क्या अब अन्ना का वह जादू युवा वर्ग पर फिर उसी तरह सर चढ़कर बोलेगा जिस तरह एक-डेढ़ साल पहले बोलता था? क्या अरविंद केजरीवाल बिन अन्ना और उनके नाम के राजनीतिक राह पर अग्रसर हो पायेंगे? क्या रामदेव-अन्ना साथ आयेंगे और व्यवस्था में परिवर्तन का झंडा बुलंद करेंगे? क्या जनांदोलन के नाम से प्रसिद्ध मुहिम अब कभी जिन्दा नहीं होगी? और भी न जाने कितने सवाल हैं जिनका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है किन्तु इतना आभास हो चुका है कि अन्ना-अरविंद की एक राह में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने मतभेद की जगह मनभेद पैदा कर दिए हैं| और सबसे बड़ी बात; आज केजरीवाल के कुनबे में अन्ना के तमाम छोटे-बड़े सहयोगी आ चुके हैं किन्तु अन्ना के पास किरण बेदी के अलावा कोई नहीं बचा है| अन्ना के निजी सचिव सुरेश पठारे ने भी अन्ना को छोड़ दिया है| अन्ना के ब्लॉग का कार्य देखने वाले राजू पारुलेकर का कहना है कि अन्ना ने पठारे को भी उसी तरह बाहर का रास्ता दिखाया है जिस तरह उन्हें दिखाया था| हालांकि पठारे ने राजू की बात को गलत बताते हुए खुद ही अन्ना का साथ छोड़ने की बात कही है| यह भी सामने आया है कि पठारे पर भ्रष्टाचार के आरोप थे और ३५ हज़ार रुपये मूल्य का फोन उन्हें किसी संस्था की ओर से उपहार में मिला था| ज़ाहिर है अन्ना तक यह बातें पहुंची होंगी और पठारे की विदाई की पटकथा लिखी जा चुकी होगी| सच क्या है यह तो अन्ना-पठारे ही बता सकते हैं; जहां तक केजरीवाल और अन्ना के संबंधों में आई खटास की बात है तो इसकी नींव उसी दिन पड़ गई थी जब अन्ना ने राजनीति में प्रत्यक्ष पदार्पण से इंकार करते हुए कहा था कि वे राजनीति में कदम नहीं रखेंगे| खैर अन्ना के इस वाक्य पर कई बार वाद-विवाद की स्थिति निर्मित हुई है और उन्हें व उनकी टीम के अन्य सदस्यों को कई बार एक दूसरे की बातों का खंडन करना पड़ा है| इतनी मतभिन्नताओं के बाद भी यदि अन्ना-केजरीवाल का साथ इतने दिनों तक चला तो उसके पीछे भी ठोस वजह थी| केजरीवाल को पता है कि अन्ना के बिना उनका राजनीतिक अभियान दम तोड़ देगा और शायद अन्ना भी यह तथ्य भली-भांति जानते होंगे कि अकेला चना आज के युग में तो कम से कम भाड़ नहीं फोड़ सकता| लिहाजा दोनों को ही एक दूसरे की जरुरत है और थी किन्तु आपसी हितों और महत्वाकांक्षाओं के चलते दोनों की राहें जुदा हो गईं और अब दोनों का वैचारिक रूप से साथ आना असंभव ही जान पड़ता है|
अन्ना का बाबा रामदेव के प्रति बढ़ता झुकाव भी काफी हद तक केजरीवाल को चुभा ही है जो उनकी तल्खी में नज़र भी आता है| इधर एक चौंकाने वाली खबर प्राप्त हुई है कि केजरीवाल और अन्ना को अलग करने में संघ की भूमिका है जिसे बाबा के साथ उद्योगपति जिंदल ने परवान चढ़ाया है| खबर पर प्रथम दृष्टया संशय पैदा होता है किन्तु अगले ही पल यह भान होता है कि अन्ना तो पूर्व से ही संघ के करीब थे और वैचारिक रूप से संघ की प्रतिबद्धता को अपने जीवन में उतार चुके थे| वहीं बाबा की ताकत के पीछे भी संघ परिवार की सोच थी जिसने बाबा को आर्थिक सम्राट होने के बावजूद जन-जन का लोकप्रिय बना दिया| अब अन्ना-बाबा दोनों कहीं न कहीं संघ से प्रभावित थे तो उनको साथ लाकर संघ ने अपनी ताकत में इजाफा ही किया है| हाँ, इस पूरी मुहिम में केजरीवाल ज़रूर अलग-थलग पड़ गए हैं| कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध मोर्चा खोलना भी उन्हें भारी पड़ा है| अब तक अन्ना के तमाम आन्दोलनों और धरनों में यही संघी और भाजपाई भीड़ बनकर मीडिया को अपनी ओर खींचते थे और केजरीवाल ने उन्हीं को बिसराकर सियासी दांव चलना चाहा| लिहाजा केजरीवाल के पास फेसबुक और सोशल मीडिया के गिन-चुने समर्थकों के अलावा कोई नहीं बचा है| फिर यह भी संभव है कि मीडिया में अन्ना के मुकाबले केजरीवाल को लेकर कोई ख़ासा उत्साह न हो| पर फिर भी कहना चाहूँगा कि केजरीवाल के साहस और उनकी महत्वाकांक्षाओं ने जिस राह को चुना है उसमें यह तो शुरुआत है, आगे उन्हें और भी कई रंगों से दो-चार होना पड़ेगा| वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता के दौर में सियासी करवट और नित बदलते समीकरणों के चलते अन्ना, केजरीवाल और बाबा क्या करते हैं और इनके साथ क्या होता है, देखना दिलचस्प होगा| वैसे कल तक देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदलने का दावा करने वाले आज खुद दिशाहीन नज़र आते हैं और इसका मुख्य कारण भी इनका संगठित न होते हुए स्वयं को महिमामंडित करते रहना है और यही वह भाव होता है जो आदमी को पीछे खींचता है| अन्ना-केजरीवाल के साथ भी यही हुआ है और इसका सर्वाधिक खामियाजा उस जनता को उठाना पड़ा है जिसने इनसे उम्मीद बाँध ली थी|
आपके लेख का शीर्षक तो ठीक है,पर बाद में आप थोडा भटके हुए से लगते हैं.अगर आप ३ अगस्त को अनशन तोड़ते समय अन्ना जी के बयान पर ध्यान देंगे तो आपके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि उस दिनअन्ना जी ने वही कहा था,जो आज केजरीवाल कह रहे हैं.यह भी सही है कि कहीं न कहीं से यह चाल चली गयी है ,जिससे अन्ना जी केजरीवाल से अलग हो जाएँ .यह अरविन्द केजरीवाल भी अवश्य मानते होंगे कि किसी बाहरी ताकत ने उनको अलग किया है.बाहरी ताकतों के अतिरिक्त इसमे किरण बेदी और संतोष हेगड़े का हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता.यह भी सही है कि अन्नाजी के सहयोग के बिना कोई पार्टी बनाना आसन नहीं है,पर अन्ना जी की लोकप्रियता का लाभ उठाने ऐसे लोग भी इस पार्टी में शामिल हो जाते,जो ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं.अब ,जबकि अन्ना जी का वरद हस्त इनके सर पर नहीं है और फिर भी ये पार्टी बनाते हैं तो तपे तपाये लोग हीं इनके साथ आयेंगे,क्योंकि त्वरित लाभ की संभावना तो रहेगी नहीं.अब अगर यह पार्टी असफल होती है तो यह असफलता राष्ट्र की असफलता होगी .एक नए युग के निर्माण की आशा मिट्टी में मिलेगी.