भू-संशोधनों ने लौटाया आंदोलनों का मौसम

2
157
annaसंदर्भ: अन्ना सत्याग्रह
अरुण तिवारी

मौसमी हवा का रंगत अभी भले ही बसंती हो, किंतु सामाजिक और सियासी हल्के मंे तपिश बढेगी, गर्मी लौटेगी; इसके संकेत हो चुके हैं। भूमि अधिग्रहण स्ंशोधनों को लेकर जंतर-मंतर पर 24 फरवरी को अन्ना दल, 25 को कांग्रेस और  ’नमक सत्याग्रह’ के जरिए किसान आंदोलन की जमीन तलाशने का काम शुरु कर चुकी आम आदमी पार्टी के तेवरों के देखकर लगता तो यही है। दिलचस्प है कि जन मुद्दों पर जनता से रायशुमारी न करने की जिस होशियारी के कारण मोदी सरकार अभी तक किसी राष्ट्रीय आंदोलन की आहट से बची रही, भूमि अधिग्रहण संबंधी कानून में संशोधनों को लेकर उसका यही रवैया धरना-प्रदर्शन और जन यात्राओं का मौसम लौटा लाया है। कहना न होगा कि भाजपा को दिल्ली में मिली हार ने सभी को यह हिम्मत मुहैया कराई है। नौ महीने से सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जनता अच्छे दिन का इंतजार कर थी कि मोदी घोषणा-दर-घोषणा.. अध्यादेश-दर-अध्यादेश खेल रहे थे।
सच्चाई यह है कि आधार, गैस सब्सिडी, टोल टैक्स, सरकारी स्कूलों के विलय विदेशी निवेश, गंगा पर बैराज और जल विद्युत परियोजनाओं से लेकर नदी जोङ परियोजना जैसे तमाम मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर निर्णय लेने से पहले यदि मोदी सरकार ने जनता से व्यापक चर्चा की होती, तो अब तक कई आंदोलन खङे हो गये होते। अब शुरुआत हुई है, तो तपिश दूर तक जायेगी ही। ऊर्जा प्रसार का यही सिद्धांत है। खैर, यहां मनमोहन सरकार द्वारा बनाये भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें मोदी सरकार द्वारा किए गये उन संशोधनों का जिक्र जरूरी है, जिनके विरोध में पांच हजार सत्याग्रहियों को साथ लेकर अन्ना एक बार फिर जन जगाने निकले हैं।

गौरतलब है कि मध्यवर्ती काश्तकारी उन्मूलन, जमींदारी उन्मूलन, हदबंदी कानून और चकबंदी से लेकर भूमि रिकार्ड का कम्पयुटरीकरण तक भूमि सुधार के सरकारी प्रयास भारत देश में कई हुए। हरियाणा की हुडा सरकार से लेकर उ. प्र. की मायावती सरकार तक ने मुआवजे और पुनर्वास को लेकर बनाई अपनी राज्य नीतियों हेतु अपनी पीठ खुद ठोकी। किंतु किसानों ने सबसे ज्यादा नंबर मनमोहन सरकार द्वारा लाये भूमि अधिग्रहण कानून को दिए। शहरी भूमि का मुआवजा बाजार मूल्य का दोगुना और ग्रामीण भूमि का मुआवजा चैगुना चुकाने और जनसहमति बगैर भूमि अधिग्रहण न करने के प्रावधान के कारण वह कानून सभी पूर्ववर्तियों से आगे था। जिस एक बात को लेकर उस कानून की सबसे ज्यादा शाबाशी मिली, वह थी – देश की आर्थिक तरक्की में खेती, खेतिहर और गरीब की हिस्सेदारी ! कई औद्योगिक संगठनों को यह शाबाशी रास नहीं आई।

क्या थे पूर्व प्रावधान ?

कानून मंे कहा गया था कि विशुद्ध निजी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत और सरकारी व ’पीपीपी’ परियोजनाओं के लिए 70 भू-मालिकों की सहमति के बगैर भूमि अधिग्रहण संभव नहीं होगा। पांच साल के भीतर अधिग्रहित भूमि का उपयोग न करने अथवा पूरा मुआवजा न चुकाने पर भूमि भू-मालिक, उसके उत्तराधिकारी अथवा राज्य द्वारा स्थापित भूमि-बैंक को वापस लौटानी होगी। शर्त यह भी कि पूरा मुआवजा देने के बाद ही भूमालिक को जमीन खाली करने को कहा जा सकेगा। अधिग्रहण पूर्व प्रत्येक परियोजना के सामाजिक पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन जरूरी होगा। यह प्रावधान सुनिश्चित करेगा कि नुकसान करने से पहले परियोजना उसका समाधान करे। राहत व पुनर्वास के 14 कानून इस नये कानून का हिस्सा हों। पुनर्वास की स्थिति में भूमालिक को मकान के लिए जमीन मिलेगी। भूमालिक को अधिकार होगा कि वह एक मुश्त भत्ता, मंहगाई के अनुसार परिवर्तनशील मासिक भत्ता अथवा परियोजना में प्रति परिवार एक आवश्यक रोजगार में से किसी एक विकल्प को चुन सके। इन प्रावधानों के अलावा सरकार ने तय किया था कि वह अब चिकित्सा, शिक्षा व होटल श्रेणी की किसी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी। परमाणु ऊर्जा, रेल तथा राष्ट्रीय-राज्यीय राजमार्गों भूमि अधिग्रहण प्रावधानो के दायरे में नहीं आयेंगे। लेकिन सेना, पुलिस, सुरक्षा, सार्वजनिक, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त अथवा प्रशासित शिक्षा-शोध संस्थान, स्वास्थ्य, पर्यटन, परिवहन, अंतरिक्ष संबंधी परियोजनायें, कानून द्वारा स्थापित कृषक सहकारी समितियों से लेकर औद्योगिक गलियारे, सेज, खनन, राष्ट्रीय निवेश एवम् निर्माता क्षेत्र व जलसंचयन परियोजनाओं पर सभी प्रावधान लागू होंगे।

क्या थी औद्योगिक आशंकायें ?

इन प्रावधानों को लेकर कई औद्योगिक घरानों ने आशंका व्यक्त की थी कि इनके कारण भूमि की कीमतें बढेंगी और कीमतें बढने से उद्योगों की ढांचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ जायेगी। भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। देश के औद्योगिक और व्यापारिक संगठन आलोचना कर रहे हैं कि इस कारण उत्पादन व निर्माण उद्योग चरमरा जायेगा। सामाजिक आकलन के प्रावधान के कारण परियोजनायें समय पर शुरु नहीं हो पायेंगी। पीपीपी परियोजनायें प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। औद्योगिक क्षेत्र की इन्ही आशंकाआंे की बिना पर मोदी सरकार ने कई संशोधन किए।

मोदी सरकार द्वारा किए संशोधन

उसने सरकारी-गैर सरकारी किसी भी परियोजना के लिए अधिग्रहण हेतु कुल भू-मालिकों में से 70 फीसदी की सहमति की शर्त हटा दी है। सिंचित कृषि भूमि के अधिग्रहण पर लगी रोक को खत्म कर दिया है। बिना सामाजिक आकलन किए अधिग्रहण को मंजूरी न करने की शर्त को भी अब नहीं रही। अधिग्रहित भूमि को उपयोग न करने की स्थिति में भूमि वापस भू-मालिकों को लौटाने वाली शर्त में भूमि उपयोग न करने की अवधि पांच साल से बढाकर पन्द्रह साल की। पहले अधिग्रहण के वक्त दर्शाये गये उपयोग व मालिकाने मंे परिवर्तन की अनुमति नहीं थी। अब यह संभव होगा। अधिग्रहण की सारी शक्तियां जिलाधीश के अधीन कर भूमि अधिग्रहण की लोकतांत्रिक दखल की संभावना को समाप्त किया। भूमि विवाद की स्थिति में मामला अदालत में लंबित हो, तो भी अधिग्रहण करने का प्रावधान किया।

सत्याग्रहियों की मांग

मोदी सरकार द्वारा किए उक्त संशोधनों का विरोध में अन्ना व साथी सत्याग्रहियों की मांग है कि भूमि अधिग्रहण कानून संबंधी संशोधन विधेयक-2014 रद्द हो। सभाी आवासहीन भारतीय नागरिकों को आवास मुहैया कराने के लिए ’राष्ट्रीय आवास भूमि अधिकार गारंटी कानून’ बने। भूमिहीन खेतिहर मजदूर परिवारों को खेती के भूमि आवंटन हेतु राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति बने। वनाधिकार मान्यता अधिनियम-2006 तथा पंचायत विस्तार विशेष उपबंध अधिनियम-1996 के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु कार्यबल का गठन हो।

असल मकसद – ’असली आजादी’

यहां गौर करने की बात है कि दिल्ली पहुंच रहे पांच हजार सत्याग्रहियों का कुल जमा मकसद, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर भारत सरकार को चेतावनी देना मात्र भी नहीं है। बकौल पी. व्ही. राजगोपाल, इसका असल मकसद है – ’असली आजादी’ का संदेश और संकेत देना। इस जत्थे में शामिल लोगों से बात करें तो वे आपको बतायेंगे कि सिर्फ सङक की चैङाई और मकान की ऊंचाई को विकास की माप मानना गलत है। यह मानना गलत है कि सारी सत्ता, संसाधन और जमीन पर सरकार का ही हक है। भूमि अधिग्रहण बिल के बहाने वे असल में विकास की असल परिभाषा को परिभाषित करने निकले हैं।

जिम्मेदारी के एहसास की कवायद

निजीकरण को कोई ठीक मान सकता है; किंतु शिक्षा, पानी, सेहत और सुरक्षा के व्यावसायीकरण को कोई कैसे ठीक मान सकता है ? सच कहें तो सत्याग्रहियों का यह कूच, असल में जनता की बुनियादी जरूरतों के सेवा व ढांचागत क्षेत्रों में बढते इस व्यावसायीकरण के खिलाफ ही है। बुनियादी जरूरत के ऐसे क्षेत्रों के सरकारी उपक्रमों की गुणवत्ता में आई गिरावट का मतलब यह कतई नहीं कि सरकारें इनमें सुधार की बजाय, अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाङ लें। यह सत्याग्रह, सरकारों को इस जिम्मेदारी को एहसास कराने की कवायद भी है। आम आदमी पार्टी ने अन्ना अभियान को समर्थन देने की घोषणा भले ही की हो, किंतु उन्हे यह नहीं भूलना चाहिए कि अब तक उनकी पार्टी ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है, जो बताती हो कि आम आदमी पार्टी बुनियादी जन-जरूरत के ढांचागत व सेवा क्षेत्र में ’पीपीपी’ के नाम पर व्यावसायीकरण के फैलते जाल के खिलाफ है। इस दृष्टि से यह सत्याग्रह, दिल्ली में पानी, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा के व्यावसायीकरण के भी खिलाफ है।

राह बतायेगी मंजिल

गौरतलब है कि मोदी सरकार तो बाद में आई; ’असली आजादी’ अभियान की पटकथा तो असल में तभी लिखनी शुरु हो गई थी, जब केजरीवाल, अन्ना से अलग हुए। इसके तहत् दिल्ली, जयपुर से लेकर रालेगांव सिद्धी तक कई बैठकें हुईं। ग्रामसभा को तीसरी सरकार मानकर उसकी शुद्धि और सशक्तिकरण से लेकर जल-जंगल-जमीन के अधिकार संबंधी कई अन्य विचारों ने अपने-अपने स्तर पर मूर्त लेना भी शुरु कर दिया है। इससे यह तो तय है कि ’असली आजादी अभियान’ जंतर-मंतर तक रुकने वाला नहीं। देखना सिर्फ यह है कि यह अभियान, वाकई जमीनी सरोकार के सफर पर निकलना पसंद करेगा या फिर दिल्ली से निकलकर चुनावी प्रदेशों की राह का राहगीर बन जायेगा ? यह भी देखना महत्वपूर्ण होगा कि यह अभियान, दिल्ली की प्रदेश सरकार को भी आईना दिखायेगा या सिर्फ श्री मोदी को ही चिढायेगा ??

2 COMMENTS

  1. क्या इस संतुलित और सामयिक आलेख पर ,जिसमे विद्वान लेखक ने सबको आइना दिखाने का प्रयत्न किया है ,कोई टिप्पणी करेगा?

  2. अभी तक मोदीजी और उनकी पार्टी एक के बाद एक लोक लुभावन चीजें और दिवास्वप्न दिखाए जा रहे थे। विदेशी दौरे,ओबामा से मित्रता, डिज़ाइनर वेशभूषा या वेशभूषा परिवर्तन (एस के पाटिल की आलोचना जिस बात पर होती थी )से ही ये आत्म मुग्ध थे ,”मन की बात”जब की तो किसानों की मन की बात की भनक इन्हे नहीं लगि. अब किसानो के मन की बात और आंदोलन दूर तक जाएगा. अभी ५ साल का अरसा हैंओदि सरकार के लिए शुभ संकेत है की देशी जरूरतों की पूर्ति पाहिले आवशयक है और ”स्मार्ट”सिटी /बुलेट ट्रैन ,की बाद मे. एक अंतर राष्ट्रीय नोबल पुरस्कार से सम्मनित अर्थशास्त्री ने कहा भी है की उद्योगों का भूमंडलीकरण मानवता के लिए एक खतरा है. इस विस्तरवादिता के कारण कई देशी मूल्य पीछे निकल जाएंगे,जो हमारी संस्कृति का आधार है. भौतिक उन्नति/फौजी हथियारों के उन्नत संस्करण/ विमानों के नवीनतम पीढिया मानवता के लिए ख़तरा है. आखिर जमीनो को फाड़कर /पेड़ों को चीरकर/ तालाबों नदियों को रेत से ख़ालिकर /आप किसका विकास करेंगे ?किसान को बेदखल कर जो अपने आप में अन्नदाता है ,स्वयं मालिक है उसे क्या एक नौकर और याचक बनाकर छोड़ेंगे ?अच्छा है सरकार के कार्यकाल के प्रथम वर्ष में ही यह मुद्दा उठ चूका है। सरकार सचेत हो गयी है. कुछ संशोधनों के लिए तैयार दिख रही है. अन्ना की हुंकार से एक बात साफ हो गयी है की एक दल के महासचिव ने अभी अभी आरोप लगाया था की अन्ना भाजपा के लिए कार्य करते हैं वह गलत साबित हुआ.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here