाहिर कर रहे हैं जबकि फांसी की सज़ा का मानवीय दृष्टि से विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि बलात्कारी को आजीवन कारावास की सज़ा होनी चाहिए। दूसरी ओर बलात्कार जैसी दिल दहला देने वाली घटनाओं से दु:खी समाज के एक बड़े तबके का यह भी मानना है कि ऐसे अपराधियों को हिजड़ा अथवा नपुंसक बना दिया जाना चाहिए ताकि वे न केवल स्वयं अपनी करनी पर पछताएं बल्कि दूसरे भी उसे देखकर सबक हासिल करें तथा भविष्य में कोई भी व्यक्ति उस सज़ायाफ्ता अपराधी को देखकर बलात्कार जैसा दु:स्साहस करने की कोशिश न करे। दिल्ली की घटना से बेहद दु:खी होकर फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने इस घटना में शामिल लोगों को जानवरों से बदतर प्राणी होने की बात तो कही ही है साथ-साथ उन्होंने यह मत भी व्यक्त किया है कि इस घटना के अपराधियों को जनता के हवाले कर दिया जाना चाहिए। परंतु क्या केवल भारतीय दंड संहिता में बलात्कारियों की सज़ा के विभिन्न कठोर तरीके अपनाए जाने या फांसी जैसी कठोर सज़ा दिए जाने के बाद क्या भारतीय समाज में बलात्कार की घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा? यहां यह भी गौरतलब है कि भारत संभवत:विश्व का अकेला ऐसा देश है जहां औरत को कभी दुर्गा का रूप बताया जाता है तो कभी देवियों से औरत की तुलना की जाती है। इतना ही नहीं बल्कि नवरात्रों के अवसर पर तो अव्यस्क कन्याओं को अपने-अपने घरों में सम्मानित तरीके से बुलाकर उनकी पूजा करने व उन्हें प्रसाद आदि भेंट करने जैसा उत्सव भी मनाया जाता है।

इत्तेफाक से आज यदि हम राजनीति व सत्ता के क्षेत्र में भी देखें तो हमें सोनिया गांधी, मीरा कुमार, सुषमा स्वराज जैसी हस्तियां राजनीति व सत्ता के शिखर पर बैठी दिखाई देंगी। यहां तक कि हमारा देश गत् दिनों देश के प्रथम नागरिक के रूप में एक महिला राष्ट्रपति को भी देख चुका है। देश के कई राज्यों में इस समय महिला राज्यपाल व महिला मुख्यमंत्री देखी जा सकती हैं। परंतु इन सब वास्तविकताओं के बावजूद समाज में महिलाओं के प्रति न तो आदर की भावना पैदा हो रही है न ही बलात्कारी प्रवृति के लोग इन सबसे भयभीत होते हैं। कुछ समाजशास्त्रियों का तो उपरोक्त बातों से अलग हटकर कुछ और ही मत है। इनका मानना है कि पारिवारिक स्तर पर लडक़ी व लडक़ों की परवरिश के दौरान उन की बाल्यावसथा में अपनाए जाने वाले दोहरे मापदंड ही समाज में इस प्रकार की घटनाओं के जि़म्मेदार हैं। गोया प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण में लडक़ों को आक्रामक बने रहने तथा लड़कियों को यहां तक कि लडक़े से बड़ी उम्र की उसकी ही बहनों को मारने व पीटने तक की घटनाओं को आंखें मूंद कर देखते हैं। परिणास्वरूप बचपन से ही लडक़े को किसी भी लडक़ी पर अपनी प्रभुता व आक्रामकता बनाए रखने का पूरा रिहर्सल हो जाता है। इसी बात को प्रसिद्ध कहानीकार व लेखक राजेंद्र यादव ने इन शब्दों में बयान किया है कि जब तक लडक़ों को राजकुमार की तरह पाला-पोसा जाता रहेगा तथा मर्दों को पति परमेश्वर का दर्जा दिया जाता रहेगा तब तक समाज में ऐसी आपराधिक घटनाएं होती रहेंगी।

ऐसे में निश्चित रूप से यह एक अति गंभीर, चिंतनीय तथा अति संवेदनशील विषय है कि आख्रिऱ भारतीय समाज में बलात्कार जैसी शर्मनाक घटनाओं को रोकने के लिए कौन से पुख्ता उपाय किए जाएं? क्या मौत की सज़ा के भय से ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है? क्या आजीवन कारावास जैसी सज़ा देकर बलात्कारियों को सारी उम्र बिठाकर मुफ्त की रोटी खिलाना न्यायसंगत है या हिजड़ा या बधिया बनाकर बलात्कारियों को उनके दुष्कर्मों की सज़ा देना तथा ऐसी मानसिकता रखने वाले दूसरे लोगों के दिलों में भय पैदा करना उचित है? या फिर पारिवारिक स्तर पर बचपन से ही बच्चों की मानसिकता ऐसी बनानी होगी कि वे बड़े होकर किसी लडक़ी पर आक्रमकता की दृष्टि से हावी होने या उसे अपमानित करने की बात तक अपने ज़ेहन में न ला सकें? कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि बलात्कार या यौन शोषण जैसे मामलों को रोकने के लिए सेक्स शिक्षा का ज्ञान आम लोगों को विशेषकर स्कूल, कॉलेज जाने वाले बच्चों को होना बहुत ज़रूरी है।

परंतु इन सब से अलग हटकर मेरा अपना विचार यह है कि बलात्कार की सज़ा क्या हो और क्या न हो इसका निर्धारण करने का अधिकार बुद्धिजीवियों, सांसदों या आम लोगों को होने के बजाए या इनकी सलाह लेने के बजाए देश की तमाम बलात्कार पीडि़त महिलाओं के मध्य बाक़ायदा एक व्यापक सर्वेक्षण करवा कर निर्धारित की जानी चाहिए। क्योंकि भुक्तभोगी महिला ही अपने वास्तविक दु:ख-दर्द, उसकी पीड़ा तथा सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर पेश आने वाली समस्याओं को समझ सकती है। हां इतना ज़रूर है कि बलात्कार के आरोप में हमारे देश में अब तक साल, दो साल या पांच-सात साल तक की अधिकतम सज़ाएं जो बलात्कारियों को दी जाती रही हैं वह कतई पर्याप्त नहीं हैं। निश्चित रूप से सज़ा ऐसी होनी चाहिए कि जो ऐसी घटना को अंजाम देने से पहले बलात्कारियों के दिल में खौफ पैदा करे। परंतु बलात्कार पीडि़ता की इच्छा व उसकी मंशा को बलात्कारी को सज़ा दिए जाने के मामले में शामिल ज़रूर किया जाना चाहिए। क्योंकि बलात्कार को लेकर छिड़ी बहस को राजनैतिक रूप देने वालों या केवल आम लोगों की सहानुभूति अर्जित करने हेतु उनकी भावनाओं को भडक़ाने पर आधारित भाषणबाज़ी करने वाले लोगों से कहीं अच्छी तरह अपने दु:ख-दर्द व अपने अंधकारमय भविष्य के विषय में एक बलात्कार पीडि़ता ही समझ सकती है।

 

 

5 COMMENTS

  1. सबसे पहले-बलात्कार होने के लिए जिम्मेदार कारकों को ईमानदारी से समझना!
    दुसरे-बलात्कार होने के कारणों को जानना!
    तीसरे-बलत्कारियों के मनोविज्ञान को जानना!
    चौथे-बलात्कार के परिणामों को बलात्कारी की इज्जत से जोड़ने के बजाय, बलात्कार को महिला की इज्जत से जोड़ने वाली मानसिकता के औचित्य का परीक्षण करना!
    पांचवां-पुलिस और न्याय प्रक्रिया में अपारदर्शिता बनाये रखने के लिए जिम्मेदार कारकों को जानना!
    छठा-सजा और सजा का क्रियान्वन!

  2. raisina hill me jo swatahsfurt janata ka swaim itani adhik matra me ek virodh ke lie jama hona , vah bhi kisi netratw ke ek naya sanket deta hai ki ab vo din lad gae jo hamhare rajneta jidhar desh ko hankate the ab nahi hone wala !ashchary to tab hota hai ki jab koi ghatana ghatit ho jati hai to ham apna damdikhgane lagate hai !! bhartiy loktantr ka ek vibhats roop samane aya hai ki bina netratw ke aisi bhid ka netratw yadi galat hantho me chala gaya to kya hoga ? bharat ke netratw ko eh samajhana chahie ki sara bharat bigad gaya toin harami bhrat
    netaon ka kya hasr ho sakata hai. me janata hon ki 376 i.p.c. me fansi ki saja nahi ho sakati parantu desh hit me sambidhan sansodhan to rajnetaon ke lie sambhav hai, kiya ja sakata hai. bharat kibalaen karah rahi hain , nariyan chitkar kar rahi hai . koi sunane wala nahi !! matr netratw jimmedar hai ! jo bhrt nikamma, aur nakara ha aur dishahin hai !!jo ek videshi ka gulami kar desh ka ahit kar raha hai!!socho!!

  3. अधिकतम सजा के साथ दो अन्य बाते ऐसी हैं,जिसपर ध्यान देना अत्यावश्यक है.पहला तो यह कि ऐसे मामलों में फिसला तुरत हो.आम आदमी पार्टी के संयोजक ने एक महीने में फैसले की मांग की है,वह जायज है.जयपुर में जर्मन महिला के साथ बलात्कार करने वाले को १६ दिनों के अन्दर सजा सुनाई गयी थी.ऐसा सबलात्कार के सभी मामलों में क्यों नहीं हो सकता?दूसरीबात है अधिक से अधिक या सब अपराधियों को सजा देना.इस मामले में सजा दर केवल २५% है. इन दोनों बातों के लिए प्रशासन और न्यायपालिका दोनों दोषी हैं.ऐसे भी मेरा मानना है कि भारत में बलात्कार के जो मामले सामने आते हैं १०% से जयादा नहीं होते.९०% मामले या तो लोगों की या सामाज के डर से नहीं बाहर आते या पुलिस के मामला न दर्ज करने की वजह से सामने आते नहीं आते.जब तक बलात्कारियों और छेड़ छाड़ करनेवालों के मन में डर नहीं बैठाया जाएगा तब तक इन घटनाओं पर रोक नहीं लग सकता.एक बात और आम नागरिक भी इसमे अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं जिसका ज्वलंत उदाहरण इस पारा मेडिकल छात्रा का मामला भी है.दोनों के निर्वस्त्र शारीर शायद आधे घंटे तक सड़क पर पड़े रहे थे.होना तो यह चाहिए था कि उसी समय जिसकी भी नजर पड़ती वह उन दोनों को सहायता देने के साथ पुलिस को भी खबर करता.

  4. पाठक महोदय / महोदया ,
    जब एक तरफ़ हम संसद में माननीय सुषमा जी की बात सुनते हैं कि
    हाल ही के गेंग रेप के आरोपियों को फ़ांसी दी जाए , जो कि सही है , चूंकि अब पीडिता, तो मरी जैसी ही है , के मरने में कोई कसर बाकी नहीं रही . . इधर हमारे गृह सचिव यह कहते हैं कि उमर कैद दिलवाएंगे , तो क्यों , ? फ़ांसी क्यों नहीं ?
    धनंजय (कोलकाता) को हो सकती है , तो फ़िर यह अपराध श्री सिंह बताएं कम कैसे है?
    हम समझते हैं कि यह केस के अभियोजन और फ़ास्ट ट्रेक जज महोदय के विवेक पर है , .
    चार्ल्स डिकेन्स ने कहा था कि It was the best of Times It was the worst of times…
    समय तो अपने आप भी कभी कभी फ़ैसला करता है . पर

    आखिर हम यह तय कर लें कि हम आखिर किस तरह का समाज चाहते हैं ?

    क्षेत्रपाल शर्मा
    पूर्व संयुक्त निदेशक (राजभाषा )
    ई.एस.आई.सी मुख्यालय ., नई दिल्ली
    22.12.2012

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