अन्ना हज़ारे का बिखरता आंदोलन

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जिस बात का डर था, वही हुआ। अन्‍ना हजारे के आंदोलन से लोग विमुख होने लगे हैं। जंतर-मंतर से नदारद भीड़ तो यही इशारा कर रही है। आंदोलन से जुड़े लोग इसका सारा दोष मीडिया पर मढ़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि मीडिया बिक चुका है, कॉपरेरेट के दबाव में है, इसलिए अन्‍ना के आंदोलन को कवर नहीं कर रहा है। हालांकि सच्‍चाई इससे एकदम अलग है।

टीम अन्‍ना और उनके समर्थक हताश हैं, निस्तेज हैं। इसमें उनकी गलती भी नहीं है। जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी न के बराबर है। यह स्थिति वाकई हताश कर देने वाली है। टीम अन्‍ना ने भाजपा से पल्‍ला झाड़ा। कई कॉपरेरेट कंपनियों से पल्‍ला झाड़ा। संघ से पल्‍ला झाड़ा। नतीजा, पिछली बार जहां रामलीला मैदान में पैर रखने तक की जगह नहीं थी, आज वहीं जंतर-मंतर पर लोग पैर तक नहीं रख रहे हैं।

एक आंदोलन कैसे जोश से शुरू होता है और फिर निजी महत्वाकांक्षाओं, मनमुटाव के कारण बिखरता जाता है, टीम अन्‍ना का आंदोलन इसका बेहतर उदाहरण है। अन्‍ना को छोड़कर आज इस आंदोलन से जुड़े तमाम लोगों की साख का संकट है। अन्‍ना आते हैं तो भारी भीड़ जुटती है, लेकिन केजरीवाल के साथ आज सौ लोग भी खड़े नजर नहीं आते। इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत रही, लोगों का भावुकता के साथ अन्‍ना से जुड़ना। लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी भी यही बनी। जो लोग भावुकता के साथ जुड़े थे, उन्‍हें जब अन्‍ना की कोर टीम के अहं और अड़ियल रवैये का भान हुआ, तो वे दूर छिटकने लगे।

सोचिए, पिछली बार जो मीडिया अन्‍ना आंदोलन के पल-पल की खबरें दिखा रहा था, छाप रहा था, तो अब क्‍यों नहीं? दरअसल खबर बनने के लिए किसी इवेंट या घटना में खबर का पुट होना चाहिए। अन्‍ना का आंदोलन अब यह धीरे-धीरे खोता जा रहा है। मुंबई के बाद अब दिल्‍ली में भी आंदोलन का पिटना टीम अन्ना के भविष्य के लिए कई सवाल खड़े कर रहा है।

बीते एक साल में टीम अन्‍ना के बारे में कई तरह की बातें सामने आईं। अरविंद केजरीवाल पर आयकर विभाग ने उंगली उठाई। किरण बेदी ने विमान की टिकट का पैसा बचाया तो भूषण बाप-बेटे की जोड़ी पर भी तरह-तरह के आरोप लगे।

जिस तरह मौजूदा दौर में देश में सरकार चलाने के लिए गठबंधन की आवश्‍यकता पड़ती है, वैसे ही अन्‍ना और बाबा रामदेव ने भी आंदोलन के लिए गठबंधन किया। लेकिन यकीन मानिए, दोनों में न सिर्फ मतभेद, बल्कि मनभेद भी हैं। टीम अन्‍ना शुरू से प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात करती कर रही है, लेकिन रामदेव का स्‍टैंड इससे अलग है। रामदेव को संघ के साथ से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन टीम अन्‍ना ने कभी खुलकर ऐसे संगठनों का समर्थन नहीं स्वीकारा। टीम अन्‍ना और रामदेव की कथनी और करनी के अंतर ने भी आंदोलन को कमजोर किया है।

टीम अन्‍ना का रवैया शुरू से ही तानाशाही भरा रहा है। जनलोकपाल बिल को लेकर पूरी टीम जिस प्रकार अड़ी रही और अभी भी अड़ी है, उससे भी जनता में गलत संदेश गया। आखिर आपकी ही सोच हमेशा सही नहीं हो सकती। सामने वाले की राय भी मायने रखती है। उनका अड़ियल रवैया आंदोलन के लोकतंत्र पर सवाल खड़ा करता है। कोर कमेटी में जिन दूसरे सदस्‍यों ने अपनी राय रखनी चाही, उन्हें बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया। आंदोलन में अब टोपी बिकने लगी, टी-शर्ट बिकने लगी। यह आंदोलन न होकर एक मेला बन गया। ऐसे आंदोलनों का हश्र क्‍या होता है, यह पहले ही पता चल गया था।

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  1. आशीष महर्षि जी इस आन्दोलन को जिसने बच्चों का खेल समझ रखा था ,उन लोगों को निराशा होने लगी है.आपलोगों को समझना चाहिए कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई स्वाधीनता संग्राम से जयादा कठिन है.यह वह लड़ाई है जिसका आभाष महात्मा गाँधी को १९३९ में ही हो गया था,जब उन्होंने कहा था कि “I would go to the length of giving the whole congress a decent burial, rather than put
    up with corruption that is rampant.”
    जब भ्रष्टाचार का आलम उस समय भी ऐसा था तो आप समझ सकते हैं कि यह भारतीयों के खून में पुस्तैनी रूप में मौजूद है.उसको खून से निकाल कर बाहर करना आसान तो नहीं है.आजादी की लड़ाई में भी कई ऐसे ज्ञात या अज्ञात मोड़ आये थे, जब हम हारते हुए नजर आये थे,पर हमें अंग्रेजों की गुलामी से निजात तो मिली.पर हम आजादी के साथ साथ ही अपने मार्ग से भी भटक गए.जीप घोटाला १९४८ में हुआ था,तब से लेकर आज तक घोटालों की लम्बी सूची है.इस तरह की मनोवृति को बदलना आसान नहीं है.प्रवक्ता के इन्हीं पन्नों में अडवानी जी ने कहाथा कि लोगों को अपना भ्रष्टाचार तो नहीं दीखता दूसरे का भ्रष्टाचार देखते हैं.आवश्यकता है अपना भ्रष्टाचार देखने की और मनोवृति में बदलाव की,जब तक वह नहीं आयेगा,तब तक भारत से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा.
    पिछले वर्ष नया नया जोश था .लोगों को लगा था कि अब तो जन लोकपाल बिल पारित होने ही वाला है और भ्रष्टाचार जाने ही वाला है .सरकार के लिखित वादे भी ऐसा ही दर्शा रहे थे..आपलोगों में से पता नहीं कितनो ने दिलीप कुमार की पुरानी फिल्म पैगाम देखी है.उसमे मोतीलाल मिल मालिक हैं.उसका गुनाह जब सामने आता है तो वह यह सोच कर अपने तिजोरी के सामने जाता हैं कि अपना सब धन ग़रीबों में बाँट देगा और सबके सामने अपना गुनाह कबूल कर लेगा,पर तिजोरी में रूपयों का ढेर देखते हिं उसके विचार बदल जाते हैं.हमारी सरकार और उसके प्रतिनिधियों की स्थिति भी कुछ वैसी ही है इस आन्दोलन में इस तरह के अनेक उतार चढाव अभी आयेंगे.जिन लोगों को भ्रष्टाचार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में लाभ मिल रहा है वे उसमे अनेक तरह के रोड़े अटकने का प्रयत्न तब तक करते रहेंगे,जब तक वे थक न जाए ये भ्रष्टाचार विरोधी दल को थका न दें .एक समय ऐसा भी आ सकता है,जब निष्क्रिय लोगों को भी भ्रष्टाचार का समर्थक मानने को बाध्य होना पड़ेगा.
    जिस तबके को इस लड़ाई से सबसे अधिक लाभ मिलाने वाला है,उसको तो अभी यह लड़ाई पूरी तरह समझ में ही नहीं आई है.जब तक भारत का जन मानस इस लड़ाई को पूरी तरह नहीं समझ पायेगा,तब तक यह लड़ाई इसी तरह उतार चढाव झेलती रहेगी.
    मेरा तो यहाँ तक मानना है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए सत्ता परिवर्तन की भी आवश्यकता पड़ सकती है.उस समय जनता की असली परीक्षा की घड़ी आयेगी,क्योंकि यह टीम अगर १९७७ के सत्ता परिवर्तन से सबक लेगी तो आज की किसी स्थापित दल का विश्वास नहीं करेगी.उस हालात में इनको जनता के बीच जाकर भारत के प्रत्येक चुनाव क्षेत्र से एक ईमानदार आदमी मांगना होगा जो जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सके.यदि ऐसा होगा तभी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन आ सकता है.
    रह गयी टीम अन्ना के सदस्यों के बीच मतभेद का तो,विचारों में कुछ विभिन्नता को मैं मतभेद नहीं मानता.अगर बास्तव में टीम में आपसी मन मुटाव है तो भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखने वालों को नए सिरे से सोचना पड़ेगा.

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