अन्ना-रामदेव के आंदोलन का शुक्ल पक्ष

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डॉ. आशीष वशिष्ठ

अन्ना और रामदेव का आंदोलन मंजिल से पहले ही दम तोड़ गया। वजह चाहे भी रही हो लेकिन जिस शोर-शराबे और जोश के साथ इन आंदोलनों का आगाज हुआ था उससे यह उम्मीद बंधी थी कि कुछ परिवर्तन होकर रहेगा। लेकिन पिछले लगभग डेढ साल से रूक-रूककर चल रहे इन आंदोलनों का अंत बिना निर्णायक किसी नतीजे के होगा ये किसी ने सोचा नहीं था। हर मुद्दे की भांति इन आंदोलनों को लेकर भी देश दो हिस्सों में बंटा रहा। अन्ना और रामदेव के समर्थकों की अगर लंबी कतार है तो वहीं आलोचका भी कम नहीं है। अन्ना और रामदेव को कदम-कदम पर भारी आलोचना और नकारात्मक शक्तियों का सामना करना पड़ा। अन्ना और रामदेव के उठाए मुद्दों को शांतचित होकर गंभीरता और धैर्य से सुनने की बजाए सरकार ने उन्हें स्वार्थी, दागी और बुरी शक्तियों से घिरा हुआ साबित करने में अपनी अधिकांश ऊर्जा खर्च की। लाठीचार्ज से लेकर तिहाड़ जेल तक अन्ना और रामदेव के आंदोलनों ने कई उतार-चढ़ाव और रंग देखे। ये अलग बात है कि इन जन आंदोलनों का सुखांत नहीं हुआ। तमाम आलोचनाआंे, संकटों और जुबानी हमलों से घिरे अन्ना और रामदेव के आंदोलन से देश को कुछ हासिल नहीं हुआ, या यह मानना कि इन आंदोलनों पर कृष्ण पक्ष हावी था आधी-अध्ूारा सत्य होगा। भले ही यह आंदोलन सफल न हो पाए हों लेकिन इनका शुक्ल पक्ष को कम करके नहीं आंका जा सकता है और अगर इस पक्ष पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो भविष्य में बेहतरी की उम्मीद जगती दिखाई देती है।

यह सच्चाई है कि अन्ना और रामदेव ने संघर्ष की जमीन और पृष्ठभूमि तैयार की और आम आदमी के लड़ने के जज्बे को झकझोरा व जगाया। ऐतिहासिक जेपी आंदोलन के बाद अन्ना ने देश में दूसरे सबसे बड़े सामाजिक आंदोलन की नींव रखी। अन्ना के आंदोलन ने बरसों से सोई, अभाव, गरीबी और परेशानियों को अपना भाग्य मान बैठी जनता को झकझोरने, सोचने को मजबूर किया और एकमत व समान विचारधारा वालों को सशक्त मंच प्रदान किया। अन्ना के आंदोलन से हर वर्ग, जात-बिरादरी, आयु और क्षेत्र के लोग बिना किसी भेदभाव के एकत्र हुए और सभी न एक ही दिशा में बिना किसी मन और मतभेद के बगैर देशहित की सोच दिखाई। बड़े-बुजुर्गो के साथ इन आंदोलनांे मंे युवाआंे का बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना नयी पीढ़ी की बदलती सोच, सामाजिक व राजनीतिक जीवन में सक्रिय भागीदारी और चिंतन-मंथन की प्रक्रिया का हिस्सा है। युवा शक्ति का देशहित के मुद्दों पर सड़कों पर उतरना सुखद और सकारात्मक संकेत है, जो इन आंदोलनों की सबसे बड़ी शक्ति और सफलता कहा जा सकता है।

अन्ना और रामदेव ने देश की पिछले लगभग चार दशकों से चली आ रही चुप्पी और खामोशी को तोड़ने का बड़ा काम किया। जनता को बताया कि किस तरह उनका शोेषण हो रहा है, बाड़ खेत को खा रही है। जिनके भरोसे जनता ने देश और अपना भविष्य सौंप रखा है वो किस तरह उनका हक लूट रहे हैं, और देश को बेचने का षडयंत्र रच रहे हैं। सरकार और व्यवस्था के हठी, जिद्दी, बेशर्म और संवेदनहीन चेहरे के दर्शन भी जनता को इन आंदोलनों के मार्फत हुए। सत्ता कितनी स्वार्थी, षडयंत्रकारी और तिकड़मबाज है और उसकी नजर में आम आदमी की क्या कीमत है ये अब राज की बात नहीं रहा है। आम आदमी के हक और हुकूक की आवाज उठाने वाले और उसका साथ देने वालों के प्रति सत्ता के क्रूर और घिनौने चेहरे के दर्शन उस समय हुए जब रामलीला मैदान में आधी रात को पुलिस ने निहत्थे, निर्दोष और अहिंसक आंदोलनकारियों पर बेरहमी से लाठीचार्ज किया। सच और आम आदमी की आवाज को दबाने के लिए तिहाड़ में डालने की नाकाम कोशिश भी की गई। 

अन्ना देशवासियों के लिए जन लोकपाल बिल और रामदेव विदेशों से कालाधन वापस देश लाने की मांग कर रहे हैं। प्रत्येक देशवासी यह चाहेगा कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए एक सशक्त और सख्त जन लोकपाल बिल मिले और विदेशी बैंकों में जमा करोड़ों रूपया विकास और जन कल्याण में खर्च हो। हां आंदोलन के तरीके और व्यक्ति विशेष की पसंदगी या नापसंदगी दूसरी बात है लेकिन जिस मुद्दे को लेकर अन्ना और रामदेव आंदोलनरत हैं वो गलत नहीं था। दोनों ने आम आदमी से जुड़ा मुद्दा उठाया था, ये बात स्वीकार करनी होगी। लेकिन सरकार ने जान बूझकर आंदोलन को दिशाहीन करने, भटकाने, बंाटने और देशवासियों को गुमराह करने का काम किया। सरकार ने एक बार भी इन मुद्दों पर गंभीरता और खुले दिलो-दिमाग से विचार नहीं किया और आंदोलनों को अपने व्यक्तिगत विरोध और राजनीति से जोड़कर देखना शुरू कर दिया। अन्ना और रामदेव ने शुरूआती दौर में सरकार या किसी राजनीतिक दल पर व्यक्तिगत हमला या बयानबाजी नहीं की थी। लेकिन जब सरकार ने दमन चक्र चलाया तो अन्ना और रामदेव ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। सरकार ने जुबानी हमले से लेकर, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर हर वो तरीका अपनाया जिससे आंदोलनों की धार कंुद की जा सके। अन्ना और रामदेव के मुंह खोलने से सरकार की राह आसान हो गई और जनता का ध्यान असल मुद्दे से हटकर बेमतलब बयानबाजी और कीचड़ उछालने से भंग हुआ।

अगर देखा जाए तो सरकार ने जितना समय आंदोलनकारियों के चरित्र और अतीत को जनता के सामने रखने और खंगालने में खपाया अगर उसका आधा भी मुद्दों को समझने और सुलझाने में लगाया होता तो बात बन गई होती। लेकिन व्यवस्था को किसी कीमत पर यह बर्दाशत नहीं हुआ कि आम आदमी की भीड़ से कोई एक शख्स उससे सवाल-जवाब करे और उसे व्यवस्था सुधारने की नसीहत दे। सरकार ने मुद्दे की गंभीरता को सोचे-समझे बिना आंदोलन और मुद्दों को अपने व्यक्तिगत नफे-नुकसान और राजनीति से जोड़कर देखना शुरू कर दिया। क्या अन्ना और रामदेव की बात सुनने में सरकार की प्रतिष्ठा कम हो जातीघ् अगर यह मान भी लिया जाए तो अन्ना और रामदेव के दामन पर दाग हैं तो व्यवस्था में बैठे महानुभावों का दामन कितना उजला है यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। असल में देश में भले ही प्रजातंत्र शासन प्रणाली लागू है लेकिन प्रजातंत्र की डोर चंद सांमतवादी प्रवृति के लोगों के हाथ में ही है। जिनकी नजर में जनता की हैसियत एक वोट से ज्यादा नहीं है। ऐसे में जो जनता चुपचाप पिछले छह दशकों से आश्वासनों, वायदों और जात-पात की राजनीति में उलझी थी एकाएक उसका अपने हक के लिए सिर उठाना और सवाल-जवाब करना व्यवस्था को बर्दाशत नहीं हुआ और सुनियोजित तरीके से आंदोलनों को तितर-बितर करने में उसने सारी ताकत झोंक दी जिसमें वो काफी हद तक सफल भी रही। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्ना और रामदेव के आंदोलन से आम आदमी को अपनी ताकत का एहसास हुआ और रहनुमाओं की हकीकत का पता चला। फिलवक्त सरकार यह समझ रही है कि उसने आंदोलन की हवा निकाल दी है लेकिन जो मुद्दे अन्ना और रामदेव ने उठाये हैं वो आज नहीं तो कल अपने मुकाम तक जरूर पहुंचेगे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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